पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। सरकार के लिए ही नहीं
विपक्ष के लिए भी। चूंकि सोशल मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है, इसलिए इन चुनावों
में ‘आभासी माहौल’ की भूमिका कहीं ज्यादा होगी। कहना मुश्किल है
कि छोटी से छोटी घटना का किस वक्त क्या असर हो जाए। दूसरे राजनीति उत्तर प्रदेश की
हो या मणिपुर की सोशल मीडिया पर वह वैश्विक राजनीति जैसी महत्वपूर्ण बनकर उभरेगी।
इसलिए छोटी सी भी जीत या हार भारी-भरकम नजर आने लगेगी।
बहरहाल इस बार स्थानीय सवालों पर राष्ट्रीय प्रश्न हावी
हैं। ये राष्ट्रीय सवाल दो तरह के हैं। एक, राजनीतिक गठबंधन के स्तर पर और दूसरा
मुद्दों को लेकर। सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र
मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि
कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी गिरावट रुकेगी या
बढ़ेगी? नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी परीक्षा
है। क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी? और जनता
परिवार का संगीत मद्धम रहेगा या तीव्र?
मोदी को ललकारे कौन?
ममता बनर्जी की तेज-तर्रार कोशिशों के बावजूद मोदी को
राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने के लिए कोई ताकत अभी तक खड़ी नहीं हो पाई है। इस साल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनाव भी हैं। विधानसभा चुनावों के
बाद क्या राष्ट्रपति के पद के लिए विपक्ष एक होने का प्रयास करेगा? साल के अंत में गुजरात और हिमाचल
प्रदेश के चुनाव भी हैं। क्या मोदी की पार्टी को उसके गढ़ में ही चुनौती देने की
कोशिश की जाएगी?
नोटबंदी के मसले ने देश के तकरीबन
हर व्यक्ति को छुआ है। उसके नकारात्मक पक्ष को मोदी ने गरीबों की और मोड़ने की
कोशिश की है। उनकी शब्दावली में ‘गरीब’ शब्द अब बार-बार आ
रहा है। पार्टी ने 2019 में गरीब को केंद्र में रखने का फैसला कर लिया है। गरीबों को
नोटबंदी ने परेशान किया है, पर उन्हें इस बात पर संतोष है कि अमीरों के घर से नोट
पकड़े जा रहे हैं। कोई है जो अमीरों के काले धन को निकालने की कोशिश कर रहा है। बीजेपी
की इस गरीब-मुखी राजनीति की परीक्षा भी इस चुनाव में होगी।
नोटबंदी के अलावा पाकिस्तान के साथ
नियंत्रण रेखा पर टकराव और कश्मीर के आंदोलन का प्रभाव भी इन चुनावों में देखने को
मिलेगा। पठानकोट और उड़ी के हमले और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे विषय वोटर की चर्चा के
विषय हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब तीनों राज्यों में सर्जिकल स्ट्राइक
एक महत्वपूर्ण विषय है। इन तीनों राज्यों के गाँवों में सैनिकों के परिवार रहते
हैं। मोदी पौरुष के प्रतीक हैं। पंजाब में बीजेपी की सहयोगी पार्टी अकाली दल है,
जिसपर एंटी इनकंबैंसी की छाया है। भाजपा का सारा ध्यान उत्तर प्रदेश पर है।
चौदह बरस का बनवास
नए साल के दूसरे ही दिन लखनऊ में बीजेपी की परिवर्तन रैली में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि बीजेपी का अब यूपी में 14 साल का वनवास खत्म होगा। 14 साल बाद भी लोग
आज बीजेपी सरकार को याद करते हैं। उसके विकास के कार्यों की सराहना करते हैं, लेकिन बीजेपी के सत्ता के जाने के साथ ही राज्य में भी
विकास का काम रुक गया। उन्होंने कहा कि यदि हिंदुस्तान का भाग्य यदि बदलना है तो
सबसे पहले उत्तर प्रदेश का भाग्य बदलना होगा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति के बरक्स
पार्टी पूरी ताकत के साथ उतर पड़ी है। ढाई महीने के भीतर मोदी की 8 रैलियाँ उत्तर
प्रदेश में हुईं। इनकी शुरुआत एक तरह से 24 अक्टूबर को महोबा की रैली से हुई। इसके
बाद प्रदेश के चारों कोनों से चार परिवर्तन यात्राएं चलीं जिन्होंने लगभग सभी
जिलों को कवर किया। पड़ोस के राज्य उत्तराखंड में भी यात्राएं चल रहीं हैं। दोनों
राज्यों का वोटर एक-दूसरे को प्रभावित करता है। खासतौर से सीमांत इलाकों में।
यूपी में समाजवादी पार्टी की
अंतर्कलह का राजनीतिक निहितार्थ भी सामने आने वाला है। अखिलेश की सपा का कांग्रेस
से गठबंधन होने ही वाला है। कुछ लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश के परिणाम बिहार
जैसे होंगे। और यह भी कि बीजेपी के हौसले पस्त होने की यह शुरुआत होगी। पर यह
जल्दबाजी का निष्कर्ष है। बिहार में सीधे दो ताकतों के बीच चुनाव हुए थे और यूपी
का मुकाबला कम से कम तीन कोणीय होने वाला है।
सच से सामना
उत्तर प्रदेश की सोशल इंजीनियरिंग
पूरी तरह बिहार जैसी नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में साम्प्रदायिक
हवाएं चल रहीं है। उधर मुस्लिम वोट किसके साथ जाएगा, अभी यह स्पष्ट नहीं है। कुछ
लोग बसपा से उम्मीदें लगाए हुए हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत या हार नरेंद्र मोदी के राजनीतिक
भविष्य को तय करेगी। यहाँ से 2014 जैसी सफलता की उम्मीद तो पार्टी को भी नहीं है।
तब उत्तर प्रदेश ने 80 में से 71 सीटें बीजेपी को दी थीं। यानी की 90 फीसदी सीटें
उसे मिलीं। पर इस बार खुद उसे इसकी उम्मीद नहीं है। इसीलिए पार्टी ने 404 में से
265 यानी 66 फीसदी सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है।
बहरहाल तीन कोणीय मुकाबले में पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आए तो वह
सफलता होगी। उत्तर प्रदेश में जोड़-गाँठकर बीजेपी सरकार बनी तो नब्बे के दशक से चल
रहा राजनीतिक अफसाना एक रोचक मोड़ पर पहुँच जाएगा। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों की साख
पर बट्टा लगा हुआ है, फिर भी कोई सर्वेक्षण बीजेपी से भारी सफलता की उम्मीद नहीं
कर रहा है। सपा-कांग्रेस गठबंधन से उम्मीदें हैं। पर ये उम्मीदें परम्परागत
जातीय-साम्प्रदायिक पहचान के कारण हैं। इस राजनीति में भी बदलाव आ रहा है। बीजेपी
ने बहुमुखी रणनीति बनाई है। वह ओबीसी और दलित जातियों में भी सेंध लगा रही है।
जिन पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें पंजाब को छोड़
दें तो शेष चारों राज्यों में बीजेपी पूरी ताकत से उतर रही है। पहले पूर्वोत्तर के
राज्यों में बीजेपी की दिलचस्पी ज्यादा नहीं रहती थी, पर इस बार पार्टी मणिपुर
जीतना चाहती है। बीजेपी ने इसके लिए नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस बनाया है,
जिसके संयोजक हिमंत बिस्व सरमा ने हाल में घोषणा की है कि भाजपा न केवल मणिपुर का
चुनाव जीतेगी, बल्कि 2019 तक पूर्वांचल के सभी राज्यों में उसकी सरकार बन जाएगी।
2019 की पूर्व-पीठिका
पार्टी को इस बात की समझ है कि उत्तर भारत के कई राज्यों
में सन 2019 में उसे वैसी प्रबल सफलता नहीं मिलेगी, जैसी 2014 में मिली थी। उसकी
कोशिश है कि पूर्वोत्तर और दक्षिण में इसकी प्रति-पूर्ति की जाए। इस लिहाज से मोदी
के यह चुनाव 2019 की पूर्व-पीठिका है। गोवा में मौजूदा समय में भारतीय
जनता पार्टी की सरकार है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 40 में से 21 सीटों
पर कब्जा किया था। इसबार के चुनाव में भाजपा को टक्कर देने के लिए आम आदमी पार्टी भी
है। वहीं कांग्रेस भी भाजपा और आप को टक्कर देने के पूरे प्रयास में है। यहाँ भी
मुकाबला तीन कोणीय हुआ तो भाजपा की परेशानियों को कम करेगा।
चुनाव की घोषणा के दो रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि धर्म,
जाति और भाषा के नाम पर वोट
मांगना गैर-कानूनी है। इसलिए यह देखना भी रोचक होगा कि चुनाव आयोग इस प्रवृत्ति पर
किस तरह से रोक लगाएगा। इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट
के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर
की है। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता,
चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी
इसके दायरे में आते हैं।
भारत की समूची राजनीतिक प्रक्रिया काले धन के सहारे चलती है। यह चुनाव
विमुद्रीकरण के फौरन बाद हो रहा है। क्या नोटबंदी का असर इसपर पड़ेगा, यह भी देखना
होगा। बाकी क्षेत्रों में काले धन का इस्तेमाल तभी कम हो सकता है, जब राजनीति की
कोठरी से कालिख हटे। चुनाव आयोग की सलाह है कि राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी
बनाया जाना चाहिए। उसके अनुसार 2000 रुपये तक के चंदे को भी रिकॉर्ड में लाना
चाहिए। पर यह फैसला सरकार को करना है, जिसके लिए आयकर कानूनों में संशोधन करना
होगा। नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में कहा है कि चंदे को पारदर्शी बनाना चाहिए।
पर वे इसके आगे कुछ नहीं कहते। वे इसके आगे बढ़ पाए तो भविष्य की राजनीति में
उन्हें ही लाभ मिलेगा।
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