दिल्ली के सियासी हलकों में खबर
गर्म है कि कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद की
प्रत्याशी के रूप में पेश कर सकती हैं। शुक्रवार को उनकी सोनिया गांधी के साथ
मुलाकात के बाद इस सम्भावना को और बल मिला है। इसमें असम्भव कुछ नहीं। शीला
दीक्षित कांग्रेस के पास बेहतरीन सौम्य और विश्वस्त चेहरा है। उत्तर प्रदेश में
कांग्रेस को जैसा चेहरा चाहिए वैसा ही। गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश का गुलाम प्रभारी बनाना
पार्टी का सूझबूझ भरा कदम है।
सवाल ब्राह्मण और मुसलमान चेहरों को सामने लाने नहीं, बल्कि
सुलझे हुए नेताओं को सामने का है। फिर भी कहना होगा कि बहुत देर कर दी मेहरबान
आते-आते। पार्टी बहुत देर से चेती है। बहुत देर का मतलब करीब दो दशक की देरी। ऐसा
माना जा रहा है कि यह प्रशांत किशोर की सलाह से हो रहा है। ऐसा है तो यह कहना होगा
कि पार्टी के नेतृत्व को क्या हो गया है? इतनी सामान्य बात समझने के लिए पार्टी को सलाहकार नियुक्त करना पड़े, यह बात
गले नहीं उतरती।
पार्टी कार्यकर्ताओं को संगठित
करना और माहौल बनाने के लिए उपलब्ध सुविधाओं का इस्तेमाल करना एक बात है और व्यापक
रणनीति बनाना दूसरी बात। जमीन पर राजनीति के सच को समझना राजनेता का काम है। उसे
सलाहकार की जरूरत पड़ने का मतलब है कि नेता का जमीन से सम्पर्क टूट गया है। गुलाम नबी ठंडे मिज़ाज
वाले सुलझे हुए नेता माने जाते हैं। वे पार्टी की पिछली पीढ़ी से आते हैं और
सोनिया गांधी के विश्वासपात्र भी हैं। इधर पार्टी प्रशांत किशोर की मदद भी ले रही
है। विचारधारा, संगठन और रणनीति तीनों मामले गड्ड-मड्ड हैं।
कांग्रेस के पराभव
की कहानी दीवारों पर लिखी है। कांग्रेस ने पिछले पच्चीस साल में उत्तर प्रदेश की
बेहद उपेक्षा की है। उत्तर प्रदेश नेहरू-गांधी परिवार का गृह-प्रदेश और राष्ट्रीय
राजनीति का सिंहद्वार है। खुदा न खास्ता मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त’ अभियान सफल हुआ तो उसमें सबसे बड़ी भूमिका उत्तर
प्रदेश की होगी। और यदि वापसी हुई तो वह उत्तर प्रदेश के बूते पर ही सम्भव है।
गुलाम नबी आजाद
का कहना है कि मुझे चौथी बार कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया
है। उन्हें पहली बार 1987 में राजीव गांधी ने उत्तर प्रदेश भेजा था, जब वीपी सिंह,
अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खां वगैरह पार्टी छोड़कर चले गए थे। उस वक्त कांग्रेस
ने प्रदेश में तकरीबन 1000 रैलियाँ की थीं। पर तब और अब में काफी अंतर है। तब
कांग्रेस का पराभव शुरू हुआ था। आज पार्टी पूरी तरह ढेर है। पूछ सकते हैं कि क्या
गुलाम नबी उसमें जान डाल पाएंगे? गुलाम नबी कहते हैं कि मुझे तीन काम फिलहाल जरूरी लगते हैं। एक, पार्टी संगठन
को एकताबद्ध करके मजबूत करना। दूसरे, ऐसा माहौल बनाना जिससे हमें सफलता मिले। पर
वे एक महत्वपूर्ण बात और कहते हैं। उत्तर प्रदेश का वोटर जातीय राजनीति से ऊब चुका
है। वह बीजेपी से भी डरा हुआ है। ऐसे में कांग्रेस को समाज को जोड़ने वाली पार्टी
के रूप में पेश किया जा सकता है।
पार्टी का मतिभ्रम
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस भ्रम की स्थिति में है। कुछ समय पहले राहुल गांधी
ने प्रशांत किशोर को चुनाव की बागडोर सौंप दी। वे छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन
बनाने लगे। बिहार की तर्ज पर ‘महागठबंधन’ की कल्पना होने लगी।
रणनीतिक परिकल्पना से ज्यादा पार्टी के भीतर असंतोष के स्वर फूटने लगे। फिलहाल गुलाम
नबी के आने से कार्यकर्ता का आत्मविश्वास वापस होगा। प्रशांत किशोर की भूमिका क्या
होगी, अभी स्पष्ट नहीं है, पर फिलहाल मुख्य रणनीतिकार के रूप में तो वे नहीं रहेंगे।
राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस नरेन्द्र मोदी की काट के लिए जनता परिवार के
साथ एकजुटता दिखा रही है। बिहार के चुनाव में इस एकजुटता को सफलता भी मिली। पर
पार्टी ने असम में उस प्रयोग को दोहराना नहीं चाहा। पार्टी का अनुमान है कि वहाँ
एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन का लाभ हमें नहीं मिलता और शायद हम तीसरे स्थान पर चले
जाते। कुछ महीने पहले तक पार्टी उत्तर प्रदेश में भी छोटे स्तर पर गठबंधन की कोशिश
कर रही थी।
राहुल गांधी ने जब प्रशांत किशोर को रणनीतिकार के रूप में नियुक्त किया तो
अनुमान था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन बनाएगी। उधर
नीतीश कुमार की पहल पर कुछ पार्टियों के विलय से एक नई पार्टी को बनाने की खबरें
भी थीं। पर राजनीति कांग्रेस की कांग्रेस के लिए क्या प्रासंगिकता थी? कांग्रेस ने महान दल
और पीस पार्टी वगैरह से सम्पर्क किया। इनके सहारे क्या उत्तर प्रदेश में महागठबंधन
जैसा बन सकता?
गुलाम नबी के आने के बाद गठबंधन को लेकर रणनीति में बदलाव भी आना चाहिए। उनका कहना
है कि अभी हमें गठबंधन की कोई जानकारी नहीं। बिहार में हुआ गठबंधन
सफल रहा, लेकिन बिहार और यूपी में राजनीतिक
हालात अलग-अलग हैं। बहरहाल उन्होंने वही किया जो करना चाहिए। सबसे पहले प्रदेश,
जिला और नगर कांग्रेस अध्यक्षों और अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ बातचीत की पहल की
है।
प्रियंका लाओ...
गुलाम नबी चाहते हैं कि चाहते हैं कि राज्य में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी
को घोषित किया जाए। पार्टी काफी समय से ब्राह्मण चेहरे को आगे लाने की माँग रही
है। एक बार खबर उड़ी थी कि राहुल गांधी को आगे किया जा सकता है, पर चूंकि पार्टी
अब राहुल को राष्ट्रीय कमान देने जा रही है, इसलिए लगता नहीं कि उन्हें उत्तर
प्रदेश के नेता के रूप में पेश करने की जरूरत समझ में नहीं आती। प्रियंका गांधी का
नाम भी लिया जा रहा है।
गुलाम नबी ने हाल में एक अख़बार से कहा कि पार्टी के भीतर जोरदार माँग है कि
प्रियंका को राहुल के साथ काम करने के लिए आगे लाया जाए। क्या यह बात कारगर होगी? उधर बीजेपी ने रॉबर्ट वाड्रा पर
हमले फिर से तेज कर दिए हैं। सवाल यह भी है कि क्या प्रियंका खुद इसके लिए तैयार
हैं? अभी पार्टी संगठन में
काफी फेर-बदल की सम्भावनाएं हैं।
बतौर महासचिव गुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस के सबसे कामयाब नेता रहे हैं। पर वे
यूपी में कामयाब नहीं रहे हैं। इसकी वजह गुलाम नबी में नहीं प्रदेश की
परिस्थितियों में है। नब्बे के शुरुआती दशक में ही पार्टी ने उत्तर प्रदेश की जमीन
मुलायम सिंह यादव को सौंप दी थी। उसके बाद से वह यहाँ कभी नहीं पनपी। अलबत्ता सन
2009 के लोकसभा चुनाव में ऐसा लगा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को वापस लाने का
माद्दा है। उस चुनाव में पार्टी को लोकसभा की 80 में से 22 सीटें मिलीं। उससे
ज्यादा महत्वपूर्ण था 18.25 फीसदी वोटों का मिलना। यह वह बिन्दु था जिसका कांग्रेस
को विश्लेषण करना चाहिए।
2009 की सफलता
वह चुनाव हाल के वर्षों में कांग्रेस की सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है। वह
सफलता यूपीए-1 के आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक न्याय की मिली-जुली सफलता की देन थी।
उसे मनमोहन सरकार की सफलता भी माना जा सकता है। पर कांग्रेस ने उसे राहुल गांधी की
सफलता के रूप में ही प्रचारित किया। सच है कि राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश को काफी
समय दिया। पर लोकसभा चुनाव की सफलता की तार्किक परिणति तभी होती, जब 2012 के चुनाव
में पार्टी विधानसभा चुनाव जीत कर दिखाती। ऐसा हुआ नहीं।
राहुल गांधी अपनी सफलता को कायम नहीं रख पाए। सन 2009 से 2012 तक नरेन्द्र
मोदी का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर नहीं था। और कांग्रेस भ्रष्टाचार के उन
आरोपों से इस हद तक नहीं घिरी थी कि वह जीत नहीं पाती। उस दौरान पार्टी ने
कर्नाटक, उत्तराखंड और हिमाचल में चुनाव जीते ही थे। पार्टी ने उत्तर प्रदेश में
अपनी ताकत को नहीं पहचाना और स्थानीय कार्यकर्ता और संगठन की उपेक्षा की। गुलाम
नबी आजाद इस बात को बेहतर समझेंगे। पर वे जिस मौके पर उत्तर प्रदेश में आए हैं, वह
माकूल नहीं है। कांग्रेस ने काफी देर कर दी है। गुलाम नबी ने कहा भी है कि यूपी में
लड़ाई जीतने के लिए अब उनके पास सिर्फ तीनेक महीने का वक़्त है। उन्हें याद दिलाया
गया कि चुनाव तो मार्च-अप्रैल में होंगे। उन्होंने कहा, तीन महीने तो बरसात में ही
निकल जाएंगे।
क्षेत्रीय क्षत्रप नहीं
कांग्रेस के पास
क्षेत्रीय क्षत्रप हैं ही नहीं, जबकि राजनीति अब क्षेत्रीय आधारों पर सिमट रही है।
पार्टी को हर हाल में नया चेहरा चाहिए। राहुल गांधी अब सफलता का चेहरा नहीं हैं।
सन 2014 के चुनाव के बाद से वे विफलता के प्रतीक बन
चुके हैं। प्रियंका को केवल आगे रखने से काम नहीं होगा। उन्हें प्रदेश की जनता के
बीच जाना होगा और प्रदेश को पूरा समय देना होगा। प्रियंका-फैक्टर बहुत काम का
साबित नहीं होगा। पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर नहीं तो राज्य स्तर पर परिवार से
बाहर के नेताओं को भी तैयार करना चाहिए। कांग्रेस पर खानदान की राजनीति का जो दोष
लगा है उसे भी दूर करना चाहिए।
पार्टी के पास
राज्यों में जो नेता थे, वे धीरे-धीरे साथ छोड़ रहे हैं, जैसे डूबते जहाज से चूहे
भागते हैं। अजीत जोगी और गुरुदास कामत का नाम हाल में जुड़ा है। असम में हिमंत
विश्व सरमा पार्टी छोड़कर क्यों गए? उत्तराखंड में विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत का हटना अशनि संकेत है।
त्रिपुरा में दस में से छह विधायक पार्टी छोड़ गए। क्यों? तमाम राज्यों से बगावत
की खबरें हैं। इन पलायनों पर पार्टी की प्रतिक्रिया आती है कि अच्छा हुआ कि ये लोग
पार्टी छोड़ गए। हाल में राज्यसभा के
चुनावों में क्रॉस वोटिंग से भी पार्टी की दुर्दशा उजागर हुई है। बहरहाल यह
दीर्घकालीन निदान है। फिलहाल पार्टी को उत्तर प्रदेश को एक नया नेता देना होगा।
देश में वोट बैंक की राजनीति कांग्रेस की देन है। आज वह उसकी ही शिकार है। अब
वह विकल्प में जाति और धर्म की राजनीति से बाहर निकलना चाहती है। सच यह है कि
उत्तर प्रदेश की जनता भी यही चाहती है, पर क्या कांग्रेस बेहतर गवर्नेंस और विकास
का संदेश लेकर आई है? कर्नाटक, हिमाचल और
उत्तराखंड से ऐसा कोई मॉडल क्यों नहीं पेश किया जा सकता, जो जनता को समझ में आए। पर
लगता है कि कांग्रेस ने पराजय का मन बना लिया है।
उत्तर
प्रदेश विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस का पराभव
वर्ष
|
सीटें
|
वोट %
|
|
1985
|
269
|
39.25
|
|
1989
|
094
|
27.90
|
|
1991
|
046
|
17.32
|
|
1996
|
028
|
15.08
|
बसपा से गठबंधन
|
2002
|
025
|
08.96
|
|
2007
|
022
|
08.61
|
|
2012
|
028
|
11.65
|
|
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