अच्द्दा हुआ कि लद्दाख में चीनी फौजों की वापसी के बाद तनाव का एक दौर खत्म
हुआ, पर यह स्थायी समाधान नहीं है। भारत-चीन सीमा उतनी अच्छी तरह परिभाषित नहीं है, जितना हम मान लेते हैं। दूसरे हम पूछ सकते हैं कि हमारी सेना अपनी ही सीमा के अंदर पीछे क्यों हटी? इस सवाल का जवाब बेहतर हो कि राजनयिक स्तर पर हासिल किया जाए। पिछले हफ्ते कई जगह कहा जा रहा था कि भारत सॉफ्ट स्टेट है। सरकार ने शर्मनाक चुप्पी साधी है। बुज़दिल, कायर,
दब्बू, नपुंसक। खत्म करो
पाकिस्तान के साथ राजनयिक सम्बन्ध। तोड़ लो चीन से रिश्ते। मिट्टी में मिला दी
हमारी इज़्ज़त। इस साल जनवरी में जब दो भारतीय सैनिकों की जम्मू-कश्मीर सीमा पर
गर्दन काटे जाने की खबरें आईं तब लगभग ऐसी प्रतिक्रियाएं थीं। और फिर जब लद्दाख में
चीनी घुसपैठ और सरबजीत सिंह की हत्या की खबरें मिलीं तो इन प्रतिक्रयाओं की तल्खी
और बढ़ गई। टीवी चैनलों के शो में बैठे विशेषज्ञों की सलाह मानें तो हमें युद्ध के
नगाड़े बजा देने चाहिए। सरबजीत का मामला परेशान करने वाला है, पर मीडिया ने उसे जिस किस्म का विस्तार दिया वह अवास्तविक है। हम भावनाओं में
बह गए। सच यह है कि जब सुरक्षा और विदेश नीति पर बात होती है तो हम उसमें शामिल
नहीं होते। उसे बोझिल और उबाऊ मानते हैं। और जब कुछ हो जाता है तो बचकाने तरीके से
बरताव करने लगते हैं। हमने 1965, 1971 और 1999 की
लड़ाइयों में पाकिस्तान के साथ राजनयिक रिश्ते नहीं तोड़े तो आज तोड़ने वाली बात
क्या हो गई? हम बात-बात पर इस्रायली
और अमेरिकी कार्रवाइयों का जिक्र करते हैं। क्या हमारे पास वह ताकत है? और हो भी तो क्या फौरन हमले शुरू कर दें? किस पर हमले
चाहते हैं आप? बेशक हम राष्ट्र हितों की बलि चढ़ते नहीं देख सकते, पर हमें तथ्यों की छान-बीन करने और बात को सही परिप्रेक्ष्य में समझना भी चाहिए।
बहरहाल चीन के प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग 20 मई को भारत आने वाले
हैं। उसके पहले भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद 9 मई को चीन जाएंगे। पर खुर्शीद की यह यात्रा सीमा
विवाद के कारण नहीं है,
बल्कि पहले से निर्धारित है। कम से कम सरकारी स्तर पर दोनों देशों के रिश्तों में तल्खी नहीं है। लद्दाख में चीनी सेना की
पहलकदमी के बाद वहाँ तैनात भारतीय सेना ने चीनी सेना की मौजूदगी के पीछे वाले इलाकों में गश्त बंद कर दी थी, ताकि उसे यह न लगे कि हम उसकी सप्लाई लाइन काटना चाहते हैं। चार फ्लैग मीटिंगों की विफलता के बावजूद सरकार का कहना था कि हम राजनयिक तरीके से इस समस्या का समाधान खोज लेंगे। उधर भारतीय
जनता पार्टी का कहना है कि भारत सरकार चीन के सामने सॉफ्ट है। इसके पहले भी कई बार
चीनी सेना ने घुसपैठ की है,
पर हम कोई कार्रवाई नहीं करते। दौलत बेग ओल्डी लद्दाख और
चीन के जिनशियांग प्रांत के यारकंद के बीच एक पुराने रास्ते पर पड़ता है। यहाँ से
सियाचिन ग्लेशियर और कराकोरम दर्रा एकदम करीब है। कराकोरम दर्रे से होकर चीन ने
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर तक जाने वाली सड़क बनाई है। चीन इस इलाके में ही नहीं
पूरी सीमा पर कई तरह के निर्माण कार्य कर रहा है। पर पिछले कुछ साल में भारत ने भी
इस इलाके में निर्माण कार्य शुरू किए हैं। चीन का कहना है कि भारत ने हाल में चीनी
इलाके में बंकर बनाए हैं। यह गश्ती दल इन बंकरों का मुआयना करने आया है। चीनी टीम
का कहना है कि भारत इन्हें हटाए। इस इलाके में पिछले कुछ साल में भारतीय सेना ने
अपनी उपस्थिति बढ़ाई है और चीनी सेना ने भी गश्त बढ़ाई है।
उत्तर-पूर्वी लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी से दक्षिण के दमचोक
तक 320 किलोमीटर लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा है। जिस तरह पाकिस्तान के साथ
नियंत्रण रेखा परिभाषित है उस तरह चीन के साथ नहीं है। हाल में भारत ने दौलत बेग
ओल्डी में एक पुराने हवाई अड्डे को फिर से सक्रिय किया है। नियंत्रण रेखा से सिर्फ
8 किलोमीटर दूर स्थित यह दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित हवाई पट्टी है। भारत ने यह
हलचल कराकोरम हाइवे पर बढ़ती गतिविधियों के जवाब में की थी। इस बीच भारत ने लेह से
दौलत बेग ओल्डी तक 80 किलोमीटर लम्बी सड़क तैयार की है। वस्तुतः भारत भी सीमा पर
सक्रिय हो रहा है। ये गतिविधियाँ चीनी गतिविधियों के बरक्स ही हैं।
सन 1987 में अरुणाचल की सुमद्रोंग चू घाटी में चीनी सेना ने
इसी प्रकार के निर्माण कार्य शुरू किए थे। उस वक्त भारत ने बेहद आक्रामक रुख
अपनाया था। भारतीय सेना की तीन डिवीजनें उस इलाके में तैनात कर दी गईं थीं। इस
संकट के बाद सन 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन की यात्रा की। पिछले 34
साल में चीन की यात्रा पर जाने वाले वे पहले प्रधानमंत्री थे। उस यात्रा ने
ऐतिहासिक काम किया। दोनों देश सीमा विवाद सुझलाने के लिए संयुक्त कार्यकारी दल
बनाने पर सहमत हुए। इसके बाद द्विपक्षीय बातचीत का लम्बा सिलसिला चला। कहने का
मतलब यह कि दोनों देशों ने टकराव के बीच से ही समाधान के रास्ते बनाए हैं। यह काम
डिप्लोमेसी का है। डिप्लोमेसी की गति धीमी होती है। इसमें हाथों-हाथ परिणाम नहीं
मिलते।
अब वर्तमान संकट को देखें। चीन की कार्रवाई क्या नई आक्रामक
नीति की परिचायक है?
इधर चीन के साथ जापान, वियतनाम और
फिलीपाइंस के सीमा विवादों में तल्खी आई है। पर भारत के प्रति चीन का रवैया शांति
और मैत्री का रहा है। वहाँ दो महीने पहले ही नए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने पद
सम्हाला है। नए नेतृत्व ने खासतौर से भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की पहल
की है। मार्च के महीने में ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में भाग लेने दक्षिण अफ्रीका
आए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मुलाकात की
और कहा कि भारत और चीन के बीच सहयोग सदी के सबसे बड़े द्विपक्षीय रिश्ते साबित
होंगे। इसके बाद चीन ने घोषणा की कि उसके प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग अपनी पहली
विदेश यात्रा में भारत जाएंगे। हालांकि इस बार हमारे प्रधानमंत्री को वहाँ जाना था, जो अब जून में जाएंगे। तब ऐसी गफलत क्यों है? क्या चीन को हमारा सीमा पर निर्माण करना पसंद नहीं आ रहा है? क्या वह हमें धमकी दे रहा है? या वह हमारी चिंताओं को
समझ नहीं पा रहा है?
या उसे हम अपनी बात नहीं समझा पा रहे हैं?
व्यावहारिक राजनय में कुछ भी सम्भव है। पर इस वक्त चीन को
हमसे बिगाड़ करके कुछ नहीं मिलेगा, उल्टे नुकसान
होगा। वह जापान से उलझा हुआ है। अमेरिका उसके इर्द-गिर्द घेराबंदी कर रहा है। चीन
नहीं चाहता कि भारत अमेरिकी रणनीति का हिस्सा बने। ऐसा तभी सम्भव है जब वह भारत के
हितों को समझेगा। हमें याद रखना चाहिए कि सन 1999 में करगिल संघर्ष के दौरान चीन
ने तटस्थता बरती थी। पाकिस्तान उसका सबसे अच्छा मित्र है। पर यह मित्रता केवल भारत
का दुश्मन होने के कारण नहीं है। चीन को आने वाले वर्षों में अपनी ऊर्जा जरूरतों
को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी रास्ते की जरूरत है। कराकोरम हाइवे से होते हुए
ग्वादर बंदरगाह तक जाने वाली सड़क भविष्य में चीन का महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग
बनेगी।
युद्ध दोनों के हित में नहीं है। फिर भी इस बात से इनकार
नहीं किया जा सकता कि चीन के सामरिक हित भी हैं। वह हिन्द महासागर में तक अपनी
नौसेना की पहुँच चाहता है। उसे अपने आर्थिक विकास के लिए और माल की आवा-जाही के
लिए सुरक्षित रास्ते चाहिए। इसके लिए उसने श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह विकसित
किया है। पकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह भी प्रकारांतर से चीनी हितों के लिए है। इसे
हम भारत को घेरने की नीति मान सकते हैं। इसके विपरीत भारत ने भी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’
के तहत हिन्द महासागर से लेकर मलक्का की खाड़ी तक अपनी
तैयारी बढ़ाई है। हम दक्षिण चीन सागर तक अपनी नौसेना की पहुँच तैयार कर रहे हैं।
अगले कुछ साल के भीतर हमारे पास कम से कम तीन विमान वाहक पोतों और तीन-चार या इससे
भी ज्यादा परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियों से लैस ‘ब्लू वॉटर नेवी’
होगी। हम भी ग्वादर के ठीक बराबर ईरान में चहबहार बंदरगाह
के विकास में हाथ बँटा रहे हैं। हमने भी ताजिकिस्तान में हवाई अड्डा तैयार किया
है। संयोग से वह भी चीन की सीमा को छूता है। हमने जापान, वियतनाम,
फिलीपाइंस और मलेशिया के साथ रिश्ते बेहतर किए हैं। क्या यह
चीन को घेरने के लिए किया है?
सलमान खुर्शीद की यात्रा और चीनी प्रधानमंत्री की यात्रा का
एजेंडा व्यापारिक है,
लद्दाख का विवाद नहीं। भारत-चीन व्यापार में असंतुलन है।
भारत चाहता है कि यह असंतुलन दूर हो। भारतीय माल और सेवाएं भी चीन जाएं। इधर
पाकिस्तान में चुनाव के बाद नागरिक सरकार आएगी तो हमें पाकिस्तान के साथ व्यापार
के रिश्तों को बेहतर बनाना है। चीन ने ही भारत-पाकिस्तान रिश्तों के बीच इस बात को
रेखांकित किया है कि सीमा विवाद को व्यापारिक रिश्तों को बेहतर बनाने के रास्ते
में बाधक नहीं बनना चाहिए। दोनों देश आने वाले समय में दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण
आर्थिक शक्तियों के रूप में विकसित होने जा रहे हैं। दोनों के बीच सहयोग के अलावा
प्रतियोगिता भी है,
पर चीन अभी भारत से बैर पैदा करना नहीं चाहता। हाँ इतना
चाहता है कि भारत पूरी तरह अमेरिका के खेमे में जाने से बचे।
बिलकुल सही विश्लेशात्मक आलेख....
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