सुदीर्घ अनिश्चय के बाद
कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राजनीति के सक्रिय मैदान में उतारने का फैसला कर
लिया है। प्रियंका अभी तक निष्क्रिय नहीं थीं, पर पूरी तरह मैदान में कभी उतर कर
नहीं आईं। अभी यह साफ नहीं है कि वे केवल उत्तर प्रदेश में सक्रिय होंगी या दूसरे
प्रदेशों में भी जाएंगी। उत्तर प्रदेश का चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा मैदान जीतने का
मौका देने वाला नहीं है। वह दूसरी बार चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ उतर रही है। यह
गठबंधन भी बराबरी का नहीं है। गठबंधन की जीत हुई भी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव
बनेंगे। कांग्रेस के लिए इतनी ही संतोष की बात होगी। और उससे बड़ा संतोष तब होगा,
जब उसके विधायकों की संख्या 50 पार कर जाए। बाकी सब बोनस।
उत्तर प्रदेश फतह करने की
कल्पनाएं ही कांग्रेसी नहीं हैं। फिलहाल उसका नेतृत्व उत्तर प्रदेश में भाजपा को
हराना ज्यादा ज़रूरी समझता है। बिहार की तरह यहाँ भी भाजपा को हरा लिया तो हर
गंगा। यही बड़ी उपलब्धि होगी। उनके गठबंधन की सरकार बनी तो कांग्रेस के कुछ नेताओं
को मंत्रिपद मिलेंगे। पैर जमाने के लिए यह कोई खराब सौदा नहीं। इसके सहारे भविष्य
की राजनीति की बुनियाद डाली जाएगी।
आने वाले दो वर्षों की कांग्रेसी
रणनीति अभी गढ़ी ही जा रही है। नया नेतृत्व तैयार हो रहा है। फिलहाल उसे इतना सूझ
पड़ता है कि भाजपा को रोको। बिहार में कांग्रेस ने नीतीश कुमार की बेहतर छवि का
सहारा लिया था। उत्तर प्रदेश में भी उसे अखिलेश की छवि बेहतर दिखाई पड़ती है। यह
याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उत्तर प्रदेश में जैसे-जैसे सपा का उदय हुआ है
वैसे-वैसे कांग्रेस का पराभव भी हुआ है। सपा की छोटी बहन बनकर कांग्रेस को क्या मिलेगा,
इसे लेकर भी कयास हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का
जनाधार भाजपा, सपा और बसपा तीनों ने छीना है, पर उसका सबसे बड़ा हिस्सा सपा के
पल्ले गया है। संयोग से यह उन दिनों हुआ, जब नारायण दत्त तिवारी की सरकार अखिलेश
की तरह उत्तर प्रदेश के विकास की बात कर रही थी और राजीव गांधी सोशल इंजीनियरी के
बिखरते पुर्जों को समेटने में लगे थे।
पिछले ढाई दशक में उत्तर प्रदेश
की राजनीति जाति और सम्प्रदाय के चक्रव्यूह में फँसी रही। इस चुनाव में तय होगा कि
प्रदेश का वोटर चाहता क्या है। सोशल इंजीनियरी का मकड़जाल या विकास की सीधी-सपाट
सड़क? कांग्रेस यदि कहना चाहती है कि जाति और धर्म की
राजनीति ने उत्तर प्रदेश को तबाह कर दिया है तो उसे नई छवि के साथ सामने आना होगा।
यही काम अखिलेश की सपा करेगी।
कांग्रेस
के सामने दूसरा धर्म संकट यह है कि वह चुनाव विधानसभा का लड़ेगी पर मसले लोकसभा के
उठाएगी। उत्तर प्रदेश की सपा सरकार की आलोचना से बचना उसकी मजबूरी है। कांग्रेस के
स्थानीय नेता चाहते हैं कि पार्टी किसानों की समस्याओं को मुद्दा बनाए।
‘किसान-मजदूर को दाम, युवा को काम।’ यानी किसानों की
फसल की बेहतर कीमत, खेत मजदूरों को काम, नौजवानों को रोजगार, बिजली-पानी वगैरह।
इस
मुद्दे पर उसे राज्य सरकार की आलोचना भी करनी होगी। पर कांग्रेस की दिलचस्पी मोदी
में है, क्योंकि अंततः 2019 में उसका
मुकाबला मोदी से है। राहुल ने अपनी खाट सभाओं में ज्यादातर मोदी सरकार पर हमले किए
थे। कुछ मौकों पर अखिलेश सरकार का मजाक जरूर उड़ाया था। पर अब वह भी सम्भव नहीं होगा। सन 1989 में उत्तर प्रदेश की
बागडोर उसके हाथ से छूटी तो दुबारा हाथ में नहीं आई।
सन
2014 के बाद से कांग्रेस की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आई है। यह पहला मौका है
जब पार्टी को सकारात्मकता दिखाई पड़ती है। उसे पंजाब में अपनी वापसी, उत्तराखंड में फिर से अपनी सरकार और उत्तर प्रदेश में
सुधार की संभावना नजर आ रही है। गोवा में भी उसे अपनी स्थिति को सुधारने का मौका
नजर आता है। पर उसके चारों सपने टूट भी सकते हैं।
उत्तर
प्रदेश में पार्टी ने सपा से गठबंधन करके अपनी न्यूनतम सफलता का बीमा जरूर करा
लिया है, पर यह सफलता कितनी होगी इसका अनुमान अभी नहीं है। सन 1996 में बसपा के
साथ गठबंधन में कांग्रेस ने 126 सीटों पर चुनाव लड़ा था, पर जीत उसे 33 सीटों पर
ही मिली थी। इस बीच दूसरी बात यह साबित हुई कि कांग्रेस इस गठबंधन के लिए व्यग्र
थी।
पिछले हफ्ते जब सपा से गठबंधन की
आस खत्म होती नजर आने लगी थी तब सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से डोर जुड़ी। इसके साथ
ही प्रियंका गांधी की बढ़ती भूमिका पर भी रोशनी पड़ी। पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद
पटेल ने इस बात की बाकायदा पुष्टि की कि सपा के साथ गठबंधन कायम करने में प्रियंका
की भूमिका है। इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि सन 2019 के चुनाव में प्रियंका
रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी।
संभवतः सोनिया गांधी धीरे-धीरे
सक्रिय राजनीति से हाथ खींच रहीं हैं। सोनिया गांधी ने अपना पहला चुनाव सन 1999
में अमेठी से लड़ा था, पर 2004 में वे रायबरेली आ गईं। रायबरेली और अमेठी दोनों
गांधी परिवार के लिए महत्वपूर्ण चुनाव क्षेत्र हैं। प्रियंका इन दोनों क्षेत्रों
से वाकिफ हैं और यहाँ अपना समय देती रही हैं। अब यदि वे सक्रिय हो रहीं हैं तो
पार्टी संगठन में भी उन्हें शामिल होना होगा।
संभव है पाँच राज्यों के चुनाव
के बाद बहु-प्रतीक्षित संगठनात्मक फेर-बदल भी देखने को मिले। यह स्पष्ट है कि
सोनिया की जगह देर-सबेर राहुल को मिलने वाली है। अब प्रियंका के लिए भी एक जगह
बनानी होगी। बहरहाल अभी इस बात का इंतजार करना चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति में
उनकी भूमिका किस प्रकार की होगी।
इसमें दो राय नहीं कि उत्तर
प्रदेश का मतदाता राजनीति के परंपरागत सोच को बदलना चाहता है। सन 2012 के चुनाव
में सपा को मिली असाधारण विजय इस बात की पुष्टि करती है। पर पहले दो-तीन साल सपा
सरकार की छवि खास अच्छी नहीं रही। पिछले साल यह बात कही जा रही थी कि इनसे बेहतर
मायावती की सरकार थी, जिसने कम से कम गुंडों को जेल में डाल दिया था।
मुजफ्फरनगर कांड के बाद से
मुसलमानों के मन में भी बेचैनी थी। जब सपा का दुर्ग ढहता दिखाई देने लगा तो
मुसलमान वोटर को बसपा में विकल्प नजर आने लगा। इसलिए कांग्रेस और बसपा गठबंधन की
बातें भी होने लगीं। पर मायावती ने और कांग्रेस नेतृत्व ने साफ कहा कि हम किसी से
गठबंधन नहीं करेंगे। कांग्रेस ने इसके पहले सन 1996 में यूपी में बसपा के साथ
गठबंधन किया था, जिसका फायदा दोनों को नहीं मिला।
छह महीने पहले तक कांग्रेस
अकेले लड़ने की हामी थी। पार्टी ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी
भी घोषित कर दिया। वरिष्ठ और सुलझे हुए नेता गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश का
प्रभारी बनाया गया। राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। पर निचले स्तर पर पार्टी
का संगठन खोखला है। संगठन मजबूत होता और स्थानीय कार्यकर्ता और शिखर नेतृत्व के
बीच संवाद होता तो सन 2009 के लोकसभा चुनाव की सफलता को पार्टी भुना सकती थी। तब कांग्रेस
को 18.25 फीसदी वोट और लोकसभा की 21 सीटें मिली थीं।
उस सफलता ने पार्टी के
आत्मविश्वास को बढ़ाया था। ऐसा लगने लगा था कि यदि संगठनात्मक स्तर पर काम का जाए
तो राज्य में कांग्रेस की वापसी हो सकती है। राज्य की जनता भी सपा-बसपा की
परंपरागत राजनीति से ऊब चुकी थी। पर 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी का
गुब्बारा फूट गया। और सन 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे सबसे बड़ा धक्का लगा।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में
अखिलेश और मोदी की लोकप्रियता की परीक्षा भी होगी। केंद्र में मोदी को
प्रधानमंत्री बनाने में यूपी की बड़ी भूमिका थी। प्रदेश का वोटर रास्ते खोज रहा
है। उसका एक वर्ग नरेंद्र मोदी को पसंद करता है तो उसकी वजह साम्प्रदायिक नहीं
हैं, बल्कि यह समझ है कि मोदी कुछ नया करना चाहते हैं। अखिलेश यादव की लोकप्रियता के
पीछे भी इसी किस्म के वोटर का हाथ है।
ऐसे में प्रियंका यदि नए युवा
नेतृत्व के रूप में सामने आएं तो उसके सकारात्मक परिणाम जरूर होंगे। पर उनके पास
भी जादू की पुड़िया नहीं है। उसके लिए राज्य से नए नेतृत्व को खड़ा करना होगा और
स्थानीय कार्यकर्ता से संवाद स्थापित करना होगा।
फिलहाल कांग्रेस के सामने सपा
के साथ गठबंधन के अलावा कोई रास्ता नहीं था। दोनों का अलग-अलग एजेंडा है। अखिलेश
के सामने 2017 का उत्तर प्रदेश है और कांग्रेस के सामने 2019 का लोकसभा चुनाव।
मोदी की हार उसकी महत्वाकांक्षा है और मोदी की जीत उसका दुःस्वप्न।
उत्तर प्रदेश विधानसभा में
कांग्रेस
1985
|
1989
|
1991
|
1993
|
1996
|
2002
|
2007
|
2012
|
|
सीटें
|
269
|
94
|
46
|
28
|
33
|
24
|
22
|
28
|
वोट
|
39.25
|
27.9
|
17.32
|
15.08
|
8.35
|
8.96
|
8.61
|
11.65
|
बहुत ही बढ़िया article लिखा है आपने। ........Share करने के लिए धन्यवाद। :) :)
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