चुनाव-सर्वेक्षणों की
साख पर फिरता पानी
भारत के चुनाव सर्वेक्षणों का क्या रोना रोएं, इस बार
तो अमेरिका के पोल भी असमंजस में रहे। हिलेरी क्लिंटन की जीत की आशा धरी की धरी रह
गई। फिर भी पश्चिमी देशों के सर्वेक्षणों की साख बनी हुई है। हमारे यहाँ सर्वेक्षण
मनोरंजन के लिए पढ़े जाते हैं, गंभीर विवेचन के लिए नहीं। इन चुनाव-पूर्व
सर्वेक्षणों जैसी हवा सन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में निकली थी, वैसी कभी
नहीं निकली होगी। पर ऐसा ज्यादातर होता रहा है जब तीन सर्वेक्षणों के तेरह तरह के
नतीजे होते हैं और परिणाम फिर भी कुछ और आता है।
अक्सर होता रहा है कि कभी किसी सर्वेक्षण का अनुमान
सही हुआ और कभी दूसरे का। पर कुल मिलाकर ज्यादातर सर्वे गलत साबित होते रहे हैं।
लगता है कि भारतीय मतदाता के दिल और दिमाग का पता लगाने वाली कोई पद्धति अभी तक
विकसित नहीं हुई है। पर उससे बड़ा सच यह है कि बार-बार गलत साबित होने के बाद भी
सर्वे हो रहे हैं और टीवी स्टूडियो में बैठे एंकर इन नतीजों के आधार पर गर्दन उठाकर
ऐसे सवाल करते हैं कि गोया वे किसी ‘ध्रुव सत्य’ की घोषणा कर रहे हैं।
बहरहाल इस साल पाँच राज्यों में चुनावों की घोषणा के
पहले से सर्वे-सेनानियों का बाजार गर्म है। यों भी हमारे देश में हर दूसरा व्यक्ति
क्रिकेट विशेषज्ञ है और हर मतदाता सेफोलॉजिस्ट। बहरहाल तमाम सर्वे मैदान में हैं,
पर उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड के चुनाव को लेकर दो सर्वे ऐसे हैं, जिन्हें
अपेक्षाकृत संजीदगी से देखा जा रहा है। इनमें पहला है एबीपी
न्यूज-लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे। और दूसरा है इंडिया टुडे-एक्सिस सर्वे।
पंजाब को लेकर विपरीत अनुमान
एबीपी न्यूज-लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक पंजाब
में चौंकाने वाले आंकड़े आ सकते हैं। सर्वे के मुताबिक अकाली-बीजेपी गठबंधन को
50-58 सीटें मिलने की संभावना है। पर कांग्रेस उसे कड़ी टक्कर दे रही है। सर्वे की
मानें तो कांग्रेस को 41-49 सीटें मिल सकती हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद आम आदमी
पार्टी के हिस्से महज 12-18 सीटें आ सकती हैं। इस सर्वे के मुताबिक 43 प्रतिशत
लोगों ने ‘आप’ को वोट काटने वाला बताया है।
इसके विपरीत पंजाब में इंडिया टुडे-एक्सिस सर्वे की
कहानी दूसरी है। सर्वे के मुताबिक वहाँ कांग्रेस को 49-55 सीटें मिल सकती हैं, आम
आदमी पार्टी को 42-46 और अकाली-बीजेपी गठबंधन को 17-21। अब इन दोनों सर्वेक्षणों में
से कोई एक तो गलत साबित होना ही है। आप चाहें तो अभी सिर धुनिए या परिणाम आने के
बाद।
यूपी पर भी दो राय
हालांकि यूपी को लेकर दोनों तरह के सर्वेक्षणों में
कुछ मतैक्य है, पर दोनों में से एक के गलत होने का इमकान फिर भी बाकी है।
एबीपी-लोकनीति सर्वे के अनुसार यूपी में सपा 141-151 सीटें पाकर सबसे बड़ी पार्टी
के रूप में उभरेगी। बीजेपी को 129-138 सीटें मिल सकती हैं। बसपा 93-103 के बीच
सीटें पाएगी। इसमें यह भी कहा गया है कि यदि समाजवादी पार्टी टूटी तो बीजेपी को
158-168 सीटें मिल सकती हैं।
दूसरी और इंडिया टुडे-एक्सिस सर्वे के अनुसार यूपी
में बीजेपी को 206-211 सीटें मिलेंगी, जबकि सपा को 92-97 और बसपा को 79-85।
कांग्रेस को केवल 5-9 सीटों पर संतोष करना होगा। यानी यूपी को लेकर भी दोनों
सर्वेक्षण दो अलग ध्रुवों की और जाते नजर आते हैं। एबीपी न्यूज-लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे
के मुताबिक उत्तराखंड में बीजेपी को बहुमत मिलने की संभावना है। बीजेपी को 35-43
सीटें तो कांग्रेस को 22-30 सीटें मिल सकती हैं। यह सच या सच के आसपास हो सकता है,
क्योंकि इतना अनुमान सामान्य नागरिक भी लगा लेता है कि ‘एंटी इनकंबैंसी’ वगैरह को देखते हुए फैसला क्या होगा।
तमाशा दिल्ली में हुआ था
सन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के
पहले कुछ ने बीजेपी के जीतने की संभावना व्यक्त की और कुछ ने आम आदमी पार्टी के
जीतने की। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि जिन्होंने ‘आप’ के जीतने की संभावना व्यक्त की थी, उन्होंने भी ऐसी जीत का अनुमान तो नहीं
लगाया था। दिल्ली में तब तक आम आदमी के साथ योगेन्द्र यादव भी थे। उनका अनुमान भी
सही साबित नहीं हुआ।
शायद यह सब उस बेचैनी को न पढ़ पाने के कारण था, जो
जनता के मन में थी। पर यह खामी दिल्ली जैसे महानगर में हुई, जहाँ का वोटर
अपेक्षाकृत पढ़ा-लिखा है और उसके पास तक जाकर उसकी राय लेना आसान है। आप कल्पना
करें कि जिन गाँवों तक जाना आसान नहीं है वहाँ की राय कैसे दर्ज की जाती होगी। सर्वेक्षक
तीस-चालीस हजार के सैम्पल का दावा करते हैं। ये भी दावे हैं। एक सर्वेक्षक का
फॉर्म भरने और एक गाँव से दूसरे गाँव जाने में जो समय लगता है, उसे जोड़े तो समझ
में यह भी आता है कि ये संस्थाएं जल्दबाजी में अनुमान लगाती हैं। यह बौद्धिक
ईमानदारी नहीं है। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी की इतनी भारी जीत का
अनुमान नहीं था। एक-दो संस्थाओं ने सही अनुमान लगाया भी, पर कहना मुश्किल है कि वह
तीर था या तुक्का।
मीडिया की साख का सवाल
हालांकि जैसे चुनाव लड़ना एक खुली राजनीतिक प्रक्रिया
है उसी तरह अनुमान लगाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा है। पर अक्सर यह काम माहौल
बनाने के लिए भी होता है। किसी प्रत्याशी या पार्टी के पक्ष में पहले से हवा बनाने
की कोशिश की जाती है। हमारे मीडिया पर आरोप लगता है कि वह निष्पक्ष भूमिका निभाने
से बचने लगा है। इस तरह उसकी साख खत्म होती जा रही है।
देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का चलन नब्बे के दशक
से बढ़ा। तबसे ही टीवी पर चुनाव की कवरेज भी बढ़ी है। शुरू में दूरदर्शन ने और बाद
में निजी चैनलों ने यह काम किया। इससे चुनाव के साथ-साथ कुछ और व्यवसाय चल निकले
हैं। इसके भीतर से ही चुनाव को संचालित करने वाली संस्थाएं भी उभर कर सामने आईं
हैं, जिनमें प्रशांत किशोर जैसे विशेषज्ञ शामिल हैं।
चुनाव के पहले वैज्ञानिक तरीके से जनता की राय का पता
करने, मुद्दों का अनुमान लगाने और सीटों का अनुमान लगाने की वैज्ञानिक पद्धतियाँ
भी दुनिया में विकसित हो रही हैं। मतदाता का वोटिंग व्यवहार राजनीति शास्त्र का
विषय है। पर या तो हम अपने समाज को अभी अच्छी तरह पढ़ नहीं पाए हैं या हम केवल
पश्चिमी देशों के पैमानों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। कोई दावा नहीं कर सकता कि हमारे देश में चुनाव पूर्व
सर्वेक्षण तरह विश्वसनीय होते हैं। हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सर्वेक्षण के
लिए सही साँचा ही तैयार नहीं हो पाता है। सर्वेक्षकों की विश्वसनीयता को लेकर
सामान्य वोटर की दिलचस्पी दिखाई नहीं देती। और न उसे पेश करने वाले मीडिया हाउसों
को उसे लेकर फ़िक्र दिखाई पड़ती है।
यह भी कारोबार है
मोटे तौर पर यह एक व्यावसायिक कर्म है जो चैनल या अख़बार को दर्शक और पाठक
मुहैया कराता है। सर्वेक्षक अपनी अध्ययन पद्धति को ठीक से घोषित नहीं करते और किसी
के पास समय नहीं होता कि उनकी टेब्युलेशन शीट्स को जाँचा-बाँचा जाए। चुनाव आयोग
ऐसे सर्वेक्षणों की चुनाव के दौरान अनुमति नहीं देता इसलिए चुनाव के काफ़ी पहले से
ये शुरू हो जाते हैं।
एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर एक साल पहले जनवरी से इस
क़िस्म के सर्वेक्षणों के निष्कर्ष सामने आने लगते हैं। दो या तीन महीने की अवधि
के बाद ये दोबारा आते हैं। इनसे और कुछ हो या न हो राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं
और लोग मनोरंजन के लिए ही सही इनके निष्कर्षों को पढ़ते रहते हैं।
सच यह है कि वोटर प्रायः अपनी राय व्यक्त करता ही नहीं। वह प्रायः वोट देने
में बिचौलियों की मदद लेता है और चुनाव के काफ़ी पहले उसके निर्णय का पता लगा पाना
मुश्किल होता है। एक्ज़िट पोल एक हद तक वोटर के मन को प्रकट कर पाते हैं। पर उनके
परिणाम तभी आते हैं जब चुनाव का आख़िरी दौर पूरा हो जाए। अकसर वे भी गलत साबित
होते हैं। उसके पहले के सर्वेक्षण माहौल ही बनाते हैं। सर्वेक्षणों के संचालक
अक्सर अपने दृष्टिकोण आरोपित करते हैं।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव की
भविष्यवाणियाँ और परिणाम
भविष्यवाणी
|
भाजपा गठबंधन
|
कांग्रेस गठबंधन
|
अन्य
|
न्यूज 24-चाणक्य
|
340
|
70
|
133
|
इंडिया टीवी-सीवोटर
|
289
|
101
|
153
|
एबीपी-एसी नील्सन
|
281
|
97
|
161
|
एनडीटीवी-हंसा
|
275
|
111
|
–
|
सीएनएन-आईबीएन
|
270 – 282
|
92-102
|
–
|
इंडिया टुडे-सिसरो
|
261-283
|
110-120
|
150-162
|
टाइम्स नाउ-ओआरजी मार्ग
|
249
|
148
|
146
|
वास्तविक परिणाम
|
336
|
58
|
149
|
सीटों की भविष्यवाणी एग्जिट पोल के आधार पर। केवल
सीएनएन-आईबीएन ने चुनाव के बाद सर्वे किया
दिल्ली विधानसभा 2015 की
भविष्यवाणियाँ (चुनाव-पूर्व सर्वे)
|
भाजपा
|
आप
|
कांग्रेस
|
एचटी-सीफोर
|
31-36
|
31-36
|
2-7
|
इंडिया टीवी-सीवोटर
|
36
|
31
|
2
|
एबीपी-एसी नील्सन
|
29
|
35
|
6
|
एनडीटीवी
|
29
|
37
|
4
|
आईबीएन7-डेटा माइनेरिया
|
36
|
27
|
7
|
इंडिया टुडे-सिसरो
|
19-25
|
38-46
|
3-7
|
ईटी-टीएनएस
|
28-32
|
36-40
|
0-3
|
जी-टीआरएफ
|
32-36
|
30-34
|
0-4
|
न्यूज नेशन
|
31-35
|
30-34
|
3-5
|
अंतिम परिणाम
|
3
|
67
|
0
|
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