चीनी के साथ हमारा सीमा विवाद जिस स्तर का है उसके मुकाबले पाकिस्तान के साथ विवाद छोटा है, बावजूद इसके चीन के साथ हमारे रिश्तों में वैसी कड़वाहट नहीं है जैसी पाकिस्तान के साथ है। बुनियादी तौर पर पाकिस्तान का इतिहास 66 साल पुराना है और चीन का कई हजार साल पुराना। वह आज से नहीं हजारों साल से हमारा प्रतिस्पर्धी है। यह प्रतिस्पर्धा पिछले कुछ सौ साल से कम हो गई थी, क्योंकि भारत और चीन दोनों आर्थिक शक्ति नहीं रहे। पर अब स्थिति बदल रही है। बेशक हमारे सीमा विवाद पेचीदा हैं, पर दोनों देश उन्हें निपटाने के लिए लम्बा रास्ता तय करने को तैयार हैं। चीन हमें घेर रहा है या हम चीन की घेराबंदी में शामिल हैं, यह बात दोनों देश समझते हैं। फिर भी लद्दाख में चीनी घुसपैठ किसी बड़े टकराव का कारण नहीं बनेगी। चीन इस वक्त जापान के साथ टकराव में है और भारत से पंगा लेना उसके हित में नहीं।
लद्दाख में चीनी सैनिकों की उपस्थिति का मामला इस बार काफी गहरा था, पर मीडिया के मंच पर उतनी शिद्दत से नहीं उठा जितना अतीत में उठता रहा है। यह मीडिया की परिपक्वता का परिचायक है या सरकार के साथ नियमित संवाद का। सरकारी प्रतिक्रिया संयमित रही। विदेश नीति को लेकर परम्परा से सर्वानुमति रही है, पर अब इसमें भी राजनीति होती है। बहरहाल लगता है कि लहरें शांत हो जाएंगी। बेशक 10 किलोमीटर तक चीनी सेना का भीतर तक चले आना गम्भीर बात है। पर उससे ज्यादा गम्भीर बात चीन का इस बात पर जोर देना है कि चीनी सेना अपनी सीमा के भीतर थी। इसका मतलब है या तो दोनों पक्षों की सीमा को लेकर परिभाषा अलग है या दोनों एक-दूसरे को अपनी बात समझा नहीं पा रहे हैं। भारत और चीन के रिश्ते विसंगतियों से भरे हैं। आज़ादी के बाद हमारे देश ने जो सबसे अपमानजनक क्षण देखे हैं वे 1962 में थे। एक अपर्याप्त, अनमनी और अचकचाई भारतीय सेना को चीन के हाथों पराजय देखनी पड़ी। हालांकि इसके बाद भारतीय सेना ने कम से कम दो मौकों पर चीनी सेना को पराजय का स्वाद चखाया है, पर हम 1962 को भूल नहीं पाते हैं। कुछ महीने पहले ही उस लड़ाई के पचास साल पूरे होने पर उस टीस को देश ने फिर से महसूस किया था। सितम्बर-अक्टूबर 1967 में नाथू-ला में पाँच दिन की और चो-ला में एक दिन की लड़ाइयों में भारतीय सेना ने चीनी सेना की अच्छी तरह पिटाई की थी। इसके बाद जून 1986 में अरुणाचल प्रदेश के सुमद्रोंग चू घाटी में घुसी चीनी सेना के सामने भारत ने तीन डिवीजन फौज उतार कर चीन को दहशत में डाल दिया था। वह आखिरी मौका था, जब भारत और चीन के बीच सैनिक टकराव की सम्भावना बनी थी। पर अब सैनिक टकराव का ज़माना नहीं है। इस बात को भारत और चीन दोनों अच्छी तरह समझते हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
लद्दाख में चीनी सैनिकों की उपस्थिति का मामला इस बार काफी गहरा था, पर मीडिया के मंच पर उतनी शिद्दत से नहीं उठा जितना अतीत में उठता रहा है। यह मीडिया की परिपक्वता का परिचायक है या सरकार के साथ नियमित संवाद का। सरकारी प्रतिक्रिया संयमित रही। विदेश नीति को लेकर परम्परा से सर्वानुमति रही है, पर अब इसमें भी राजनीति होती है। बहरहाल लगता है कि लहरें शांत हो जाएंगी। बेशक 10 किलोमीटर तक चीनी सेना का भीतर तक चले आना गम्भीर बात है। पर उससे ज्यादा गम्भीर बात चीन का इस बात पर जोर देना है कि चीनी सेना अपनी सीमा के भीतर थी। इसका मतलब है या तो दोनों पक्षों की सीमा को लेकर परिभाषा अलग है या दोनों एक-दूसरे को अपनी बात समझा नहीं पा रहे हैं। भारत और चीन के रिश्ते विसंगतियों से भरे हैं। आज़ादी के बाद हमारे देश ने जो सबसे अपमानजनक क्षण देखे हैं वे 1962 में थे। एक अपर्याप्त, अनमनी और अचकचाई भारतीय सेना को चीन के हाथों पराजय देखनी पड़ी। हालांकि इसके बाद भारतीय सेना ने कम से कम दो मौकों पर चीनी सेना को पराजय का स्वाद चखाया है, पर हम 1962 को भूल नहीं पाते हैं। कुछ महीने पहले ही उस लड़ाई के पचास साल पूरे होने पर उस टीस को देश ने फिर से महसूस किया था। सितम्बर-अक्टूबर 1967 में नाथू-ला में पाँच दिन की और चो-ला में एक दिन की लड़ाइयों में भारतीय सेना ने चीनी सेना की अच्छी तरह पिटाई की थी। इसके बाद जून 1986 में अरुणाचल प्रदेश के सुमद्रोंग चू घाटी में घुसी चीनी सेना के सामने भारत ने तीन डिवीजन फौज उतार कर चीन को दहशत में डाल दिया था। वह आखिरी मौका था, जब भारत और चीन के बीच सैनिक टकराव की सम्भावना बनी थी। पर अब सैनिक टकराव का ज़माना नहीं है। इस बात को भारत और चीन दोनों अच्छी तरह समझते हैं।
भारत और चीन की तुलना कुछ लोग भारत-पाकिस्तान के
रिश्तों से करते हैं। समझदार पाकिस्तानी मानते हैं कि कश्मीर मसले को किनारे रखकर हमें
व्यापारिक रिश्तों को बेहतर बनाने में जुटना चाहिए। पर भारत-पाकिस्तान सीमा पर पत्ता
भी खड़क जाए तो दोनों देशों में शोर मच जाता है। जनवरी में दो भारतीय सैनिकों की गर्दन
काटे जाने के मामले के बाद सीमा पर अचानक तनाव फैल गया। ऐसा तनाव भारत-चीन विवाद के
मौकों पर नहीं फैलता। पिछले दो-तीन वर्षों में कई मौके ऐसे आए जब मीडिया ने युद्ध के
नगाड़े बजाए। पर युद्ध हुआ नहीं। इसकी वजह दोनों सरकारों के बीच बना सीधा संवाद है।
चीन के प्रधानमंत्री ली ख
छ्यांग मई के तीसरे सप्ताह में भारत आने वाले हैं। उसके पहले भारत के विदेश मंत्री
सलमान खुरशीद चीन जा रहे हैं। भारत और चीन के बीच व्यापारिक रिश्ते बहुत अच्छे हैं।
दोनों के बीच व्यापार 70 अरब डॉलर के आसपास है। उम्मीद है कि सन 2015 तक यह 100 अरब
डॉलर के ऊपर हो जाएगा। युद्ध दोनों में से किसी के हित में नहीं है। चीनी नेतृत्व का
कहना है कि भारत और चीन के बीच रिश्ते इस सदी का सबसे बड़ा द्विपक्षीय सहयोग साबित
होगा।
सन 1987 में सुमद्रोंग चू में पैदा हुए संकट के बाद
सन 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन की यात्रा की। पिछले 34 साल में चीन की यात्रा पर जाने वाले वे पहले प्रधानमंत्री
थे। उस यात्रा ने ऐतिहासिक काम किया। दोनों देश सीमा विवाद सुझलाने के लिए संयुक्त
कार्यकारी दल बनाने पर सहमत हुए। इसके बाद 1991 में चीनी प्रधानमंत्री ली फंग भारत
आए। फिर 1993 में पीवी प्रधानमंत्री नरसिंह राव चीन गए। दोनों देशों के बीच वास्तविक
नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति तथा सौहार्द बनाए रखने के उद्देश्य से पहला समझौता
हुआ। सुमद्रोंग चू घाटी में आमने-सामने खड़ी फौजें वापस लाने का समझौता 1995 में हुआ।
फिर 1996 में चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन भारत आए। 1997 में भारत-चीन संयुक्त कार्यकारी
दल ने विश्वास बहाली उपायों के पर विचार-विमर्श शुरू किया। 1998 में लद्दाख-कैलाश-मानसरोवर
मार्ग फिर से शुरू करने की बातचीत हुई। सबसे महत्वपूर्ण थी 1999 में करगिल संगर्ष के
दौरान चीन की तटस्थता। सन 2002 में चीनी प्रधानमंत्री ज़ू रोंगजी का भारत आए। इसके
बाद एक महत्वपूर्ण कदम था जून, 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी
की चीन यात्रा। दोनों देशों ने व्यापार समझौता किया। परस्पर व्यापार के लिए नाथू-ला
दर्रे को खोलने पर सहमति बनी। इसके बाद 2005 में चीनी प्रधानमंत्री वेन जिया बाओ भारत
आए। सन 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चीन के दौरे पर गए। सीमा विवाद को लेकर एक महत्वपूर्ण
समझौता सन 2012 में हुआ, जिसके तहत दोनों देशों ने सीमा संबंधी मामलों पर विचार-विनिमय
तथा समन्वय के लिए तंत्र गठित करने बारे सहमति बनाई।
चीन में हाल में नया नेतृत्व
आया है। पिछले महीने दक्षिण अफ्रीका में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात की थी। उस मुलाकात में भी सौहार्द्र
दिखाई पड़ा। दोनों देश आने वाले समय में दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक शक्तियों
के रूप में विकसित होने जा रहे हैं। दोनों के बीच सहयोग के अलावा प्रतियोगिता भी है,
पर चीन अभी भारत से बैर पैदा करना नहीं चाहता। हाँ इतना चाहता है कि भारत पूरी तरह
अमेरिका के खेमे में जाने से बचे। दोनों देश मानते हैं कि व्यापारिक रिश्तों पर सीमा
विवाद की छाया नहीं पड़नी चाहिए। हालांकि अरुणाचल और स्टैपल्ड वीजा को लेकर दोनों देशों
के बीच तनातनी देखने को मिली है, पर उसे सुलझा लिया गया। यह भी सही है कि चीन हिन्द
महासागर में तक अपनी नौसेना की पहुँच चाहता है। वस्तुतः उसे अपने आर्थिक विकास के लिए
और माल की आवा-जाही के लिए सुरक्षित रास्ते चाहिए। इसके लिए उसने श्रीलंका में हम्बनटोटा
बंदरगाह विकसित किया है। पकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह भी प्रकारांतर से चीनी हितों की
पूर्ति करेगा। भारत ने भी इसके लिए पेशबंदी की है। हम भी ग्वादर के ठीक बराबर ईरान
में चहबहार बंदरगाह के विकास में हाथ बँटा रहे हैं। उस रास्ते हमारा माल अफगानिस्तान
होते हुए कैस्पियन सागर, मध्य एशिया और रूस तक जा सकता है। भारतीय वायुसेना ताजिकिस्तान
के आइनी वायुसैनिक अड्डे का रखरखाव करती है। उसने वहां आधुनिक लड़ाकू और परिवहन विमानों
के उतरने लायक ढांचागत सुविधाएं स्थापित की हैं। इसके अलावा भारत ने गिसार वायुसैनिक
अड्डे के ढांचागत विकास में मदद दी है। दक्षिण चीन सागर में भारत-वियतनाम मिलकर तेल
खोजने का काम कर रहे हैं। इन बातों को लेकर चीन के साथ हमारी तनातनी है। पर बैर नहीं
है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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