Monday, July 25, 2016

सामाजिक बदलाव का वाहक है खेल का मैदान

अगले महीने ब्राजील के रियो डि जेनेरो में हो रहे ग्रीष्मकालीन ओलिम्पिक खेलों में भारत के 116 खिलाड़ियों की टीम हिस्सा लेने जा रही है. ओलिम्पिक के इतिहास में यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी टीम है. इसके पहले सन 2012 के लंदन ओलिम्पिक में 84 खिलाड़ियों की टीम सबसे बड़ी टीम थी. ओलिम्पिक में शामिल होना बड़ी उपलब्धि मानी जाती है क्योंकि लगभग सभी स्पर्धाओं का क्‍वालिफिकेशन स्तर बहुत ऊँचा होता है. उसे छूना ही बड़ी उपलब्धि है.


खेलों को सामाजिक विकास के आइने से भी देखा जाता है. ओलिम्पिक खेलों के माध्यम से देश अपनी आर्थिक और सामाजिक प्रगति को शोकेस करते हैं. एशिया में केवल जापान, दक्षिण कोरिया और चीन ने ओलिम्पिक खेलों को आयोजित किया है और तीनों ने इस मौके का इस्तेमाल अपनी आर्थिक प्रगति को दुनिया के सामने रखने के लिए किया. ब्राजील भी विकासशील देश है और वह भी अपनी प्रगति को दिखाना चाहता है, गो कि फिलहाल हालात उसके पक्ष में नहीं हैं.
  
खेलों के दो पहलू हैं. उनका आयोजन आर्थिक प्रगति को शोकेस करता है, और खेलों में भागीदारी सामाजिक दशा को बताती है. खासतौर से स्वास्थ्य और अनुशासन को. एक और पहलू राजनीतिक भी है. खेलों की दुर्दशा दिखानी होती है तो हम इशारा राजनीति की ओर करते हैं. कहते हैं कि भाई बड़ी राजनीति है. और राजनीति की दुर्दशा होती है तो उसे खेल कहते हैं

एक राय है कि जो देश खेलों में बढ़-चढ़कर हैं वहाँ की जनता की दिलचस्पी राजनीति में कम है. श्रेष्ठ राजनीति जागरूक समाज की देन है. खेल बेहतर समाज बनाते हैं. अलबत्ता यह केवल संयोग नहीं है कि खेलों में पिछड़े भारत की ज्यादातर खेल संस्थाएं राजनेताओं के हाथों में हैं. देश की सबसे पैसे वाली खेल संस्था बीसीसीआई को लेकर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है, उसका सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है इसे राजनेताओं के शिकंजे से मुक्त करना. खेलों में हम पिछड़े हैं तो उसके पीछे हमारी राजनीतिक संस्थाओं की भी कोई भूमिका है.

आयोजक के रूप में भारत ने एशिया खेलों और कॉमनवैल्थ गेम्स का आयोजन किया है.  सबसे पहले एशियाई खेल भारत में ही हुए थे. पिछले साल खबर थी कि भारत 2024 के ओलिम्पिक खेलों के आयोजन की दावेदारी पेश कर सकता है, पर ऐसा नहीं हुआ. इसके लिए 15 सितम्बर 2015 आखिरी तारीख थी. जाहिर है कि अभी हम इसके लिए तैयार नहीं हैं. ओलिम्पिक खेलों का आयोजन आसान नहीं है.  

हम मानकर चल रहे हैं कि रियो ओलिम्पिक भारत के लिए अब तक के सफलतम खेल होने चाहिए. पर इस सफलता के माने क्या हैं?  अब तक की सबसे बड़ी सफलता हमें सन 2012 के लंदन ओलिम्पिक खेलों में मिली थी, जहाँ से हमारे खिलाड़ी छह मेडल जीतकर लाए थे. दो रजत और चार कांस्य पदक.

आधुनिक ओलिम्पिक खेल 1896 से शुरू हुए हैं. भारत ने पहली बार सन 1900 में इसमें हिस्सा लिया. पर उसमें प्रतियोगी भारतीय मूल के नहीं अंग्रेज थे। हमारी वास्तविक भागीदारी 1920 के एंटवर्प खेलों से मानी जाती है. बहरहाल 1900 के खेलों को भी शामिल कर लें तो हमारी भागीदारी 23 खेलों में रही है, जिनमें भारत ने 26 मेडल जीते हैं. इनमें दो सिल्वर मेडल नॉर्मन प्रिचर्ड के भी हैं, जो उन्होंने सन 1900 के पेरिस खेलों में जीते थे.

औसत निकालें तो हरेक ओलिम्पिक खेल में हमें 1.13 मेडल मिले. छह ओलिम्पिक खेलों में हमने एक भी मेडल नहीं जीता. सन 2000 में करणम मल्लेश्वरी ने भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतकर पहली बार महिला वर्ग में भारत की पहचान बनाई. इसके बाद लंदन ओलिम्पिक में सायना नेहवाल और मैरी कॉम ने दो कांस्य पदक और जीते हैं. हमें इस उपलब्धि पर गर्व है, पर आकार को देखते हमारा प्रदर्शन इससे बेहतर होना चाहिए. हमसे बेहतर अफ्रीकी देश इथोपिया है, जिसने 12 ओलिम्पिक खेलों में 45 पदक जीते हैं, जिनमें 21 स्वर्ण पदक हैं.

इस विफलता का रिश्ता क्या हमारी गरीबी से है? या समाज-व्यवस्था से? या इस इलाके की जलवायु से जो हमारी शारीरिक सीमाएं तय कर देती है? या हमारे जीन्स में कोई बात है? एमआईटी-अर्थशास्त्रियों अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में लिखा है कि यह मामला जेनेटिक्स का नहीं कुपोषण का है. भारत के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के आँकड़े भयावह हैं. पाँच साल से कम उम्र के तकरीबन आधे बच्चे विकास-रुद्ध (स्टंटेड) हैं. इन संख्याओं को और बेहतर ढंग से समझने के लिए देखें कि चीन ने नौ ओलिम्पिक खेलों में हिस्सा लेकर 473 मेडल जीते हैं. प्रति ओलिम्पिक खेल का उसका औसत 55.9 मेडल का है.

मान लिया हम चीन से तुलना नहीं कर सकते. भारत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले 79 देश हैं. जबकि भारत की जनसंख्या इन 79 में से 73 देशों की कुल आबादी की दस गुना है. भारत से आकार में दशमांश तक का ऐसा कोई देश नहीं है, जिसने भारत से कम मेडल जीते हैं. सिर्फ दो देशों को छोड़कर. वे हैं पाकिस्तान और बांग्लादेश. इसकी तोहमत इलाके के पसंदीदा खेल क्रिकेट के माथे पर मढ़ी जा सकती है, पर दुनिया की चौथाई आबादी की सारी खेल प्रतिभा को सोखने वाले क्रिकेट में भी हमने कोई बड़ा कमाल तो किया नहीं है.

खेल व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं. इसमें अनुशासन और नियमबद्धता भरते हैं. विवेकशील, रचनाशील और धैर्यवान बनाते हैं. उनमें सकारात्मकता का संचार करते हैं. मैदान में प्रतिभा की जरूरत होती है. अच्छे खिलाड़ी ही जीतते हैं. शोध से साबित होगा कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाड़ी बेहतर साबित हुए हैं. सन 1928 में भारत की हॉकी टीम ने पहली बार ओलिम्पिक खेलों में स्वर्ण पदक जीता था. उसके कप्तान थे जयपाल सिंह, जिन्होंने झारखंड आंदोलन की नींव डाली. झारखंड आज भी भारतीय हॉकी में अग्रणी है.

पूरे दक्षिण एशिया के पिछड़ेपन के सामाजिक कारण ज़रूर कहीं हैं. इन सामाजिक रोगों का इलाज खेलों के पास है. ओलिम्पिक खेलों में पहली बार कोई भारतीय लड़की जिम्नास्टिक्स की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने जा रही है. दीपा करमाकर त्रिपुरा के सुदूर इलाके से निकल कर आई है. एथलेटिक्स की टीम में सुदूर जनजातीय इलाकों से आई लड़कियाँ हैं, जो आने वाले समय में रोल मॉडल बनेंगी. हमें उनकी ओर ध्यान देना चाहिए. दुर्भाग्य से हम खेलों के समाजशास्त्र की तरफ नहीं उसके मनोरंजन और कारोबार की ओर ध्यान देते हैं. ध्यान दीजिए. खेल सामाजिक बदलाव के वाहक भी हैं. इस ओलिम्पिक में देखिए कि किस खिलाड़ी ने बेहतर प्रदर्शन किया और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है.


प्रभात खबर में प्रकाशित

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