रियो में भारत की स्त्री शक्ति ने
खुद को साबित करके दिखाया. पीवी सिंधु, साक्षी मलिक, दीपा कर्मकार, विनेश
फोगट और ललिता बाबर ने जो किया उसे देश याद रखेगा. सवाल जीत या हार का नहीं, उस
जीवट का है, जो उन्होंने दिखाया. इसके पहले भी करणम मल्लेश्वरी, कुंजरानी देवी,
मैरी कॉम, पीटी उषा, अंजु बॉबी जॉर्ज, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा, फोगट बहनें,
टिंटू लूका, द्युति चंद, दीपिका कुमारी, लक्ष्मी रानी मांझी
और बोम्बायला देवी इस जीवट को साबित करती रहीं हैं.
इसबार ओलिम्पिक खेलों को लेकर हमारी अपेक्षाएं ज्यादा
थीं. हमने इतिहास का सबसे बड़ा दस्ता भेजा था. उम्मीदें इतनी थीं कि न्यूज चैनलों
ने पहले दिन से ही अपने पैकेजों पर ‘गोल्ड रश’ शीर्षक लगा दिए थे.
पहले-दूसरे दिन कुछ नहीं मिला तो तीसरे रोज लेखिका शोभा डे ने ट्वीट
मारा जिसका हिन्दी में मतलब है, "ओलिम्पिक में भारत की टीम का
लक्ष्य है-रियो जाओ, सेल्फी लो. खाली हाथ वापस आ जाओ. पैसा और मौके दोनों की बरबादी." इस
ट्वीट ने एक बहस को जन्म दिया है, जो जारी है.
आम लोग नहीं जानते कि ओलिम्पिक में
गोल्ड पाने वाले खिलाड़ी या टीम का स्तर
क्या होता है. मेडल की उम्मीद गलत नहीं है, पर हमें देखना होगा कि क्या हमारे यहाँ
खेलों की विश्व स्तरीय व्यवस्था है. रियो के बाद अब तोक्यो तक हमें इस बारे में
सोचना चाहिए. हम मेडल क्यों नहीं लाते? क्या करें कि मेडल आएं? हमें फेल करने की कोई साजिश नहीं है. क्या हमारे जीन्स में कोई कमी है? हमारे स्वास्थ्य का
स्तर क्या है? क्या मानसिक रूप से
हम कमजोर हैं?
ओलिम्पिक सिर्फ मेडल बाँटने का
समारोह नहीं है. इसके सहारे दुनिया कुछ दिन के लिए एक मंच पर आती है. यह वैश्विक-परिवार
है. खेल व्यक्ति में अनुशासन, लगन और नियमबद्धता भरते हैं. रचनाशील और धैर्यवान
बनाते हैं. वंचित समुदायों का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं. सिर्फ खेलों की बदौलत
अफ्रीकी समाज का आत्मविश्वास हाल के वर्षों में काफी बढ़ा है. जमैका और बहामास के
स्प्रिंटरों, नाइजीरिया, केन्या और इथोपिया के मिडिल और लांग डिस्टेंस धावकों ने
यूरोपीय खिलाड़ियों का वर्चस्व खत्म कर दिया. चीनी, जापानी और कोरियाई खिलाड़ी
अपनी पहचान बना रहे हैं.
भारत में स्पोर्ट्स अथॉरिटी ने
जनजातीय क्षेत्रों से प्रतिभाएं खोजने का अभियान चला रखा है. दुर्गम इलाकों के
निवासियों के पास परम्परागत जीवट होता है, उसका फायदा उठाना चाहिए. हम खिलाड़ी को
उसकी जाति और धर्म के कारण पसंद नहीं करते उसकी प्रतिभा को पसंद करते हैं. फिर भारत
जैसे बहुरंगी देश को खेल फैवीकॉल की तरह जोड़ता है.
जीत-हार को भी विशेषज्ञ नजरों से देखने की जरूरत है.
हम सफल क्यों नहीं हो पाए? इतनी बड़ी संख्या में हमारे
खिलाड़ियों का क्वालिफाई करना बड़ी उपलब्धि थी. एथलेटिक्स में दो को छोड़कर शेष
खिलाड़ी अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से भी पीछे क्यों रह गए? शूटिंग और आर्चरी जैसे
खेलों में खिलाड़ियों की मानसिक ट्रेनिंग महत्वपूर्ण होती है. अच्छे उपकरण, फिजियो
और मेडिकल सुविधाएं चाहिए. इसबार ओलिम्पिक की बेहतर कवरेज से हमें यह भी पता लगा
कि कम्पटीशन कितना कठिन है.
रियो खेलों के पहले दिन एक तस्वीर वायरल हुई जिसमें
दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया की दो जिम्नास्ट ली युन जू और होंग उन-जोंग मिलकर
सेल्फी ले रहीं थीं. यह सेल्फी उनकी यादगार बन गई. जिम्नास्टिक्स के ट्रेनिंग सेशन
में दोनों जब सेल्फी ले रहीं थीं, किसी फोटोग्राफर ने उनकी तस्वीर ले ली. यह
तस्वीर ‘ओलिम्पिक भावना’ की तस्वीर है. दोनों देशों की गलाकाट राजनीतिक
प्रतिस्पर्धा को यह तस्वीर खारिज करती है.
ओलिम्पिक खेल खिलाड़ियों को प्रेरित करते हैं कि वे
एक-दूसरे के साथ घुलें-मिलें, खाएं-पिएं, नाचें-गाएं और दोस्ती को बढ़ाएं. रियो-2016
की एक और प्रेरक तस्वीर महिलाओं की 5000 मीटर की रेस में देखने को मिली. रेस चल ही
रही थी कि अचानक न्यूजीलैंड की धावक निक्की हैम्बलिन किसी वजह से ट्रैक पर गिर
पड़ीं. यह देखकर अमेरिका की एबे डी-अगस्टीनो ने रुककर उन्हें उठाने की कोशिश की,
जिस कोशिश में उनका घुटना मुड़ गया. दोनों ने एक-दूसरे की मदद की और लंगड़ाते हुए
रेस पूरी की. हालांकि दोनों का समय क्वालिफिकेशन लायक नहीं था, फिर भी आयोजकों ने
उन्हें और इस घटनाक्रम से प्रभावित ऑस्ट्रिया की धावक जेनिफर वेंथ को फाइनल में
विशेष रूप से जगह दी.
इन खेलों की वजह से हमने भारत की जिम्नास्ट दीपा
कर्मकार को पहचाना. दीपा ने ओलिम्पिक
प्रतियोगिता में क्वालिफाई करने के लिए वॉल्ट पर जिस प्रोद्यूनोवा का प्रदर्शन
किया, वह बेहद मुश्किल एक्सरसाइज़ है. वह त्रिपुरा के पिछड़े इलाके से आती हैं और
उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि साधारण है. उसने असाधारण काम करके दिखाया. दीपा के फाइनल
प्रदर्शन में उसके साथ कोरिया की वही सेल्फी वाली होंग उन-जोंग भी वॉल्ट पर
प्रदर्शन कर रही थी. वह भी उत्तरी कोरिया के टैंचन के गरीब परिवार से ताल्लुक रखती
है. उसने भी एक बेहद कठिन ट्रिपल ट्विस्ट युरचेंको को अपने लिए चुना. इस एक्सरसाइज़ की आजतक किसी
ने कोशिश नहीं की थी. हालांकि वह अपने प्रयास में सफल नहीं रही, पर उसने भी इस बात
को रेखांकित किया कि जिनके पास साधन नहीं होते वे बड़े जोखिम उठाते हैं.
ओलिम्पिक का ध्येयवाक्य है ‘सिटियस, एल्टियस, फोर्टियस.’ इन लैटिन शब्दों का
अर्थ है तीव्रतर, उच्चतर और दृढ़तर. नई से नई सीमाएं पार करो. दीपा को जिस प्रतियोगिता में चौथा
स्थान मिला उसका स्वर्ण पदक जीतने वाली अमेरिका की अश्वेत लड़की सिमोन बाइल्स के
जीवन की भी कठिन कथा है. उसके पिता ने छोड़ दिया. माँ ड्रग्स और अल्कोहल की शिकार
थी. उसका लालन-पालन कठिन परिस्थितियों में टेक्सास में हुआ. आज वह दुनिया की
सर्वश्रेष्ठ जिम्नास्ट है. उसने रियो में चार स्वर्ण पदक जीते. त्रिपुरा, टैंचन और
टेक्सास की ये तीन लड़कियाँ जीवट, लगन और मेहनत की कहानी कहती हैं, जो ओलिम्पिक के
ध्येय वाक्य मेल खाती है.
इन तीनों के साथ उज्बेकिस्तान की
41 वर्षीय ओक्ताना चुसोवितीना के जीवट की भी दाद देनी होगी. उनका यह सातवाँ
ओलिम्पिक था. इस उम्र में ओलिम्पिक की जिम्नास्टिक्स प्रतियोगिता में शामिल होना उनके
जीवट को बताता है. नौका चालन प्रतियोगिता में शामिल भारत के दत्तू बाबन भोकनाल महाराष्ट्र
के एक छोटे से गांव तालेगांव में पत्थर तोड़ने वाले एक परिवार से ताल्लुक रखते
हैं. खेलों ने भारत के दूर-दराज के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ा है.
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