सरबजीत के मामले में भारत सरकार, मीडिया और जनता के जबर्दस्त
अंतर्विरोध देखने को मिले हैं। सरबजीत अगस्त 1990 में गिरफ्तार हुआ था और अक्टूबर
1991 में उसे मौत की सजा दी गई थी। इसके बाद यह मामला अदालती प्रक्रियाओं में उलझा
रहा और 2006 में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी सजा को बहाल रखा। इस दौरान भारतीय
मीडिया ने उसकी सुध नहीं ली। सरबजीत की बहन और गाँव वालों की पहल पर कुछ स्थानीय अखबारों
में उसकी खबरें छपती थीं। इसी पहल के सहारे भारतीय संसद में यह मामला पहुँचा और सितम्बर
2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना सम्मेलन के
मौके पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ के सामने इस मसले को रखा।
यह सब ठीक था, पर जब उसपर मुकदमा चलाया जा रहा था, उसका मददगार
कोई नहीं था। उसे उचित कानूनी सलाह भी नहीं मिली। भारत सरकार ने उस वक्त तो उसके बारे
में कुछ सोचा भी नहीं। और मीडिया के लिए वह कोई मसला नहीं था। और आज सरबजीत को शहीद
का दर्जा दिया जा रहा है। उसका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। पंजाब
सरकार उसकी बेटियों को नौकरी देगी वगैरह। एक तरफ हमने अपनी बेरुखी और ठंडेपन को देखा
वहीं आज अतिशय उत्साह और आवेश दिखाई पड़ता है। व्यावहारिक सच इन दोनों के बीच होना
चाहिए। सरबजीत की हत्या से पूरा देश सदमे में है। हमारे मन में गुस्सा भी है और ग्लानि
भी। कोशिश करने पर शायद उसे बचाया जा सकता था। सवाल है अब क्या करें?
इस खबर के बरक्स एक दूसरी खबर देखें। जम्मू के कोट भलवाल जेल
में शुक्रवार सुबह मामूली कहासुनी के बाद एक भारतीय कैदी ने पाकिस्तानी कैदी सनाउल्लाह
पर घास काटने के औजार से हमला कर उसे गम्भीर रूप से घायल कर दिया। पाकिस्तानी कैदी
कोमा में है, लगभग उसी तरह जैसे सरबजीत था। इस हमले के बाद फेसबुक पर एक भारतीय पाठक
की टिप्पणी थी, जय हो फौजी विनोद की। जो हमारे गूंगे नेता नहीं कर पाए वो इसने पाकिस्तानी
हुकूमत को कर के दिखा दिया। इस घटना के बाद भारतीय जेलों में पाकिस्तानी कैदियों की
हिफाज़त के इतज़ाम किए जा रहे हैं। न्याय और अन्याय क्या होता है? जो सरबजीत के साथ अनुचित था वह सनाउल्लाह के साथ उचित क्यों है? सीमा के दोनों ओर विवेक पर आवेश हावी हैं। पर आवेश हमें कहीं नहीं ले जाते।
समझदारी, संयम और विवेक ही हमारा साथ देते हैं।
सरबजीत मामले के बाद कुछ लोगों का कहना है कि हमें पाकिस्तान
के साथ राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेने चाहिए। यह सलाह विपक्ष के बड़े नेताओं ने भी दी है।
हाल के वर्षों तक देश में विदेश नीति राजनीति का विषय नहीं बनती थी। सन 1962 के युद्ध
में अपमानजनक पराजय देखने के बाद भी जवाहर लाल नेहरू उस कड़ी आलोचना के विषय नहीं बने
जो हाल में लद्दाख में चीनी घुसपैठ और सरबजीत के मामले में देखने-सुनने को मिल रही
है। सन 1993 की बात याद आती है जब मानवाधिकार आयोग में एक भारत विरोधी प्रस्ताव लाया
गया था। उस प्रस्ताव पर चर्चा के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए
प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा था। क्या आज हम राष्ट्रीय
हित के सवाल पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच एकता देख पा रहे हैं? बहरहाल पाकिस्तान के साथ राजनयिक सम्बन्ध हमने 1965, 1971और
1998 की करगिल लड़ाई में भी नहीं तोड़े थे। आज क्या उससे भी बड़ी तबाही पैदा हो गई
है? राजनयिक सम्बन्ध तोड़ने से भी होगा क्या?
इन दिनों उन लोगों को हँसी का पात्र बनाया जा रहा है जो पाकिस्तान
के साथ रिश्ते सुधारने की सलाह देते रहे हैं। उनसे कहा जा रहा है देख लिया रिश्ते सुधार
कर। वास्तव में यह अपमानजनक है, पर यह जीत किसकी है? उनकी
जो दोनों देशों के बीच सद्भाव के विरोधी रहे हैं। पाकिस्तानी जेल में जिन लोगों ने
सरबजीत पर हमला किया, वे या तो आवेश से पागल थे या किसी साजिश के तहत उन्हें भेजा गया
था। सिर्फ एक हत्या से वह काम हो जाए जिसके लिए मुम्बई पर हमला करना पड़ा था तो वह
सस्ता और मुफीद है। हम समझते हैं कि पूरा का पूरा पाकिस्तान एक सा कट्टरपंथी है। ऐसा
है तो इस चुनाव में कट्टरपंथियों को ही जीतना चाहिए। क्या वे जीतेंगे? और पाकिस्तानी समझते हैं कि पूरा का पूरा भारत कट्टरपंथी है। क्या उन्हें
ऐसा ही समझना चाहिए?
भारत और पाकिस्तान के बीच जैसे ही रिश्ते सामान्य होने लगते
हैं कोई न कोई घटना होती है। मान लिया ऐसा पाकिस्तान से ही होता है, पर क्या उसे सफल
होना चाहिए? पिछले कुछ साल से देश का शिखर नेतृत्व घोटालों
और राजनीतिक बवंडरों से उलझ रहा है। विदेश नीति और राष्ट्रीय हितों का अनदेखी हो रही
है। पर यह भी सच है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश-नीति हमारे मीडिया के एजेंडा में
नहीं रही। उसपर तभी बात होती है जब पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता है। भारत के लिए अगले
दो-तीन साल बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। हमारी आर्थिक विकास दर ऐसे स्तर पर
आ गई थी जहाँ से हम बड़े सामाजिक कार्यक्रम शुरू कर सकते थे। हमारी सेनाओं के आधुनिकीकरण
की प्रक्रिया चल रही है जो 2015 से 2020 के बीच पूरी होगी। हम एक महत्वपूर्ण शक्ति
के रूप में विकसित हो रहे हैं। इस विकास के बरक्स हमें राजनीतिक शक्ति भी चाहिए। अपनी
ताकत को दिखाने के लिए चीख-पुकार की ज़रूरत नहीं। संयमित, अनुशासित और संतुलित होने
की ज़रूरत है। कई बार ताकतवर नेता लीड करते हैं और जनता ताकतवर होती है तो मामूली आदमी
को ताकतवर बना देती है। आत्मविश्वास कायम रखें। हम आने वाले समय की बड़ी ताकत साबित
होंगे। ताकतवर होंगे तो हमारा इशारा काफी होगा, छाती पीटकर विलाप करने की ज़रूरत नहीं
होगी।
हरिभूमि में प्रकाशित
मंजुल का कार्टून |
हिन्दू में केशव का कार्टून |
//जो सरबजीत के साथ अनुचित था वह सनाउल्लाह के साथ उचित क्यों है? सीमा के दोनों ओर विवेक पर आवेश हावी हैं। पर आवेश हमें कहीं नहीं ले जाते। समझदारी, संयम और विवेक ही हमारा साथ देते हैं।//...
ReplyDeletebilkul sahi sir...............
विशेष लोगों की महत्वाकांक्षा में आम लोगों की बलि होती ही आई है, हो रही है. बड़े लोग आपस में अच्छे से मिलते हैं. उमर कम है. मुहब्बत में बीते तो सार्थक है. न्याय दुनिया में जिसे नसीब हो जाये, वह नसीब वाला है.
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