भारतीय जनता पार्टी का फिलहाल सबसे बड़ा एजेंडा है ‘पैन-इंडिया इमेज’ बनाना। उसे साबित करना है कि वह
केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं है। पूरे भारत की धड़कनों को समझती है। हाल के घटनाक्रम ने उम्मीदों को काफी बढ़ाया है। एक
तरफ उसे असम की जीत से हौसला मिला है, वहीं मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस गहराती
घटाओं से घिरी है। भाजपा के बढ़ते आत्मविश्वास की झलक इलाहाबाद में हुई राष्ट्रीय
कार्यकारिणी की बैठक में देखने को मिली, जहाँ एक राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि
अब देश में केवल बीजेपी ही राष्ट्रीय आधार वाली पार्टी है। वह तमाम राज्यों में
स्वाभाविक सत्तारूढ़ पार्टी है। कांग्रेस दिन-ब-दिन सिकुड़ रही है। शेष दलों की
पहुँच केवल राज्यों तक सीमित है।
रोचक है वह राजनीतिक
प्रस्ताव जिसमें कार्यकर्ताओं से कहा गया है कि वे समाज के ‘सभी वर्गों’ का समर्थन हासिल करें। देखना होगा कि आने वाले विधान सभा
चुनाव में पार्टी उत्तर प्रदेश में हिन्दू कार्ड खेलेगी तो सभी का समर्थन कैसे
हासिल होगा। कार्यकारिणी की बैठक पर ध्यान दें तो लगता है कि बीजेपी हिन्दू कार्ड
का सीमित इस्तेमाल ही करेगी, क्योंकि फिलहाल पार्टी ने जो नारा स्वीकार किया है वह
कहता है ‘यह देश बदल रहा है।’ बदलाव और विकास अब भी मोदी का
सूत्र है। और विस्तार की मनोकामना उसे संकीर्णता से बाहर निकलने को विवश कर रही
है। फिलहाल पार्टी अंतर्विरोध की शिकार नजर आती है। मोदी विकास की बात कर रहे हैं और अमित शाह 'विचारधारा' की। दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं माना जा सकता। दीर्घकाल में एक ही पहलू प्रभावी होगा।
पार्टी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह लेना। इसीलिए मोदी बार-बार
कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं। पर इसके पहले पार्टी ने यह स्पष्ट नहीं किया
था कि ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत से उसका आशय क्या है। इस बार
कार्यकारिणी ने अलग से एक प्रस्ताव पास किया है, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि
पार्टी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ से आशय क्या है। इसके अनुसार पार्टी का लक्ष्य कांग्रेस को केवल चुनाव में
हराना ही नहीं है, बल्कि इसका मतलब है ‘कांग्रेस ब्रांड’ की राजनीति से मुक्ति। कांग्रेस ब्रांड मतलब भ्रष्टाचार, भाई-भतीजाबाद और
वंशवाद।
उसे कांग्रेस की जगह लेनी है तो खुद भी कांग्रेस बनना पड़ेगा। सांस्कृतिक
बहुलता, सहभागिता, समावेशन और व्यापक जनाधार को अपनाना होगा। बीजेपी कभी उत्तर
भारत के व्यापारियों का पार्टी जाती थी। प्रभाव बढ़ा तो जनाधार भी बढ़ा। उसके
कार्यकर्ताओं में ओबीसी और दलित वर्ग का प्रवेश भी हुआ। आज समाजवादी पार्टी के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा ओबीसी वोट बीजेपी को जाता
है। अब जब पार्टी केवल ‘हिन्दी इलाके की पार्टी’ की छवि से बाहर निकल कर अखिल भारतीय पार्टी बनना चाहती है तो उसे अपने
सामाजिक आधार के बारे में फिर से सोचना होगा। आर्थिक वर्ग के रूप में उसे गरीब के
बारे में भी सोचना होगा। उसे मध्यवर्गीय नारों और गरीब की चेतना दोनों के बीच
समन्वय के बारे में सोचना होगा।
पार्टी नए इलाकों में जाने के साथ नए वोट बैंक को तलाश रही है। असम में पार्टी
अपने परम्परागत काडर की मदद से नहीं जीती, बल्कि उसे ऐसे नेताओं का साथ मिला जो
बुनियादी रूप से संघ से नहीं आए हैं। उसे जनजातीय इलाकों का और एक हद तक मुसलमानों
का वोट भी मिला है। पाँच राज्यों में हाल में हुए चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन
के बाद अब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड,
पंजाब, गोवा और मणिपुर में पार्टी की असली परीक्षा होगी। खासतौर से उत्तर प्रदेश
का परिणाम 2019 के लोकसभा चुनाव का संकेतक भी होगा। असम की जीत के बाद पार्टी
पूर्वोत्तर में अपने पैर पसारना चाहती है, जहाँ की सामाजिक संरचना एकदम फर्क है। वह
केरल, बंगाल और तमिलनाडु में अपने बढ़ते जनाधार को पुष्ट करना चाहती है। इन इलाकों
की राजनीति भी हिन्दी पट्टी से अलग है।
कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद
में रखने का उद्देश्य अगले साल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की भूमिका तैयार
करना था। बैठक के राजनीतिक और आर्थिक प्रस्तावों का सार नरेन्द्र मोदी के भाषण में
देखा जा सकता है। मोदी ने उत्तर प्रदेश की जनता से अपील की है कि वह बसपा और सपा
की जुगलबंदी से बाहर निकले। साथ ही उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा
है कि वे नारेबाजी के बाहर आएं। अब नारेबाजी का वक्त नहीं रहा। यह महत्वपूर्ण
संदेश है।
केंद्र में सरकार दो साल
पूरे कर चुकी है और अब उसे कार्यों से जनता को परिचित कराना होगा। मोदी ने रविवार
को दो बैठकों को सम्बोधित किया। परिवर्तन रैली के भाषण से ज्यादा महत्वपूर्ण
कार्यकारिणी में दिया गया उनका भाषण था, जिसमें उन्होंने अपनी उम्मीदों के साथ
अंदेशों का जिक्र भी किया। इसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश में पार्टी नेतृत्व की
एकता के सामने खड़ी दिक्कतों की और इशारा किया। इसमें दो राय नहीं कि पार्टी पूरी
तरह ‘मोदीमय’ है। इसके फायदे हैं और नुकसान भी।
ताकतवर नेता पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करने में मददगार है। पर इस बात का मेल आंतरिक
लोकतंत्र से होना चाहिए।
नरेन्द्र मोदी को
प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के समय से पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेताओं के
साथ जो खलिश पैदा हुई थी, उसे कम करने की जरूरत भी है। पार्टी के राजनीतिक
प्रस्ताव में देश को महाशक्ति बनाने का संकल्प किया गया है। साथ ही यह भी कहा गया
है कि पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण
आडवाणी के सपनों को पूरा करने के लिए काम करेगी।
सही आकलन , ऐसा कुछ करना समय की मांग है जब कि देश की राजनीति करवट बदल रही है
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