मुशर्रफ की गिरफ्तारी के साथ-साथ पाकिस्तान की संसद ने भी एकमत से प्रस्ताव पास करके माँग की है कि उनपर देश की व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ का मुकदमा चलाया जाए। इसपर दैनिक डॉन ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मुशर्रफ की भूमिका के बारे में दो राय नहीं पर 1999 में तख्ता पलटने वाले मुशर्रफ अके ले नहीं थे। डॉन के अनुसारः-
RETIRED General Pervez Musharraf has once again united a polarised polity and society. On Friday, as he and his legal eagles were running from court house to the police headquarters, the rest of the country came together to criticise him in the media and on the streets; in the Senate, politicians once again called for his trial under Article 6, merely underscoring the legal woes of the former dictator. In this context, it’s hard to not join this “sound and fury” calling for a trial of ‘public enemy number one’ but to do so would not be just. Indeed, no one can deny the role played by Gen Musharraf in the coup of 1999 and then in November 2007 when he imposed an emergency, deposed the judiciary, tried to censor the media and threw many people behind bars. But was he acting alone both times? In all honesty, he was not.
If the 1999 coup was bloodless it was because it enjoyed more widespread support than Pakistan would today like to admit to. And this is exactly why the emergency was rolled back in 2007 because it was unacceptable to the public at large. More than that, a trial of Gen Musharraf alone would simply throw a cover over his accomplices — the generals who helped him, the judiciary that validated the coup, the politicians who joined him and many others. To hold him guilty alone would simply perpetuate this myth that a military coup and the subversion of democracy is the ‘sin’ of an individual instead of a collective act.
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ज़ुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज़ शरीफ अपने-अपने दौर में पाकिस्तान के बेहद लोकप्रिय नेता थे। पर दोनों का पराभव जब हुआ तब किसी ने आँसू नहीं बहाया। हाल में पाकिस्तान के एक जनमत का निहितार्थ था कि वहाँ का युवा वर्ग लोकतंत्र की जगह धार्मिक व्यवस्था को बेहतर मानता है। एक तरफ वहाँ लोकतंत्र को प्रवेश ही करने नहीं दिया गया। दूसरी ओर उसके नकारात्मक पक्ष का इतना प्रचार हुआ कि जनता के मन में लोकतंत्र के प्रति वितृष्णा है। पिछले 66 साल में वहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों को जिस तरह परिभाषित किया जाता रहा है वह हमारे लिए अटपटा है। इसीलिए परवेज़ मुशर्ऱफ की गिरफ्तारी का अर्थ समझने में हमें दिक्कत होती है।
मुशर्रफ पाकिस्तान के उन शासनाध्यक्षों में से एक हैं, जिन्होंने
राज-व्यवस्था को मनमाने ढंग से चलाया। पर वे अकेले ऐसे शासनाध्यक्ष नहीं हैं और न पहले
फौजी तानाशाह हैं। देश की अदालत ने ताकतवर पूर्व फौजी जनरल को जेल में डालने की हिम्मत
दिखाई, यह बात अच्छी है। पर यही हिम्मत क्या हमीद गुल, असलम बेग और जनरल दुर्रानी के
मामले में भी दिखाई जा सकती है? इन लोगों ने लोकतंत्र को पलीता लगाने का काम
खूब किया है। क्या कोई अदालत जनरल अयूब खां या जनरल ज़िया-उल-हक की निन्दा करेगी? क्या कोई अदालत इफ्तिकार चौधरी को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप
में काम करने को गैर-कानूनी करार देगी? इन सारे जजों ने सन
1999 में नागरिक सरकार के तख्ता पलट के बाद नए फौजी शासन के निर्देश पर नई शपथ ली और
अपनी नौकरी बचाई थी।
परवेज़ मुशर्रफ करगिल के अपराधी हैं। पर दूसरी नज़र से देखें
तो हाल के वर्षों में वे पाकिस्तान के सबसे साहसी शासनाध्यक्ष हैं, जिन्होंने तहरीके
तालिबान से सीधा मोर्चा लिया। लाल मस्जिद में बैठे उग्रवादियों पर धावा बोला और पश्चिमोत्तर
सीमा पर कट्टरपंथियों के खिलाफ सेना भेजी। देश के लोकतांत्रिक रूपांतरण का श्रेय भी
मुशर्रफ को जाता है। पर हाल में देश की न्यायपालिका सरकार पर हावी नज़र आती है। एक
चुने हुए प्रधानमंत्री को अदालत की अवमानना के मामूली से आरोप में इस्तीफा देना पड़ा।
मुशर्रफ इस वक्त चुनाव में हिस्सा लेने पाकिस्तान आए हैं। देश की जनता उनके बारे में
फैसला करती, उसके पहले अदालत ने उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया। पाकिस्तान
के संविधान में अनुच्छेद 62 और 63 के तहत व्यवस्था है कि चुनाव लड़ने वाला देशभक्त
और धार्मिक रूप से पक्का मुसलमान होना चाहिए। इस व्यवस्था के तहत मुशर्रफ को प्रत्याशी
ही नहीं बनने दिया गया। इसका जिम्मा पूरी तरह जजों के हाथ में है, जिससे लगता है कि
व्यवस्था न्यायपालिका के हवाले है। और वह जैसा समझ में आ रहा है तय कर रही है। केवल
मुशर्रफ के पर्चे को ही खारिज नहीं किया गया है, तमाम लोगों के पर्चे खारिज हुए हैं।
मुशर्रफ के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट में जो आरोप हैं उनमें कुछ और जोड़कर आतंकवादी कानून
भी अदालत ने थोप दिए हैं। यह कार्रवाई रंजिश की ओर इशारा करती है।
मुशर्रफ पर आरोप है कि सन 2007 में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के
मुख्य न्यायाधीश सहित अनेक जजों को बर्खास्त कर दिया था और 60 जजों को नज़रबंद कर दिया
था। व्यावहारिक सच कुछ और है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में इफ्तिकार मुहम्मद
चौधरी ने 1999 में परवेज मुहम्मद की फौजी सरकार को वैधानिक साबित करने वाले फैसले का
साथ दिया था। सन 2005 में मुशर्रफ ने ही उन्हें मुख्य न्यायाधीश की शपथ दिलाई थी। पर
2007 में उन्होंने ही उन्हें बर्खास्त किया। बर्खास्तगी के वास्तविक कारणों पर से पर्दा
कभी नहीं उठा। पर इतना ज़रूर है कि लाल मस्जिद कार्रवाई के बाद यह सब हुआ।
बहरहाल मुशर्रफ ने लोकतंत्र के पक्ष में उठती आवाज़ों की पेशबंदी
में या अमेरिकी सरकार के प्रभाव में बेनज़ीर भुट्टो की वापसी को स्वीकार कर लिया था।
इसके तहत 5 अक्टूबर 2007 को नेशनल रिकांसिलिएशन ऑर्डिनेंस (एनआरओ) जारी किया गया। इसका
औपचारिक अर्थ था कि माहौल बनाने के लिए कुछ बातों को भुला दिया जाए। कानूनी अर्थ यह
था कि 1 जनवरी 1986 से 12 अक्टूबर 1999 के बीच कानूनी कार्रवाइयाँ, मुकदमे
वगैरह वापस ले लिए जाएंगे। बेनज़ीर तथा उनके पति आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ उस दौरान
भ्रष्टाचार के तमाम मुकदमे ठोक दिए गए थे। ज्यादातर मुकदमे नवाज़ शरीफ की सरकार के
समय दायर किए गए थे। पाकिस्तानी व्यवस्था में ऐसे आरोप किसी पर भी लगाए जा सकते हैं।
बहरहाल इफ्तिकार चौधरी की सदारत में सुप्रीम कोर्ट ने एक हफ्ते के भीतर मुशर्रफ के
इस एनआरओ को गैर-कानूनी करार दिया। जवाब में इफ्तिकार चौधरी को बर्खास्त कर दिया गया।
बेनज़ीर की वापसी हुई, पर 2008 के चुनाव के पहले ही उनकी हत्या
कर दी गई। चुनाव के बाद पीपीपी की सरकार बनी। उधर सुप्रीम कोर्ट के जजों की बहाली को
लेकर नवाज शरीफ ने आंदोलन शुरू कर दिया। अंततः मार्च 2009 में इफ्तिकार चौधरी वापस
आ गए। और इफ्तिकार चौधरी का अगला निशाना पीपीपी की सरकार थी। येन-केन प्रकारेण उन्होंने
प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी को हटने पर मजबूर कर दिया। विडंबना है कि पाकिस्तान में न्यायपालिका एक से ज्यादा
बार फौजी तानाशाहों की सरकारों को वैधानिकता प्रदान कर चुकी है। पर इस लोकतांत्रिक
सरकार के पीछे वह बुरी तरह पड़ गई। अदालत की हर बेंच में वही गिने-चुने नाम होते हैं।
जब तक न्यूयॉर्क में 9/11 का हादसा नहीं हुआ था, पाकिस्तान
की पूरी व्यवस्था पर कट्टरपंथी हावी थे। परवेज़ मुशर्ऱफ को जब यह बात समझ में आ गई
कि अब अमेरिका से दुश्मनी मोल लेना सम्भव नहीं है तो उन्होंने कट्टरपंथियों की ओर से
मुँह फेरा। लाल मस्जिद प्रकरण के बाद कट्टरपंथियों ने मुशर्रफ को दुश्मन मान लिया।
और शायद तभी कट्टरपंथियों को न्यायपालिका का सहारा मिला। न्यायपालिका की इस मुहिम का
फौज के एक बड़े तबके ने साथ दिया। इसका अंदाज़ पूर्व राजदूत हुसेन हक्कानी के मामले
से लगा। मुशर्रफ की गिरफ्तारी की तार्किक परिणति क्या होगी, कहना मुश्किल है। शायद
वे सऊदी अरब की मध्यस्थता से देश में वापस आए हैं। हो सकता है कि मध्यस्थों की मदद
से राज-व्यवस्था कोई रास्ता निकाले। पर इसे लोकतंत्र की जीत मानना गलत होगा। इसके उलट
पाकिस्तान पर कट्टरपंथियों का शिकंजा कमज़ोर होता नज़र नहीं आता।
हरिभूमि में प्रकाशित
हरिभूमि में प्रकाशित
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