पिछले हफ्ते तिरुपति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 104वीं भारतीय साइंस कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए कहा कि भारत
2030 तकनीकी विकास के मामले में दुनिया के ‘टॉप तीन’ देशों में शामिल होगा. मन के बहलाने को गालिब ये ख्याल
अच्छा है, पर व्यावहारिक नजरिए से आज हमें एशिया के टॉप तीन देशों में भी शामिल होने
का हक नहीं है. एशिया में जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इसरायल और सिंगापुर
के विज्ञान का स्तर हमसे बेहतर नहीं तो, कमतर भी नहीं है.
नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन में कहा कि कल के विशेषज्ञ पैदा
करने के लिए हमें आज अपने लोगों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश करना होगा. स्कूल, कॉलेजों में अच्छी लैब्स की सुविधा मिलनी चाहिए. यह सब ठीक
है, पर साइंस कांग्रेस हमारे लिए खबर नहीं है. आप अपने मीडिया की कवरेज के पर नजर
डालकर इस बात को खुद देखें. मुख्यधारा के मीडिया ने हमेशा की तरह उसकी उपेक्षा की.
साइंस कांग्रेस पर खबर तभी बनती है, जब उसके साथ कोई विवाद
जुड़े. दो साल पहले मुम्बई की विज्ञान कांग्रेस इसलिए चर्चा का विषय बनी, क्योंकि उसके
साथ प्राचीन भारतीय विज्ञान को लेकर विवाद जुड़े थे. भारतीय जनता पार्टी की सरकार
बनने के बाद वह पहली विज्ञान कांग्रेस थी. क्या बीजेपी का राष्ट्रवाद वैज्ञानिकता
से मेल नहीं खाता?
पिछले हफ्ते तिरुपति के श्री वेंकटेश्वरा विश्वविद्यालय में
आयोजित विज्ञान कांग्रेस में भी विवाद अंदेशा था, पर समय रहते उसे टाल दिया गया. सम्मेलन
की थीम को लेकर इसबार भी विवाद खड़ा हो गया. साइंस कांग्रेस की हर एक थीम होती है.
पहले खबर आई कि इसबार के सम्मेलन की थीम है, ‘विज्ञान और अध्यात्मिकता।’ इसे लेकर वैज्ञानिक समुदाय ने आपत्तियाँ व्यक्त कीं. अंततः
इस विषय पर सम्मेलन का कोई सत्र नहीं हुआ. आधिकारिक रूप से कहा गया कि सम्मेलन की
थीम, ‘राष्ट्रीय विकास में
विज्ञान और तकनीक की भूमिका.’
दिल्ली में बीजेपी की सरकार आने के बाद से विज्ञान को लेकर
पोंगापंथी धारणाओं ने भी सिर उठाया है. यह जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व की है कि
विज्ञान को पोंगापंथी रास्ते पर जाने से बचाए. विज्ञान और पोंगापंथ का बैर है. हमने
साइंस पर रहस्य का आवरण डाल रखा है. अपने अतीत के विज्ञान को भी हम चमत्कारों के
रूप में पेश करते हैं. प्राचीन भारत गणित, खगोल विज्ञान, रसायन, आयुर्वेद और शल्य
चिकित्सा में हमारा प्राचीन ज्ञान भी शोध का विषय है, पर उसकी पद्धति
विज्ञान-सम्मत ही होगी.
साइंस चमत्कार नहीं जीवन और समाज के साथ जुड़ा सबसे
बुनियादी विचार है. प्रकृति के साथ जीने का रास्ता है. तकनीक कैसी होगी यह समाज तय
करता है. जो समाज जितना विज्ञान-मुखी होगा उतनी ही उसकी तकनीक सामाजिक रूप से
उपयोगी होगी. जनवरी 2008 में जब टाटा की नैनो
पहली बार दुनिया के सामने पेश की गई तब वह एक क्रांति थी. जिस देश में सुई भी नहीं
बन रही थी उसने दुनिया की सबसे कम लागत वाली कार तैयार करके दिखा दी. दूसरी ओर 2013 में हमने उत्तराखंड की त्रासदी को होते देखा. उस आपदा ने हमारी
विज्ञान-दृष्टि की पोल खोली। दोनों बातें वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से जुड़ी हैं.
दोनों की विसंगतियों पर हमें ध्यान देना चाहिए.
भारतीय विज्ञान की शानदार परम्परा रही है, पर वह वैश्विक परम्परा से जुड़ी थी. एकांगी नहीं थी. हमने
मिस्र, यूनान, रोम और बेबीलोन से भी
सीखा और उन्हें भी काफी कुछ दिया. हजार साल पहले हमारी अर्थ-व्यवस्था दुनिया की
सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था थी. यदि हम प्रगति की उस गति को बनाए नहीं रख पाए तो उसके
कारण खोजने होंगे. हमारी कुछ कमियाँ भी होंगी. आज का भारत विज्ञान और टेक्नॉलजी
में यूरोप और अमेरिका से बहुत पीछे है, पर वह चाहे तो उनके बराबर भी आ सकता है.
आधुनिक विज्ञान की क्रांति यूरोप में जिस दौर में हुई उसे
‘एज ऑफ डिस्कवरी’ कहते हैं. ज्ञान-विज्ञान आधारित उस क्रांति के साथ भी भारत का
सम्पर्क सबसे पहले हुआ. एशिया-अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के मुकाबले यूरोप की उस
क्रांति के साथ भारत का सम्पर्क पहले हुआ. सन 1928 में सर सीवी रामन को जब
नोबेल पुरस्कार मिला तो यूरोप और अमेरिका की सीमा पहली बार टूटी थी. सन 1945 में जब मुम्बई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च
की स्थापना हुई थी तब विचार यही था कि आधुनिक भारत विज्ञान और तकनीक के सहारे उसी
तरह आगे बढ़ेगा जैसे यूरोप बढ़ा. पर ऐसा हुआ नहीं.
सन 2012 भुवनेश्वर में राष्ट्रीय
विज्ञान कांग्रेस में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हम विज्ञान और
तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं. हमारे सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी पैसा भी
विज्ञान और तकनीक में नहीं लगता. हमारी तुलना में दक्षिण कोरिया कहीं आगे है जो
जीडीपी की 4 फीसदी से ज्यादा राशि अनुसंधान पर खर्च करता
है. भारत ने हाल के वर्षों में कुछ काम सफलता के साथ किए हैं. इनमें हरित क्रांति, अंतरिक्ष कार्यक्रम,
एटमी ऊर्जा
कार्यक्रम, दुग्ध क्रांति, दूरसंचार और
सॉफ्टवेयर उद्योग शामिल हैं.
अगले कुछ हफ्तों में भारत का अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन एकसाथ
103 उपग्रहों का प्रक्षेपण करने जा रहा है. इन उपग्रहों में केवल तीन भारतीय, शेष
100 विदेशी होंगे. यह एक बड़ी उपलब्धि है. वस्तुतः इसरो ने जनवरी के अंतिम सप्ताह
में एकसाथ 83 उपग्रहों के प्रक्षेपण की योजना बनाई थी. अंतिम क्षणों में इसमें 20
और उपग्रह शामिल करने का प्रस्ताव आया, जिसके कारण इस प्रक्षेपण को कुछ हफ्तों के
लिए टाल दिया गया. यह प्रक्षेपण एक नया विश्व रिकॉर्ड स्थापित करेगा. इसके पहले सन
2014 में एक रूसी रॉकेट से एकसाथ 37 उपग्रहों का प्रक्षेपण हुआ था.
विज्ञान और तकनीक से जुड़े तमाम कार्यक्रमों को हम सफल होते
हुए देखेंगे, पर केवल उनसे ही हम दुनिया के टॉप तीन में शामिल नहीं हो जाएंगे.
सबसे महत्वपूर्ण है वह विज्ञान-दृष्टि से हमें आगे ले जाएगी. पर उसके लिए
अंधविश्वासों के अंधियारे से बाहर निकलना होगा. दूसरी ओर अपनी शिक्षा के स्तर को
वैश्विक स्तर पर ले जाना होगा.
कुछ लोग विज्ञान को तकनीक का समानार्थी मानने की भूल करते
हैं. विज्ञान वस्तुतः प्रकृति को जानने–समझने की पद्धति है. वह हमें नैतिक और
मानवीय बनाता है. नरेंद्र मोदी ने तिरुपति में कहा, ‘जिस उभरते भारत को हम देख रहे हैं उसका रास्ता साइंस की मदद से ही हम पार कर
सकते हैं.’ उन्होंने सच कहा है, पर यह हमें समझना है कि विज्ञान का मतलब क्या है.
सटीक विश्लेषण ।
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. सालिम अली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया article है। .... Thanks for sharing this!! :) :)
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