कोल ब्लॉक आबंटन की स्टेटस रिपोर्ट के मसले में कानून मंत्री और सीबीआई डायरेक्टर दोनों ने मर्यादा का उल्लंघन किया है। पर इस वक्त सीबीआई डायरेक्टर चाहें तो एक बड़े बदलाव के सूत्रधार बन सकते हैं। इस मामले में सच क्या है, उनसे बेहतर कोई नहीं जानता। उन्हें निर्भय होकर सच अदालत और जनता के सामने रखना चाहिए। दूसरे ऐसी परम्परा बननी चाहिए कि भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा तथा अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं के अफसरों को सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम पाँच साल तक कोई नियुक्ति न मिले। भले ही इसके बदले उन्हें विशेष भत्ता दिया जाए। इससे अफसरों के मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा। सत्ता का गलियारा बेहद पेचीदा है। यहाँ के सच उतने सरल नहीं हैं, जितने हम समझते हैं। बहरहाल काफी बातें अदालत के सामने साफ होंगी। रंजीत सिन्हा के हलफनामे में जो नहीं कहा गया है वह सामने आना चाहिएः-
कुछ बातें जो अभी तक विस्मित
नहीं करती थीं, शायद वे अब विस्मित करें। कोयला मामले में सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा
के अदालत में दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि मामले की स्टेटस रिपोर्ट का ड्राफ्ट
कानून मंत्री को दिखाया गया, जिसकी उन्होंने ‘इच्छा’ व्यक्त की थी। सीबीआई ने अपनी रपट 8 मार्च को दाखिल की थी।
उसके बाद 12 मार्च को अटॉर्नी जनरल जीई वाहनावती ने अदालत से कहा कि हमने इस रपट को
देखा नहीं था। इसके बाद अदालत ने सीबीआई के डायरेक्टर को निर्देश दिया कि वे हलफनामा
देकर बताएं कि यह रिपोर्ट सरकार को दिखाई गई या नहीं। अदालत ने ऐसा निर्देश क्यों दिया? इसके बाद 13 अप्रेल के अंक में इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी
कि सीबीआई डायरेक्टर अदालत में दाखिल होने वाले हलफनामे में इस बात को स्वीकार करेंगे
कि रपट सरकार को दिखाई गई थी।
दरअसल 12 मार्च को अदालत ने
रंजीत सिन्हा से कहा था कि वे हलफनामा दें कि यह रपट सरकार (पोलीटिकल एक्जीक्यूटिव)
को नहीं दिखाई गई है। साथ ही यह भी उसमें कहें कित्री और सीबीआई भविष्य में नहीं दिखाई जाएगी। उन्होंने
अपने हलफनामे में लिखा है कि यह रपट सरकार को नहीं दिखाई गई है और भविष्य में नहीं
दिखाई जाएगी। पर इसके बाद यह तथ्य भी जोड़ा है कि इस रपट का प्रारूप कानून मंत्री के
कहने पर उन्हें दिखाया गया। इसके अलावा पीएमओ के एक संयुक्त सचिव और कोयला मंत्रालय
के संयुक्त सचिव को भी दिखाया गया। जो जानकारी हलफनामे में नहीं दी गई है वह यह है
कि प्रारूप और अंतिम रपट में क्या कोई अंतर है। यह अंतर या बदलाव क्या किसी के कहने
पर किया गया है? इसमें यह भी पता नहीं लगता
कि कानून मंत्री को जब रपट दिखाई गई तब उनके साथ कोई और लोग भी थे या नहीं। ऐसा कहा
जाता है कि उस वक्त भारत सरकार के चार सीनियर वकील भी वहाँ थे।
सरकार कहती है कि सीबीआई के
डायरेक्टर का मंत्री से मुलाकात करना सामान्य बात है। आखिरकार वह भी सरकार का हिस्सा
है। पर सवाल है उसे क्या काम मंत्री की सलाह से करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
क्या वह कानून मंत्री के विभाग का अंग है? वस्तुतः सीबीआई डायरेक्टर
को मंत्री के साथ इस रपट पर न तो चर्चा करनी चाहिए थी और न उसके प्रारूप को दिखाना
चाहिए था। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि अदालत का यह साफ निर्देश था कि रपट सीधे अदालत
को दी जाएगी, सरकार से शेयर नहीं की जाएगी। दूसरा यह कि इस रपट में सरकार की जाँच भी
थी। रपट में कोयला ब्लॉकों के आबंटन में खामियों की ओर इशारा किया गया है। सरकारी वकील
अदालत में इसे गलत बता रहा है। ऐसे में अदालत में पेश किए बगैर इस रपट को, भले ही वह
प्रारूप था, दिखाने की ज़रूरत क्या थी? इसका जवाब आज सीबीआई
डायरेक्टर अदालत को देंगे। इसमें कोई बदलाव किया गया कि नहीं यह बात भी वे बताएंगे।
सवाल है कि क्या वे सारे सत्य बताएंगे?
कोयला मामले में सीबीआई डायरेक्टर
का बयान युगांतरकारी साबित होने वाला है। उनसे बेहतर इस वक्त कोई नहीं जानता कि सरकार
का सीबीआई के काम-काज में हस्तक्षेप है या नहीं। सीबीआई की आज की जो भी सीमित स्वायत्तता
है उसकी रक्षा या उसे भी धूल में मिलाने का काम वे अच्छी तरह कर सकते हैं। उम्मीद है
वे राष्ट्रहित में सोचेंगे। यदि वे ऐसा नहीं सोच रहे होते तो अपने हलफनामे में कानून
मंत्री से भेंट का जिक्र नहीं करते। यह जिक्र उन्होंने क्यों किया? सम्भव है कि साक्ष्य अब इतने साफ हों कि वे इस मुलाकात को छिपाने
की स्थिति में न रहे हों। सम्भव यह भी है कि वे स्वयं इस बात को छिपाना न चाहते हों।
अदालत के सहारे उन्हें एक दोष को सामने लाने का मौका मिल रहा हो। हो यह भी सकता है
कि वे अपने आप को भारी कलंक से बचाने के लिए सच बोलने के लिए मज़बूर हुए हों। इसमें
दो राय नहीं कि सीबीआई का इस्तेमाल सरकारें अपने हित में करती रहीं हैं और वे इस अधिकार
को अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहतीं। विपक्षी दल भी बाहर चाहे जो कहते हों ज्यादातर
सीबीआई को अपने शिकंजे में रखना चाहते हैं।
सन 1997 में हवाला मामले में
फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेएस वर्मा ने कहा था कि सीबीआई के अधिकारियों
को सेवा-निवृत्ति के बाद सरकारी सेवा में लेने की प्रथा बंद करनी चाहिए। हवाला मामले
में भी सीबीआई की भूमिका संदेहास्पद थी। ओत्तावियो क्वात्रोक्की के मामले में इस संगठन
की काफी लानत-मलामत हो चुकी है। मायावती, मुलायम सिंह और जगनमोहन रेड्डी के मामले में
इसके सकारात्मक या नकारात्मक इस्तेमाल से कौन इनकार करेगा। पिछले दिनों डीएमके नेता
एमके स्टैलिन के यहाँ पड़े छापों के बाद प्रधानमंत्री तक ग्लानिभूत हो गए थे। यह संगठन
इतना बदनाम हो चुका है कि सही छापे मारता हो तब भी गलत लगता है। किसने इसे रसातल तक
पहुँचाया। सीबीआई के अनेक रिटायर्ड डायरेक्टर खुल कर यह बात कहते हैं कि सरकार इसका
अपने हितों के लिए इस्तेमाल करती है। अन्ना हजारे के आंदोलन के मूल में सीबीआई की विफलता
भी थी।
यह सच है कि हाल के वर्षों
में तमाम घोटालों पर देश की नज़र तब गई जब सीएजी ने उन्हें उठाया। सीएजी संवैधानिक
संस्था है। इसी तरह चुनाव आयोग की स्वायत्तता के परिणाम हमारे सामने हैं। चुनाव आयोग
की राजनीतिक भूमिका पर सरकार ने सवाल नहीं उठाए हैं, पर सीएजी को लेकर सरकार की नाराज़गी
छिपी नहीं है। वर्तमान सीएजी विनोद राय का कहना है कि सीबीआई और केन्द्रीय विजिलेंस
कमिश्नर (सीवीसी) काम करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। सीबीआई की कार्यप्रणाली स्वतंत्र
नहीं है और सीवीसी का भी यही हाल है। टूजी और कोल ब्लॉक आबंटन के मसले सीएजी ने ही
उठाए थे। इधर मनरेगा में हुई गड़बड़ी पर भी सीएजी ने ही ध्यान दिलाया है। क्या यह सब
राजनीतिक कारणों से है? क्या विनोद राय की
राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं? यह सच भी हो सकता
है, पर यह भी सम्भव है कि इन घोटालों के कारण उनपर सरकारी पलटवार हो। विनोद राय को
अपनी सदाशयता साबित करने के लिए समय की ज़रूरत होगी। देखना होगा कि क्या वे रिटायरमेंट
के बाद राजनीतिक राह पर जाते हैं या नहीं।
सीबीआई के डायरेक्टर रंजीत
सिन्हा मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ही फ़ैसला कर सकता है कि सीबीआई कितनी स्वतंत्र
है। इसका क्या मतलब है? क्या वे जो बात खुद
कहना चाहते हैं वह खुद न कहकर सुप्रीम कोर्ट से कहलाना चाहते हैं? या वे एक सच को दबा देंगे? पत्रकारों ने उनसे
पूछा कि क्या कानून मंत्री के कहने पर कोयला घोटाले की रिपोर्ट में उन्होंने कुछ बदलाव
किए थे? इसपर उन्होंने कहा, “मैं सब कुछ सुप्रीम कोर्ट
को बताऊंगा और जब तक कोर्ट को नहीं बताता तब तक सब लोगों को नहीं बता सकता।” इन बातों का मतलब आज अदालत में स्पष्ट होगा। क्या हमारी न्यायपालिका सीबीआई को
स्वायत्त संस्था बना सकती है? ऐसा सोचना अनुचित
है। कार्यपालिका के काम कार्यपालिका को ही करने चाहिए। पर अदालत इस काम को तेज कर सकती
है। सीबीआई के डायरेक्टर पहल करें तो एक बड़ी पहल की जा सकती है। पर क्या वे ऐसा कुछ
करेंगे? इसका जवाब अदालत में ही मिलेगा।
बहरहाल कोल ब्लॉक को लेकर
राजनीति जारी है। भारतीय जनता पार्टी ने पूरे वर्षा सत्र में संसद नहीं चलने दी। उसकी
माँग थी कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दें। प्रधानमंत्री खुद और कानून मंत्री के इस्तीफे
के लिए तैयार नहीं हैं। पर अदालत से आई कोई भी गम्भीर टिप्पणी कानून मंत्री पर भारी
पड़ेगी। कोल ब्लॉक पर स्टेटस रिपोर्ट देखने में पीएमओ और कोयला मंत्रालय के अफसरों
की दिलचस्पी क्यों थी इसपर भी रोशनी पड़ना बाकी है। पड़ताल उसकी भी होनी चाहिए। टूजी मामले पर जेपीसी की रपट पर भी विचार होना है। इसमें बीएसपी तो कांग्रेस
के साथ नज़र आती है, पर समाजवादी पार्टी का रुख साफ नहीं है। इतना मुखर होकर भी कांग्रेस
के खिलाफ वे कोई निर्णायक कदम उठाने से क्यों डरते हैं? इस सवाल का जवाब भी शायद मिले। क्या सीबीआई डायरेक्टर कुछ बोलेंगे? क्या मुलायम सिंह कुछ करेंगे? क्या जेपीसी की रपट निर्णायक साबित होगी? अगले दो दिनों में देखिए क्या होता है।
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
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