इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हम इस बात पर बहस कर रहे हैं कि लोकतंत्र क्या है. दिसंबर, 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘डेमोक्रेसी समिट’ का आयोजन किया था, जिसके जवाब में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा कि असली और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चीन में है.
हम मानते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत
में है, पर इकोनॉमिस्ट के डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत को उतना अच्छा स्थान नहीं
दिया जाता, जितना हम चाहते हैं. पश्चिम में हमारी आलोचना हो रही है. वैसे ही जैसे
1975-77 की इमर्जेंसी के दौर में हुई थी.
सूप बोले तो बोले…
कुछ साल पहले, जब हम भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर
बहस कर रहे थे एक अख़बार में खबर छपी कि चीन के लोग मानते हैं कि भारत के विकास के
सामने सबसे बड़ा अड़ंगा है लोकतंत्र. कई चीनी अख़बारों ने इस आशय की टिप्पणियाँ कीं
कि भारत का ‘छुट्टा लोकतंत्र’ उसके पिछड़ेपन का बड़ा कारण है.
कुछ साल पहले नीति आयोग के तत्कालीन सीईओ अमिताभ
कांत ने कहा, 'हमारे देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है.'
2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर
ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता.
चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की
निरंकुश राजनीतिक व्यवस्था है. क्या हमें भी वैसी व्यवस्था चाहिए? सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है. वहाँ
छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं.
जागरूक लोकतंत्र
सिस्टम के अलावा लोकतंत्र की इकाई के रूप में
नागरिकों की गुणवत्ता भी उसकी सेहत तय करती है. लोकतंत्र की वैश्विक पहल 1988 में
फिलिपीन्स के राष्ट्रपति एक्विनो ने शुरू की थी. उनके देश में फर्दिनांद मार्कोस
के नेतृत्व में 20 साल से चली आ रही तानाशाही का अंत हुआ था, जिसका उत्सव मनाने के
लिए एक्विनो ने ‘जनशक्ति क्रांति या पीपुल पावर
रिवॉल्यूशन’ नाम से यह पहल शुरू की थी.
16 सितंबर 1997 को इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन
(आईपीयू) ने लोकतंत्र का सार्वभौमिक घोषणापत्र जारी किया, जिसका फैसला उसके एक दिन
पहले काहिरा सम्मेलन में किया गया था. दस साल बाद 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा
ने हर साल 15 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक दिवस मनाने का फैसला किया. इसका
उद्देश्य है कि दुनिया में जागरूकता फैलाना.
हमारी सफलता
हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है. इस सफलता के बावजूद हमारे लोकतंत्र को लेकर कुछ सवाल हैं.
15 अगस्त, 1947 को जो भारत
आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था. 15 अगस्त, 1947
को जवाहर लाल नेहरू ने कहा, ‘इतिहास के प्रारंभ से ही भारत ने अपनी अनंत खोज आरंभ
की थी...आज हम जिस उपलब्धि का जश्न मना रहे हैं, वह हमारी
राह देख रही महान विजयों और उपलब्धियों की दिशा में महज एक कदम है.’
इस भाषण के दो साल बाद 25 नवंबर, 1949 को संविधान
सभा में भीमराव आंबेडकर ने कहा, ‘राजनीतिक लोकतंत्र
तबतक विफल है, जबतक उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो.’
और कुछ सवाल
हमारे लोकतंत्र की
कुछ विशेषताएं उसे दुनिया के तमाम देशों के लोकतंत्र से अलग
करती हैं. बेशक उसके जिस स्वरूप को हमने अंगीकार किया है, वह पश्चिम से आया है. आज
75 साल बाद पश्चिमी देशों के मीडिया और कुछ संस्थाओं ने हमारे लोकतंत्र को लेकर
सवाल उठाने शुरू किए हैं.
उन सवालों पर जाने से पहले इस बात को स्वीकार करना
होगा कि औपनिवेशिक देशों में भारत सबसे सफल लोकतांत्रिक-व्यवस्था है. गैर-यूरोपीय
देशों में जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और इसरायल जैसे देशों को छोड़ दें, तो
भारतीय लोकतंत्र सबसे स्थिर रहा है.
जापान, कोरिया और इसरायली लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं
से अपनी तुलना करें, तो पाएंगे कि हमारी व्यवस्था कहीं बेहतर है, अपने पड़ोसी
देशों के मुकाबले भी. यह फर्क हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की देन है.
सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत
तलब नहीं हुआ. छोटे देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी. यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र. इस लोकतंत्र के सामने दुनिया की सबसे भीषण
चुनौतियाँ थीं.
विविधता और विशालता
फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिंद पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां
बनता गया.’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है.
भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है, पर लोकतंत्र नई अवधारणा है.
लोकतांत्रिक भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण
लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है. ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन.
देश की संवैधानिक व्यवस्था पर विचार करते समय
इस बारे में कभी दो राय नहीं थी कि यह काम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर
होगा और इसमें क्षेत्र, जाति, धर्म
और लिंग का भेदभाव नहीं होगा. ये लक्ष्य पूरी तरह हासिल हुए या नहीं हुए, इसे लेकर
कई तरह की राय हैं, पर इन लक्ष्यों को लेकर मतभेद नहीं हैं.
ग्रासरूट डेमोक्रेसी
इस साल 24 अप्रैल को 73वां संविधान संशोधन
अधिनियम लागू होने का 30वां साल शुरू हुआ है. यह अधिनियम 1992 में पास हुआ था और
24 अप्रैल,1993 को लागू हुआ था. इस दिन को ‘राष्ट्रीय
पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत 2010 से हुई थी.
सबसे निचले स्तर पर पंचायत-व्यवस्था में लगभग
प्रत्यक्ष-लोकतंत्र है. यानी कि अपनी समस्याओं के समाधान में जनता की सीधी
भागीदारी. यह व्यवस्था जितनी पुष्ट होगी, उतना ही ताकतवर
हमारा लोकतंत्र बनेगा.
ऊँचे स्तर पर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव
आयोग जैसी संस्थाएं और जानकारी पाने के अधिकार जैसी व्यवस्थाएं इस लोकतंत्र को पुख्ता
बनाती हैं. प्रेस की स्वतंत्रता भी इस स्वतंत्रता का मजबूत स्तंभ है.
राजनीतिक-भ्रष्टाचार
पहली लोकसभा 17 अप्रेल 1952 में बनी थी,
पर उसके पहले संविधान सभा ही अस्थायी संसद के रूप में काम कर रही थी.
उसी सभा में राजनीतिक कदाचार का पहला मामला सामने आया था. सदन के सदस्य एचजी मुदगल
की सदस्यता समाप्त की गई.
नौकरशाही, राजनेताओं,
पूँजीपतियों और अपराधियों के गठजोड़ की कहानियाँ आजादी के पहले भी
थीं, पर पहला बड़ा घोटाला 1958 में ‘मूँधड़ा-कांड’ के रूप में सामने आया. तत्कालीन
वित्तमंत्री टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा. ये विवाद लोकतंत्र की विफलता
नहीं, सफलता की कहानी भी कहते हैं. खुलापन नहीं होता, तो ये बातें सामने नहीं आ
पातीं.
एस्पिरेशनल इंडिया
कुछ साल पहले अमिताभ बच्चन ने ‘कौन
बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम के एक एपिसोड को शुरू करते
हुए कहा, ‘मैंने इस कार्यक्रम में एक नया हिंदुस्तान महसूस किया.
हँसता-मुस्कराता हिंदुस्तान. यह हिंदुस्तान अपना पक्का घर बनाना चाहता है, लेकिन उसके कच्चे घर ने उसके इरादों को कच्चा नहीं होने दिया…यह हिन्दुस्तान कपड़े सीता है, ट्यूशन
करता है, दुकान पर सब्जियाँ तोलता है…इसके बावजूद वह अपनी कीमत जानता है. उसका
मनोबल ऊँचा और लगन बुलंद है. हम सब इस नए हिन्दुस्तान को सलाम करते हैं.’
इसे एस्पिरेशनल इंडिया कहेंगे. अपने हालात को
सुधारने को व्याकुल भारत. यह व्याकुलता जैसे-जैसे बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें दोष भी
दिखाई पड़ेंगे. इनका निराकरण व्याकुलता के बढ़ते जाने में है. देश नेतृत्व और
प्रशासनिक नीतियों से बनता है, पर उसके पहले वह नागरिकों से बनता है.
मोदी का भारत
हाल में न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक लेख प्रकाशित
किया है, जिसका शीर्षक है ‘मोदीज़ इंडिया इज़ ह्वेयर ग्लोबल डेमोक्रेसी डाइज़.’ यानी कि भारत में लोकतंत्र की मौत हो रही है. यह लेख तब
प्रकाशित हुआ, जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्षों का उत्सव मना रहे थे.
क्या यह ह्वाइट
सुप्रीमेसी की अभिव्यक्ति है? इसी
अखबार ने भारत के चंद्रयान का कार्टून बनाकर मजाक उड़ाया था और बाद में माफी भी
माँगी थी. पिछले साल भारत की विदेश-सेवा से जुड़े
20 पुराने अधिकारियों ने विश्व व्यापार संगठन के नाम एक चिट्ठी लिखी थी,
जिसमें डब्लूटीओ, अमेरिका, ब्रिटेन
और दूसरे पश्चिमी देशों के राजनीतिक समूहों को कोसा गया था.
मौका था किसान आंदोलन के कारण पैदा हुई
राजनीतिक परिस्थितियों का. इसमें लिखा गया था कि आप हमें बाजार खोलने का सुझाव भी
देंगे और ऊपर से नसीहत भी देंगे कि ऐसे नहीं वैसे चलो. यह हमारे देश का मामला है.
हमें बाजार, खाद्य सुरक्षा और किसानों के बीच किस तरह
संतुलन बनाना है, यह काम हमारा है.
उसी मौके पर नीदरलैंड्स के पूर्व राजदूत
अलफोंसस स्टोलिंगा ने एक रोचक ट्वीट किया. उन्होंने लिखा, हमारे
मीडिया में लेखक तमाम विषयों पर तमाम बातें लिखते है, पर
भारत के बारे में उनकी जानकारी भारत के अंग्रेजी मीडिया तक सीमित होती है. उनके
विचार भारत के अंग्रेजी मीडिया की कॉपी भर होते हैं.
प्रेस की आज़ादी
प्रेस की आज़ादी भारतीय लोकतंत्र का सबसे
महत्वपूर्ण कारक है, पर आज मीडिया की भी श्रेणियाँ बन गई हैं. सरकार-समर्थक और
विरोधी मीडिया. इसकी अनुगूँज दुनिया भर में सुनाई पड़ती है.
2021 में जब भारत कोविड-19 के हमले की मार झेल
रहा था, वैश्विक-स्तर पर दो तरह की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलीं. भारत ने अमेरिका,
ब्रिटेन, रूस और चीन से टक्कर लेते हुए अपनी वैक्सीन बनाकर दिखा दी, जो उसकी सफलता
की कथा थी, पर पश्चिमी देशों में जलती चिताओं की तस्वीरें छप रही थीं, जो उसकी
विफलता की कहानी को रेखांकित करना चाहती थीं.
एक तरफ कहा गया कि सीमित साधनों के बावजूद भारत
ने कोरोना का सामना मुस्तैदी से किया है, तो दूसरी तरफ कहा
गया कि संक्रमितों की जो संख्या भारत बता रहा है, वह
गलत है. आकार और संसाधनों की सीमा को देखते हुए भारत को जो समर्थन मिलना चाहिए था,
उससे उसे वंचित किया गया. ऐसा क्यों हुआ? हमारी आंतरिक राजनीति भी इसके लिए दोषी
थी.
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने पहले पेज पर दिल्ली
में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी. लंदन के गार्डियन ने लिखा, द सिस्टम हैज़ कोलैप्स्ड. लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर
मोदी-सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे ऑस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद
कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया.
आंतरिक राजनीति
नागरिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों की स्थिति को
लेकर भारत की आंतरिक राजनीति में बहस है. पश्चिमी-मीडिया के निष्कर्ष भारतीय
मीडिया को पढ़ने से ही बने हैं. यानी कि भारतीय मीडिया सरकार की आलोचना भी करता
है. क्या किसी अलोकतांत्रिक-व्यवस्था में ऐसा संभव है?
पिछले साल स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट और अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस ने भारतीय
लोकतंत्र पर सवाल उठाए. वी-डेम की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में अभिव्यक्ति की
आज़ादी कम हुई है. अमेरिकी रिपोर्ट में भारत को 'स्वतंत्र
लोकतंत्र' की श्रेणी से हटाकर 'आंशिक तौर पर स्वतंत्र लोकतंत्र' की श्रेणी में
डाल दिया गया.
इन रिपोर्टों को विदेशमंत्री
एस जयशंकर ने 'पाखंड' बताया. एक
कार्यक्रम में उन्होंने कहा, ‘आप जिन रिपोर्टों की
बात कर रहे हैं, उनमें लोकतंत्र और निरंकुश शासन की बात
नहीं है, वह पाखंड है. कुछ लोगों
ने ख़ुद को दुनिया का
रक्षक घोषित कर दिया है,
अगर चीज़़ें उनके हिसाब
से नहीं होती तो उन्हें तकलीफ़ होती है. हमें किसी से सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए.’
जयशंकर ने यह भी कहा, ‘वे बीजेपी को हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी कहते हैं. हम राष्ट्रवादी हैं और हमने 70 देशों में वैक्सीन
पहुँचाई, जो ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय-वादी कहते हैं
उन्होंने कितने देशों को अपनी वैक्सीन दी?’
नागरिक अधिकारों और
अल्पसंख्यकों को लेकर शिकायतें हैं, पर पश्चिमी देशों में मोदी सरकार को लेकर
नकारात्मकता है. इस नकारात्मकता से सारी बात प्रभावित होती है. यह नकारात्मकता देश
के उस वर्ग की प्रतिक्रिया से भी जन्म ले रही हैं, जो शायद प्रधान मंत्री नरेंद्र
मोदी से खुश नहीं है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2022) को "भंग हो गये सारे मानक" (चर्चा अंक 4554) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सौ प्रतिशत सही तो इस जगत में कुछ भी नहीं है, किंतु भारत का लोकतंत्र सशक्त है
ReplyDeleteविस्तृत विमर्श।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी।
'कुछ साल पहले नीति आयोग के तत्कालीन सीईओ अमिताभ कांत ने कहा, 'हमारे देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है.' 2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता.' -मैं इस कथन से पूरी तरह से सहमत हूँ। हमारे देश में लोकतन्त्र एक मज़ाक बन कर रह गया है। सरकारी नीति से सहमति व स्वीकार्यता न होने पर अराजक समूहों द्वारा आगजनी किया जाना, देश की सम्पत्ति को अपूरणीय क्षति पहुँचाना, यही मापदण्ड रह गए हैं हमारे प्रजातन्त्र के।
ReplyDelete'हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.' इस बात की सच्चाई में संदेह नहीं है, किन्तु प्रजातान्त्रिक सुविधाओं का उपभोग करते हुए असामाजिकता व स्वच्छंदता का अनुसरण तो कतई स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।
'सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है. वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं.' - निर्बाध सामाजिक जीवन भारत का नागरिक जी सके, इसके लिए भारत को भी इस व्यवस्था की आवश्यकता है, और तभी प्रजातंत्र की सही तस्वीर हम देख पाएँगे
सार्थक व सटीक आलेख ! मेरे द्वारा दी गई टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो सकी है, पता नहीं क्यों!
ReplyDeleteक्षमा करें। मैं देख नहीं पाया, इस कारण विलंब हुआ।
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