भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के जवाब में विरोधी दलों ने सामाजिक न्याय के लिए एकताबद्ध होने का निश्चय किया है। गत 3 अप्रेल को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने विरोधी दलों की बैठक इसी इरादे से बुलाई थी। हाल में कोलार की एक रैली में राहुल गांधी ने नारा लगाया, ‘जितनी आबादी, उतना हक।’ वस्तुतः यह बसपा के संस्थापक कांशी राम के नारे का ही एक रूप है, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जातीय आधार पर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक रखी है, उसे खत्म करना चाहिए। इसके पहले रायपुर में हुए पार्टी महाधिवेशन में इस आशय का एक प्रस्ताव पास भी किया गया है। ज़ाहिर है कि पार्टी ने मंडल-राजनीति का वरण करके आगे बढ़ने का निश्चय किया है। पार्टी की जिन दलों के साथ गठबंधन की बातें चल रही हैं, उनमें से ज्यादातर मंडल-समर्थक हैं। इन पार्टियों की माँग है कि देश में जाति-आधारित जनगणना होनी चाहिए। बिहार सरकार ने इस मामले में पहल की है, जहाँ इन दिनों जातीय आधार पर जनगणना चल रही है, जो मई में पूरी होगी। इसके अलावा 2011 में हुए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्टों को सार्वजनिक करने की माँग भी की गई है। केंद्र सरकार इन दोनों बातों के लिए तैयार नहीं है। जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2011 में की गई सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की कोई योजना नहीं है। 2021 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा, 'साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं। इससे जो आंकड़े हासिल हुए थे वे गलतियों से भरे और अनुपयोगी थे।'
सामाजिक
अंतर्विरोध
विशेषज्ञ मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना देर सवेर होनी ही है। इस सवाल को राजनीति से अलग रखकर देखना भी मुश्किल है। राज्य सरकारें कई तरह की अपेक्षाओं के साथ जातिगत जनगणना करा रही हैं। जब उनकी राजनीतिक अपेक्षाएं सही नहीं उतरती हैं, तब जनगणना से मिले आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया जाता है। बिहार से पहले कर्नाटक में भी जातिगत जनगणना हुई थी, पर उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। इसी तरह की एक जनगणना नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में भी हो चुकी है। दुनिया के तमाम देश ‘एफर्मेटिव एक्शन’ के महत्व को स्वीकार करते हैं। ये कार्यक्रम केवल शिक्षा से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें किफायती आवास, स्वास्थ्य और कारोबार से जुड़े कार्यक्रम शामिल हैं। अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में ऐसे सकारात्मक कार्यक्रम चल रहे हैं। इनके अच्छे परिणाम भी आए हैं। सामाजिक शोध बताते हैं कि अमेरिका में गोरों की तुलना में कम अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश करने वाले अश्वेतों ने कालांतर में अपने गोरे सहपाठियों की तुलना में बेहतर स्थान पाया। भारत के संदर्भ में अर्थशास्त्री विक्टोरिया नैटकोवस्का, अमर्त्य लाहिड़ी और सौरभ बी पॉल ने 1983 से 2005 तक पाँच राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आँकड़ों विश्लेषण से साबित किया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के प्रदर्शन में सुधार हुआ है।
सरकार ने हाथ खींचा
अगस्त 2018
में केंद्र सरकार ने 2021 की जनगणना की तैयारियों का विवरण देते
हुए कहा था, कि इस जनगणना में पहली बार ओबीसी पर डेटा एकत्र
करने की भी परिकल्पना की गई है। बाद में केंद्र सरकार ने इस बात से हाथ खींच लिया।
दुर्भाग्य से कोविड के कारण जनगणना नहीं हो पाई है और 2024 के चुनाव के पहले यह
संभव भी नहीं लग रही है। अलबत्ता चुनाव का एक मुद्दा यह जरूर बनेगी। जातीय आधार पर
जनगणना कराने में दिक्कतें भी हैं, इसीलिए केंद्र में जब भी कोई सरकार आती है,
तो वो अपना हाथ खींच लेती है। जब वह विपक्ष में होती है तो वह जातिगत
जनगणना के पक्ष में बोलती है। ऐसा बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ हुआ है।
जाति की
भूमिका
भारतीय परिस्थितियों में जाति एक महत्वपूर्ण
संकेतक है, पर हमारी जनगणना में जातियों की पहचान दर्ज नहीं होती है। केवल
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े डेटा का संकलन ही किया जाता है। सन
1931 में आखिरी बार देश की जनगणना में जातियों से जुड़े डेटा का संकलन किया गया
था। सत्तर के दशक के बाद से देश में पिछड़ी जातियों के राजनीतिक नेतृत्व का उभार
हुआ है और उनकी माँग है कि सत्ता में उनकी हिस्सेदारी भी उनकी जनसंख्या के अनुपात
में होनी चाहिए। बिहार सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है और इन दिनों वहाँ
जाति-आधारित जनगणना का कार्य चल रहा है, जो मई में पूरा होगा। अदालतों की भावना है कि जाति भी नागरिकों का एक
वर्ग है, जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता
है। जाति का नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे
शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी
होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है।
बचने की कोशिशें
जनगणना मूलतः केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है।
इसके लिए 1948 का जनगणना कानून है, जिसमें जातीय-जनगणना की व्यवस्था नहीं है। हमारे
यहाँ दो समांतर प्रवृत्तियाँ देखने को मिली हैं। एक तरफ हम जाति के नाम से बचने की
कोशिश करते हैं और दूसरी तरफ जीवन और समाज में जातियों की जबर्दस्त भूमिका को पाते
हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872
में की गई थी। 1931 तक जितनी बार भी जनगणना हुई, उसमें
जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया। स्वतंत्रता के बाद जब 1951 में पहली बार जनगणना हुई, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति
से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर रखा गया। केवल इन दो वर्गों को ही विशेष सामाजिक
वर्ग के रूप में मान्यता दी गई थी। भारत सरकार ने जातिगत जनगणना से परहेज़ किया और
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती,
क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति
या धर्म को नहीं। सन 2001 की जनगणना के पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की
संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की
पार्टी पीएमके ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल
किया जाए। यह अपील नहीं मानी गई।
भेदभाव बनाम न्याय
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति,
जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति
के साथ भेदभाव न करने के लिए संकल्पबद्ध है। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 समानता
पर केन्द्रित हैं। देश में सबसे पहले जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था
की ज़रूरत तब पड़ी जब 1951 के मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम
कोर्ट ने आरक्षण के सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन
में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के
रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और
जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं। संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा
का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत और अनुच्छेद 341 और 342
में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई।
अपरिभाषित पिछड़ापन
दूसरी तरफ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े
वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर
आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों
में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और
शैक्षिक रूप से ‘पिछड़े वर्गों’ का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है।
इसमें ‘जाति’ शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे
ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति
पिछड़ेपन का आधार नहीं है। 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को आरक्षण देने के
केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों
को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से
समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि
हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को
ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। कोर्ट ने
कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन
के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता।
जाति-आधारित राजनीति
जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं।
मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा
वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा? इस
दृष्टि से मलाईदार परत की अवधारणा बनी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है
कि मलाईदार परत को अलग करे। जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा
मिलेगा। इससे यह पता भी लगेगा कि किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं।
यह वास्तविकता है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी। ऊँच-नीच
का हल शहरीकरण से हो जाएगा, पर जातीय पहचान अलग चीज़ है। वह इतनी
आसानी से खत्म नहीं होगी। अलबत्ता लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति औपचारिक रूप लेगी।
बीजेपी को लोग हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर
उसमें ओबीसी सांसदों और विधायकों की भरमार है। हमें इन बातों से भागना नहीं, समझना
चाहिए।
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