आज़ादी के 69 साल
बहुत कड़ा है सफर, साथ चलो
जिस समय देश 70 वाँ स्वतंत्रता
दिवस मना रहा है, उस समय दिल्ली पर कुछ नापाक इरादों की नजरें गड़ी हैं। हवा में
अंदेशा तैर रहा है कि संदिग्ध आतंकी दिल्ली पुलिस और पैरा-मिलिट्री फोर्स को
निशाना बना सकते हैं। हमारे स्वतंत्रता दिवस पर कुछ लोग ‘काला दिन’ मना रहे हैं। उन्हें हमारी ‘आज़ादी’ से शिकायत है। हमारे
संविधान से नाराजगी है। वे भी ‘आज़ादी’ की माँग कर रहे हैं।
यह ‘आज़ादी’ हमारे खिलाफ है। क्या अन्याय कर
दिया हमने उनके साथ? यह बुनियादी मान्यताओं के बीच टकराव है। क्या हम जानते हैं कि हमारी बुनियादी
मान्यताएं क्या हैं? और क्या हम उनके
प्रतिबद्ध है?
स्वतंत्रता दिवस के ठीक पहले हमारी
संसद के मॉनसून सत्र का समापन हुआ है। एक अर्से के बाद संसद के दोनों सदनों में
संजीदगी दिखाई दी। कम से कम दो अवसरों पर, जीएसटी और कश्मीर पर चर्चा के दौरान,
सभी राजनीतिक दलों के बीच सर्वानुमति भी दिखाई दी। यह सर्वानुमति हमारी ताकत है। सीमा
पर सेना हमारी रक्षा करती है, पर असली राष्ट्रीय सुरक्षा हमारी सर्वानुमति में
निहित है। यह सर्वानुमति तब तक सम्भव नहीं है जबतक इसमें हम सब की भागीदारी न हो।
दूसरे शब्दों में जन-जागृति के बगैर सम्भव नहीं है।
हमारे संविधान का अनुच्छेद 19
नागरिक को छह प्रकार की स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है। भाषण और अभिव्यक्ति, एकत्र होने सभा करने, संगठित होने, भारत के भीतर कहीं भी आने-जाने, कहीं भी निवास करने
तथा कोई भी पेशा अपनाने की स्वतंत्रता। इन स्वतंत्रताओं के संरक्षण की पूरी मशीनरी
भी है। दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि ये स्वतंत्रताएं पूरी हैं और सभी नागरिकों
को उपलब्ध हैं। पर सिद्धांततः इन्हें लागू कराया जा सकता है। पर इन दिनों हम जिस ‘आज़ादी’ की बात सुन रहे हैं उसकी बुनियाद में भारत के
संविधान को खारिज करने की माँग है। यह नारा है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान।’
यह नारा भारत की बहुरंगी,
धर्म-निरपेक्ष व्यवस्था का निषेध करता है। हमें अपनी खामियों से नजरें चुरानी नहीं
चाहिए, पर इस विषय में बात केवल उसके साथ की जा सकती है, जो सिद्धांततः हमारे साथ
है। बहरहाल आज़ादी
की कीमत है अनंत जागरूकता। खतरा इस बात का नहीं है कि कोई हमें फिर से गुलाम बना
देगा। खतरा यह है कि हम जिन मूल्यों के सहारे अपनी व्यवस्था का संचालन कर रहे हैं
उन्हें ठेस लगेगी। हमारा ध्यान 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय
पर्वों पर व्यवस्था के वृहत स्वरूप पर जाता है। आज हमें सोचना चाहिए कि वे कौन से
मूल्य हैं, जिनके हम हामी हैं? और उन्हें लेकर हम कितने संवेदनशील है?
कुछ साल पहले तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा
पाटील ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा था, ‘पेड़ को हितना मत हिलाओ कि वह गिर पड़े।’ यह आग्रह किससे था? जनता से, सरकार से या राजनीतिक व्यवस्था से? वह दौर था जब देश में जन-लोकपाल आंदोलन चल रहा था और
एक रोज पहले अन्ना हजारे ने कहा था, ‘अब सिर्फ तमाचा ही एकमात्र रह गया
है।’ पिछले कुछ साल से देश
में सीधी कार्रवाई करने वाले सक्रिय हुए हैं। हाल में गोरक्षा से जुड़े
कार्यकर्ताओं की गतिविधियों पर प्रधानमंत्री ने तीखी टिप्पणी की। पिछले कुछ समय से
हमारे सामाजिक जीवन टकराव के बिंदु उभर कर आए हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी
सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता भारत में व्याप्त है। यह हमारी ताकत है और इसका
निर्वाह करना सबसे बड़ी चुनौती। पिछले 69 साल की हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है
लोकतंत्र। और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का संचालन सबसे बड़ी चुनौती है। वोट की
राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन के अंतर्विरोधों को बढ़ाया है। जो समाधान है वही
समस्या बनकर उभर रहा है। इसका समाधान है जन-शिक्षण और चुनाव के सहारे व्यवस्था
बदलने की अवधारणा। सवाल है कि लोकतंत्र का यह पेड़ जो फल देता है, क्या हम उससे संतुष्ट हैं? संतुष्ट नहीं हैं तो इसे कितना
हिलाएं कि यह गिरे भी नहीं और फल भी देता रहे?
लोकतंत्र कोई जादू की छड़ी नहीं
है। कुछ चीजों के लिए इंतज़ार करना होता है। पर यह भी देखना होगा कि हम सही रास्ते
पर जा रहे हैं या नहीं। जब तक आप शीशा नहीं देखते तब तक चेहरे के धब्बों को दूर
करने के लिए हाथ नहीं जाता। चुनाव की पूरी प्रक्रिया को गौर से देखें तो आप पाएंगे
कि चुनाव लड़ने वालों में से अधिकतर लोग अच्छे सेल्समैन की तरह अपना माल बेचना
चाहते हैं। उसके कारगर होने की गारंटी-वॉरंटी नहीं देते। हमें गारंटी-वॉरंटी वाली
व्यवस्था चाहिए। और उसकी साख भी चाहिए।
लोकतंत्र तमाम तरह की ताकतों को
एकत्र होने का मौका देता है। अच्छों को भी और खराब को भी। राजनीति में भी समाज के
श्रेष्ठतम और निकृष्टतम दोनों तत्व होते हैं। लोकतंत्र की दूसरी ताकत है आज़ादी। पर
आज़ादी के अंतर्विरोध भी हैं। बहुत से लोगों की आज़ादी अक्सर थोड़े से लोगों की
आज़ादी को खा जाती है। लोकतांत्रिक शोर में खामोश आवाज़ों को भी सुनने की जरूरत
होती है। सारी दुनिया आज कई तरह की बहसों में मुब्तिला है। सबसे बड़ी बहस ‘आतंकवाद’ को लेकर है। यह तबतक ठीक है जबतक वह बहस की शक्ल में
है। विचार का जवाब विचार से दिया जा सकता है। पर गर्दन उतारने वालों और धमाकों से
सैकड़ों-हजारों निर्दोषों का कत्ल करने वालों से क्या बहस की जा सकती है? उन्हें परास्त करना ही
होगा।
सन 1947 में भारत की आजादी दुनिया
के बहुत बड़े जन-समुदाय के सामने सामाजिक रूपांतरण को नए तरीके से परिभाषित करने का
मौका लेकर आई थी। यह केवल सत्ता-परिवर्तन नहीं था। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती
है बहुत बड़ी आबादी को निपट गरीबी के फंदे से बाहर निकालना। साथ ही वैज्ञानिक और
तकनीकी विकास के साथ कदम मिलाकर चलना। तीसरी जिम्मेदारी है अपनी
सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता की रक्षा करना। इस सूची को आप अपनी वरीयता के अनुसार
बढ़ा सकते हैं।
इन कार्यों के लिए जिस
संरचनात्मक-संस्थागत व्यवस्था की जरूरत है उसका विकास भी आपको ही करना है। अच्छी
बात यह है कि तमाम सवालों पर हमारे बीच सर्वानुमति है। हम आमराय बना पाते हैं।
वैचारिक विविधता भी हमारी ताकत है। हम उतने ताकतवर नहीं बन पाए, जितने हो सकते थे।
पर हम उतने कमजोर भी नहीं हैं, जितना कई बार हमें लगता है। यकीन मानिए इक्कीसवीं
सदी भारत के नाम है।
समझ सके तो समझ
ज़िन्दगी की उलझन को /सवाल उतने नहीं हैं, जवाब जितने हैं : जाँ निसार अख्तर
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