सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकार के पिंजड़े में कैद तोता ही
नहीं बताया, उसकी आज़ादी का रास्ता भी साफ कर दिया है। रेलमंत्री पवन कुमार बंसल और
कानून मंत्री अश्विनी कुमार को हटा दिया गया है।
मंत्रियों का रहना या हटना मूल समस्या
नहीं है। समस्या का लक्षण है। इन दोनों मंत्रियों के साथ दो अलग-अलग किस्म के मामले
जुड़े हैं। पर एक साम्य है। वह है सीबीआई की भूमिका।
पिछले हफ्ते सीबीआई को लेकर एक
महत्वपूर्ण पहल सुप्रीम कोर्ट ने की है। उसने सरकार को प्रकारांतर से निर्देश दिया
कि जाँच एजेंसी को बाहरी हस्तक्षेप से बचाने के लिए कानून बनाया जाए।
यह काम इस मामले
पर अगली सुनवाई यानी 10 जुलाई के पहले-पहले कर लिया जाना चाहिए और इसके लिए संसद की
स्वीकृति का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यानी अध्यादेश जारी करके यह काम किया जा सकता
है।
अदालत की मौखिक टिप्पणियों के मुकाबले गुरुवार को जारी लिखित
आदेश और भी साफ हैं। जैन हवाला मामले से जुड़े सन 1997 के विनीत नारायण केस के सिलसिले
में सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह बात साफ कर दी गई थी कि सीबीआई को किसी भी बाहरी
हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए। यानी सीबीआई की रपट को देखने का अधिकार उस मंत्री को भी
नहीं है, जिसके अधीन सीबीआई है। चूंकि सीबीआई सीधे प्रधानमंत्री के अधीन है, इसलिए
उन्हें भी यह अधिकार नहीं है। कानून मंत्री को तो है ही नहीं।
अदालत यह भी मानती है
कि रपट में जो बदलाव किए गए हैं, वे महत्वपूर्ण है। सीबीआई के निदेशक के अनुसार बदलाव
महत्वपूर्ण नहीं हैं। बहरहाल गेंद अब सरकार के पाले में आ गई है। उसे दो काम करने हैं।
पहला कानून मंत्री की पहलकदमी से पैदा हुई गड़बड़ियों को दुरुस्त करना और दूसरे सीबीआई
की स्वतंत्रता को साफ-साफ परिभाषित करना।
मंत्रियों के पद पर रहने या न रहने के राजनीतिक फलितार्थ हैं।
पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है सीबीआई की संस्थागत भूमिका। अदालत की मौखिक टिप्पणियों
के मुकाबले इसमें लिखित आदेश का प्रभाव ज्यादा पड़ेगा। रेलमंत्री का मामला सीधे-सीधे
अपराध से जुड़ा है और कानून मंत्री का अपराध को छिपाने की कोशिश थी। रेलमंत्री गम्भीर
आरोपों के दायरे में आ गए थे। अलबत्ता दोनों मामले सीबीआई की भूमिका को रेखांकित करते
हैं।
एक ओर सीबीआई ने अदालत में हलफनामा दायर करके स्थिति को स्पष्ट करने की राह साफ
कर दी है, दूसरी ओर उसने रेलवे में चल रही एक प्रवृत्ति पर रोशनी डाली है। इस प्रवृत्ति
से परिचित काफी लोग हैं, पर उसे रोकने की हिम्मत करने वाला कोई नहीं है। सीबीआई के
निदेशक रंजीत सिन्हा ने एक बात कही है, जो महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि मुझसे पहले
भी कई निदेशक कहते रहे कि सीबीआई स्वतंत्र नहीं है। पर मुझे यह बात हलफनामा देकर कहनी
पड़ी।
सीबीआई हमारी आँख है। वह खुली रहनी चाहिए। एक लिहाज से सीबीआई
डायरेक्टर बड़े बदलाव के सूत्रधार बन गए हैं। सीबीआई की स्वायत्तता औपचारिक रूप से
संस्थागत उपचार का हिस्सा बन गई है। अब इसे तार्किक परिणति तक पहुँचना होगा। अदालत
ने डायरेक्टर की जिम्मेदारी तय नहीं की है कि उन्होंने मंत्री का आदेश क्यों माना या
रपट में बदलाव क्यों किया। पर समय के साथ यह सवाल भी उठेगा।
अदालत ने उन दो संयुक्त
सचिवों की भूमिका को गलत बताया है, जिन्हें यह रपट दिखाई गई थी। इस मामले में सीबीआई
निदेशक ने असावधानी बरती। सरकार का दृष्टिकोण अभी तक यह था कि सीबीआई के डायरेक्टर
का मंत्री से मुलाकात करना सामान्य बात है। आखिरकार वह भी सरकार का हिस्सा है। पर सवाल
है उसे क्या काम मंत्री की सलाह से करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि विनीत नारायण मामले के बाद यह बात
साफ हो जानी चाहिए थी कि सीबीआई के काम में किसी को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। और
अब सरकार को इस बारे में कानूनी व्यवस्था करनी होगी। यों भी अदालत का यह साफ निर्देश
था कि रपट सीधे अदालत को दी जाएगी, सरकार से शेयर नहीं
की जाएगी।
दूसरा यह कि इस रपट में सरकार की जाँच भी थी। रपट में कोयला ब्लॉकों के आबंटन
में खामियों की ओर इशारा किया गया है। सरकारी वकील अदालत में इसे गलत बता रहा है। ऐसे
में अदालत में पेश किए बगैर इस रपट को, भले ही वह प्रारूप
था, दिखाने की ज़रूरत क्या थी?
इस मामले का राजनीतिक पहलू भी अब साफ होता जा रहा है। पिछले
साल मॉनसून सत्र से उत्तेजित भाजपा का कहना है कि कोल ब्लॉक आबंटन के साथ प्रधानमंत्री
सीधे जुड़े हैं, क्योंकि कोयला मंत्रालय उनके अधीन था। अब वे दो तरफ से घिर गए हैं।
सीबीआई भी उनके अधीन है।
सीबीआई की प्राथमिक जाँच रिपोर्ट-2 सन 2006 से 2009 के बीच
हुए कोल ब्लॉक आबंटनों से सम्बद्ध है। इस दौरान कोयला विभाग मनमोहन सिंह के अधीन था।
इस रपट के अनुसार सीबीआई ने कोयला विभाग के अनाम अधिकारियों के खिलाफ 11 एफआईआर दर्ज
कराईं हैं। अभी सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट को लेकर ही विवाद चल रहा है। अब जैसे ही वस्तुस्थिति
की ओर बढ़ेंगे कुछ सनसनीखेज बातें सामने आएंगी।
पवन बंसल के जाने के बाद भी रेलवे बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति
का मामला सिर उठाएगा। सदस्यों की नियुक्ति रेलमंत्री नहीं करते बल्कि बोर्ड की ओर से,
जिसमें रेलमंत्री भी शामिल हैं, चार या पाँच व्यक्तियों की सूची कैबिनेट की नियुक्ति
समिति के पास भेजती है। इसके बाद प्रधानमंत्री की अंतिम स्वीकृति के लिए नाम भेजा जाता
है।
इस प्रकार नियुक्ति की व्यापक व्यवस्था है। इसमें दोष है तो काफी बड़े तबके की
भागीदारी इसमें है। कोई पैसा देकर कैसे अपनी नियुक्ति करा सकता है? फिर एक नियुक्ति के लिए दस करोड़ तक की पेशकश कौन कर सकता है? क्यों कर सकता है?
केवल रेलवे में ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में सरकार और निजी
क्षेत्र का सम्पर्क बढ़ रहा है। ऐसे में पारदर्शिता की ज़रूरत है। इसलिए हमारे लोकतंत्र
की संस्थागत व्यवस्था पर व्यापक विमर्श की ज़रूरत है। दो साल पहले लोकपाल कानून को
लेकर शुरू हुई बहस राजनीतिक शोर में दब गई थी। उसे ज़ारी रखना ज़रूरी था। पर अब जो
कुछ हो रहा है, वह जनता के दबाव में है। यह खामोश क्रांति है।
हरिभूमि प्रकाशित
हिन्दू में केशव का कार्टून |
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