कर्नाटक ने कांग्रेस की मुश्किल घड़ी में बड़ी मदद की है। उसके
डूबते जहाज को सहारा दिया है, बल्कि गहरी मूर्च्छा में पड़ी पार्टी को संजीवनी दी है।
पर यह सब इतना ही है, इससे आगे नहीं। कांग्रेस कह रही है कि अब तो ट्रेंड सेट हो गया
है, जो 2014 के चुनाव तक चलेगा। यह भी कहा जा रहा है कि यह कांग्रेस की नीतियों की
जीत है।
मनमोहन सिंह ने यह जीत राहुल गांधी को समर्पित की है और दिग्विजय सिंह ने हार
का ठीकरा नरेन्द्र मोदी के सिर पर फोड़ा है। कांग्रेस नेता नारायणसामी के अनुसार नरेन्द्र
मोदी डूब गए। क्या कर्नाटक के मतदाता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट दिया है? बेशक उसने भाजपा के खिलाफ वोट दिया है, पर यह भाजपा के भ्रष्टाचार
के खिलाफ है या प्रदेश के विफल प्रशासन के खिलाफ? या भाजपा के
वोटों के बँटवारे के कारण?
सम्भव है सारे कारणों का कुछ न कुछ
योगदान हो, पर यह वोट काग्रेस के पक्ष में सकारात्मक न होकर भाजपा के खिलाफ नकारात्मक
वोट है। कांग्रेस ने इसका ज्यादा फायदा उठाया, क्योंकि उसने खुद को विकल्प के रूप में
पेश किया। जेडीएस को उसने विकल्प नहीं बनाया, क्योंकि जेडीएस का जनाधार छोटा है और
2008 के चुनाव में वोटर ने जेडीएस की धोखाधड़ी के खिलाफ ही भीजेपी को जिताया था।
कर्नाटक सरकार की छवि खराब थी वह हार गई। वहाँ दिल्ली की सरकार
की छवि को लेकर चुनाव नहीं हो रहा था। लेकिन 2014 में या सम्भव है उसके पहले ही विधानसभा चुनाव केन्द्र सरकार की छवि को लेकर होने वाले हैं। तब कर्नाटक सरकार की छवि काम नहीं
करेगी। पिछले चार साल में यूपीए सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि
को गहरा धक्का लगा है।
सीडब्ल्यूजी, टूजी से ज्यादा कोल ब्लॉक आबंटन के मामले में सरकार
की भूमिका जनता के सामने बुरी तरह उजागर हुई है। इस वक्त भी लोग अभी अश्विनी कुमार
को लेकर नाराज़ हैं। धीरे-धीरे यह बात उजागर होती जा रही है कि कोल ब्लॉक आबंटन की
छाया सीधे प्रधानमंत्री पर पड़ रही है। कानून मंत्री की कोशिश इस कलंक को रोकने की थी। संयोग से अश्विनी कुमार और पवन बंसल दोनों मनमोहन सिंह के भरोसे के मंत्री थे।
और दोनों को बचाने की कोशिशों ने प्रकारांतर से प्रधानमंत्री को नुकसान पहुँचाया।
पर सवाल है कि क्या छवि से चुनाव परिणामों पर असर पड़ता है? क्या मीडिया की बनाई छवि वोटर को प्रभावित करती है? और यह भी कि छवि की बात ही थी तो कर्नाटक पर कांग्रेस की छवि का असर क्यों नहीं पड़ा? वस्तुतः कर्नाटक सरकार छवि के चक्कर में ही गई। 30 मई 2008 को बीएस येदियुरप्पा
मुख्यमंत्री बने। इसके तकरीबन एक साल बाद 25 जून 2009 को हंसराज भारद्वाज कर्नाटक के
राज्यपाल बनाए गए।
भारद्वाज कांग्रेस के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे
हैं। कानून मंत्री के रूप में उन्हें क्वात्रोक्की मामले में ढील देने के लिए याद किया
जाता है। प्रदेश के नए राज्यपाल के आने के बाद येदियुरप्पा सरकार के संकट बढ़े। उन्हें
दो बार अपना बहुमत साबित करना पड़ा। विधायकों के अनुशासन को लेकर अदालत जाना पड़ा और
देश में पहली बार किसी राज्यपाल ने किसी की निजी शिकायत पर मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा
चलाने की इजाजत दी। इन बातों के कानूनी अर्थ जो भी हों, इनसे एक ओर जनता के बीच छवि
बनाने या बिगाड़ने का काम होता है और दूसरे पार्टी के भीतर मतभेद पैदा होते हैं।
येदियुरप्पा
एक ओर अपनी पार्टी के भीतर विवादों से घिरे रहे और दूसरी ओर उनके विधायक दल में लगातार
अस्थिरता रही। भाजपा पूर्ण बहुमत से नहीं आई थी। उसने बहुमत की व्यवस्था की थी। इस
व्यवस्था के अंतर्विरोधों का उसे सामना करना पड़ा। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि
पार्टी और सरकार की छवि लगातार बिगड़ती रही। कर्नाटक में कांग्रेस ने तकरीबन वही रणनीति
अपनाई जो भाजपा केन्द्र में अपना रही है। सरकार को लगातार विवादों में घेरे में रही।
कर्नाटक
में कांग्रेस की जीत के बावज़ूद यह नहीं मान लेना चाहिए कि दिल्ली सरकार की छवि बेहतर
हो गई है। जैसे-जैसे चुनाव का समय नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे सरकार की छवि खराब
हो रही है।
कर्नाटक के परिणाम आने के बाद से कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं
की लगभग एक जैसी प्रतिक्रिया है। उसमें तीन कही जा रही हैं। एक यह की भाजपा की हिमाचल
और उत्तराखंड के बाद यह तीसरी पराजय है, दूसरे मोदी फेल हो गए और तीसरी यह कि यह कांग्रेस
की विजय के नए ट्रेंड की शुरूआत है।
तीनों बातें अपनी जगह पर सही हैं, पर कांग्रेस
ने गोवा और पंजाब में पराजय का जिक्र नहीं किया। पंजाब में कर्नाटक की तरह अकाली दल
के भीतर से टूट हुई थी। पर अकाली दल ने उसे सम्हाल लिया। कर्नाटक में भाजपा यह काम
नहीं कर पाई।
नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी की सभाओं की अपने-अपने तरीके से
तुलना की गई है। एक तुलना कांग्रेसी तरीके से है। इसमें कहा गया है कि मोदी ने कर्नाटक
में तीन रैलियां की। 28 अप्रैल को बेंगलुरू में, 2 मई को मैंगलोर और बेलगाम
में। बेंगलुरू की 36 में से 18 कांग्रेस के खाते में गई, बीजेपी को 10। मैंगलोर इलाके की 7 में से 6 सीटें कांग्रेस के हिस्से गईं। बेलगाम की तीन में से सिर्फ एक ही सीट बीजेपी के
हाथ लगी।
इसके विपरीत मोदी समर्थक विश्लेषण है कि मोदी ने कुल तीन सभाएं कीं। एक बेगलुरु
शहर में, एक दक्षिण कन्नडा में और एक बेलागवी में। केवल इन तीनों स्थानों में बीजेपी
ने कुल 21 सीटें जीतीं जो बीजेपी को प्राप्त कुल 40 सीटों की आधी से ज्यादा हैं। इसके
विपरीत राहुल ने नौ जिलों में सभाएं कीं। ये हैं कोलार, मांड्या,
हासन, रायचूर, बेल्लारी,
बीजापुर, हवेरी, शिमोगा और तुमकुर। इन जिलों में कुल 121 में से 43 सीटें कांग्रेस को मिलीं।
उनकी
सभाओं में तुमकुर भी शामिल था जहाँ से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष परमेश्वरन चुनाव हार
गए। यह आँकड़ों का हेर-फेर है। मोदी ने जानबूझकर कर्नाटक में सभाएं नहीं कीं, क्योंकि
उन्हें पराजय साफ नज़र आ रही थी। मोदी का महत्व है या नहीं पर कांग्रेस की दिलचस्पी
मोदी को टार्गेट करने में है।
इसमें दो राय नहीं कि कर्नाटक में बीजेपी की हालत राज्य में
पतली थी। और ये नतीजे दीवार पर लिखे हुए थे। पर जब दिल्ली की बात आएगी तो क्या कर्नाटक
का यही वोटर लोकसभा के लिए इसी तरह वोट देगा? बीजेपी से
निकले हुए नेता वापिस आते रहे हैं। कल्याण सिंह लौटे और उमा भारती लौटीं। येदियुरप्पा
भी लौट सकते हैं। ऐसा हुआ तो क्या स्थिति बदल जाएगी?
वस्तुतः
हमारे चुनावों में जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों का इतना असर होता है कि उनके आधार पर
सैद्धांतिक निष्कर्ष निकालना उचित नहीं। कहना मुश्किल है कि लोकसभा चुनाव में कोई तीसरा
मोर्चा होगा या नहीं। होगा भी तो जेडीएस ही उसमें शामिल होगी। शायद तब ध्रुवीकरण अब
से कुछ फर्क होगा।
कांग्रेस को कर्नाटक की विजय के सुख से वंचित करना अनुचित होगा,
पर इतना ध्यान रखना चाहिए कि यह विजय मेहनत की कमाई नहीं है, धुप्पल में मिली है। इसके
सहारे उसे किसी गलत-फहमी में नहीं जीना चाहिए। इस बीच कांग्रेस खाद्य सुरक्षा बिल को
पास कराने की कोशिश करेगी, पर क्या वह कोशिश सफल हो पाएगी? क्या उस बिल को भाजपा तथा अन्य दलों के समर्थन के बगैर पास कराया
जा सकेगा? और यह भी कि क्या संसद का मॉनसून सत्र होगा?
और हुआ भी तो वह आखिरी सत्र तो नहीं होगा? क्या कांग्रेस
पार्टी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और सम्भवतः
झारखंड विधान सभाओं के चुनावों का सामना करने को तैयार है? ट्रेंड
सेट हुआ है तो इन चुनावों को भी जीतना चाहिए। और अगर हार मिली तो? तब क्या कोई नया ट्रेंड सेट होगा? पर उससे बड़ा सवाल
है, कांग्रेस हारी तो क्या भाजपा जीत जाएगी?
.
कांग्रेस ने हाथी साइज़ का करप्शनी यदुरप्पा पाल तो लिया है अपने लिए
ReplyDelete