इस साल यदि एनएसजी की एक और बैठक होने वाली है, तो इसका मतलब यह हुआ कि भारत की सदस्यता का मामला रंग पकड़ रहा है। बैठक नहीं भी हो तब भी कमसे कम इतना हुआ कि एनएसजी ने अनौपचारिक रूप से इस बात को आगे बढ़ाने के लिए अर्जेंटीना के राजदूत राफेल गोसी को अपना प्रतिनिधि नियु्क्त किया है। इस प्रकार के समूहों में सदस्यता पाना इतना सरल नहीं है, जितना हम मानकर चल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह समूह भारत के पहले अणु विस्फोट की प्रतिक्रिया में ही बना था। फिर भी यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार ने इसका जितना प्रचार किया, उसे देखते हुए लगता है कि भारत की कोई बड़ी हार हो गई है। जबकि ऐसा कुछ है नहीं।
मोदी सरकार की सबसे
बड़ी उपलब्धि विदेश नीति को लेकर मानी जाती है। पिछले दो साल में भारत ने विश्व के
महत्वपूर्ण देशों के साथ रिश्ते बढ़ाए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि भारत की वैश्विक
उपस्थिति काफी तेजी से बढ़ रही है और आने वाले समय में दुनिया की राजनीति में भारत
और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाएगा। सन 2005 के बाद से भारत और अमेरिका के रिश्तों में
नाटकीय बदलाव आया है। सन 2008 के भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील के बाद इस गर्मजोशी
को काफी बढ़ावा मिला, पर कुछ समय गुजर जाने के बाद यह गरमाहट कम हो गई। खासतौर से
न्यूक्लियर डील अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँच पाया।
सन 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से इन रिश्तों में फिर से जान पड़ी।
सितम्बर 2014 में मोदी की अमेरिका यात्रा और उसके बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा की दो
बार भारत यात्राओं से फिज़ां बदल गई। सितम्बर 2014 में मोदी ने अमेरिका जाने के ठीक पहले ‘वॉल स्ट्रीट जनरल’ के लिए खासतौर से लिखे गए लेख में उन्होंने अपने सपनों के भारत का खाका
खींचा और साथ ही अमेरिका समेत दुनिया को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है।
उन्होंने लिखा है, ‘कहते हैं ना काम को सही करना उतना ही महत्वपूर्ण
है, जितना सही काम करना।’ अमेरिका रवाना होने के ठीक पहले दिल्ली में
और दुनिया के अनेक देशों में एक साथ शुरू हुए ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की उन्होंने तभी शुरुआत की थी। इस अभियान के ठीक एक दिन पहले भारत
के वैज्ञानिकों ने मंगलयान अभियान के सफल होने की घोषणा की।
वह दौर नरेंद्र मोदी
के जीवन में ‘ग्लोबल
कनेक्ट’ के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण रहा। पहले जापान, फिर
चीन और उसके बाद अमेरिकी सरकार से रूबरू होकर उन्होंने ‘वैश्विक
मंच पर नए भारत के आगमन’ की घोषणा की। मोदी के मुहावरे सारी
दुनिया की जुबान पर हैं। उन्होंने एफडीआई की नई परिभाषा दी है, ‘फर्स्ट डेवलप इंडिया।’ उनके ‘मेक
इन इंडिया’ नारे से चीनी राजनेता इतने प्रभावित हुए हैं कि
उन्होंने ‘मेड इन चाइना’ का नारा
अपनाने का फैसला किया है। आर्थिक पहल के समांतर सामरिक पहल भी चलती रही है। मोदी
की नवीनतम अमेरिका यात्रा के दौरान अमेरिका ने भारत को अपना नजदीकी सामरिक भागीदार
भी घोषित किया है।
सन 2008 के
न्यूक्लियर डील के बाद अमेरिका ने भारत को चार महत्वपूर्ण ग्रुपों का सदस्य बनवाने
का वादा किया था। ये हैं, न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा
ऑस्ट्रेलिया ग्रुप। ये चारों समूह सामरिक-तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से
महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की
स्थायी सदस्यता दिलाने के लिए पूरा समर्थन देने का वादा किया है। पिछले छह साल से
अमेरिका की यह सुस्पष्ट नीति है। नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा
ने भारत यात्रा के दौरान पहली बार यह बात कही थी।
इस यात्रा के
दौरान यह स्पष्ट हो गया कि भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम (एमटीसीआर) का
सदस्य बन जाएगा। न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनने की प्रक्रिया चल रही
है, पर उसमें चीन ने अड़ंगा लगा दिया है। पिछले दो साल में पहली बार ऐसा लगा कि
भारतीय डिप्लोमेसी को पराजय का मुँह देखना पड़ा है। न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की
सोल में हुई बैठक में चीन के प्रतिरोध के कारण भारत की सदस्यता की अर्जी फिलहाल
मंजूर नहीं हुई। हालांकि ग्रुप ने इस विषय पर बातचीत जारी रखने का फैसला किया है। वस्तुतः
इस घटनाक्रम से भारत को ही नहीं अमेरिकी राजनय को भी धक्का लगा है।
सोल की बैठक के
कुछ घंटे बाद ही अमेरिका ने कहा कि भारत के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी)
का एक पूर्ण सदस्य बनने का ‘आगे का एक रास्ता’ साल के अंत तक है। ओबामा प्रशासन के
एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, हमारे सामने इस साल के अंत तक आगे का एक रास्ता है। अमेरिका
के लिए यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राष्ट्रपति बराक ओबामा की इच्छा
है कि इस साल के अंत में उनका कार्यकाल खत्म होने तक भारत पेरिस में हुए पर्यावरण
समझौते की पुष्टि कर दे। हालांकि अब यह काम मुश्किल लग रहा है।
एनएसजी में भारत
की सदस्यता हो या न हो, इससे खास असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि इस समूह ने परमाणु
तकनीक के आदान-प्रदान के सिलसिले में भारत पर लगी पाबंदियाँ सन 2008 में हटा ली थीं।
इसी वजह से भारत ने अमेरिका के अलावा रूस, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों के
साथ नाभिकीय ऊर्जा के समझौते किए हैं। फिर भी यह समझना जरूरी है कि एनएसजी क्या है
और भारत इसमें सदस्यता क्यों चाहता है। एनएसजी की स्थापना मई 1974 में भारत के
परमाणु परीक्षण के बाद की गई थी और इसकी पहली बैठक नवंबर 1975 में हुई।
भारत के परमाणु
परीक्षणों से साबित हुआ कि कुछ देश, जिनके बारे में माना जाता था कि उनके पास परमाणु हथियार
बनाने की तकनीक नहीं है, वे इसे बनाने के
रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। एनएसजी ऐसे देशों का समूह है, जिनका लक्ष्य परमाणु हथियारों और उनके उत्पादन
में इस्तेमाल हो सकने वाली तकनीक, उपकरण, सामान के प्रसार को रोकना या कम करना है। इस
समूह में 48 देश शामिल हैं। इस संगठन में सर्वसम्मति से फ़ैसला होता है। सभी फ़ैसले एनएसजी की महासभा में
होते हैं। हर साल इसकी एक बैठक होती है।
एक सवाल यह है कि
चीन इस वक्त भारत का विरोध क्यों कर रहा है? वस्तुतः सन 2008 में जब भारत को एनएसजी से छूट दी जा
रही थी, तब भी चीन तैयार नहीं था। पर उस वक्त अमेरिकी दबाव में वह अकेला पड़ गया
था। उस समय चीन ने भारत के खिलाफ सीधे खड़े होने का विचार नहीं किया था। पिछले आठ
साल में चीन और पाकिस्तान के रिश्तों में काफी बदलाव आया है। यह पहला मौका है, जब
चीन ने इतना खुलकर भारत का विरोध किया है। सोल से मिली खबरें बता रहीं हैं कि
एनएसजी की बैठक में चीन सहित लगभग एक दर्जन देशों ने भारत की सदस्यता का विरोध
किया था। हालांकि चीन जो बात कह रहा था, वही बात ब्राजील, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड
और न्यूजीलैंड जैसे देश नहीं कह रहे थे, पर इसका निष्कर्ष यही है कि ग्रुप के एक
चौथाई देशों के मन में भारत को लेकर सवाल हैं। क्या यह हमारी विदेश-नीति की विफलता
है?
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भारत ने चीनी विरोध की ताकत का सही अनुमान नहीं
लगाया। दूसरे बगैर किसी खास तैयारी के हम केवल अमेरिका के भरोसे बैठ गए। भारत ने पिछले छह महीनों
में तेज़ी दिखाई ज़रूर लेकिन फिर भी तैयारियों में कमी रही है। और इस बार अमेरिका ने
भी भारत के पक्ष में माहौल बनाने की उतनी कोशिश नहीं की जितनी भारत को उम्मीद थी।
हालांकि चीन और
भारत के रिश्ते बहुत अच्छे तो कभी नहीं रहे, पर हाल में दक्षिण चीन सागर के
घटनाक्रम और जापान के साथ रिश्तों में सुधार के बाद और बिगड़े हैं। फिलीपींस और
वियतनाम को भारत युद्धपोत और मिसाइलें देने जा रहा है। इसके अलावा वह दक्षिण चीन
सागर में वियतनाम के लिए तेल की खोज कर रहा है। भारत ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक
कॉरिडोर को लेकर भी अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। उधर चीन की कोशिश है कि भारत के
अंतरराष्ट्रीय रसूख को बढ़ने से रोका जाए। वह हमें पाकिस्तान की बराबरी पर रखना
चाहता है।
चीन ने पाकिस्तान
को अपना ‘अकेला मित्र’ देश घोषित किया है। पाकिस्तान के
साथ उसकी दोस्ती के अनेक कारण हैं। एक तो पाकिस्तान ने अक्साईचिन चिन का काफी बड़ा
इलाका चीन को सौंप रखा है। दूसरे, वह चीन को अपने देश के रास्ते से होकर अरब सागर
तक का रास्ता दे रहा है। तीसरे चीन के शेनजियांग इलाके में इस्लामिक वीगुर
विद्रोहियों को काबू में रखने में पाकिस्तान मददगार साबित हो रहा है। चौथे अमेरिका
की कोशिश है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीनी ताकत को रोकने का काम भारत करे। यह
बात चीन को पसंद नहीं है। यों भी भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर विवाद हैं।
बहरहाल एनएसजी में भारत और चीन का जो सीधा मुकाबला हुआ है, वह अब
अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में दूसरे मंचों पर भी दिखाई पड़ेगा। संयोग है कि जिस वक्त
सोल में बैठक चल रही थी उसी समय भारत शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बनने की तैयारी
कर रहा था। यह संगठन रूस और चीन के नेतृत्व में खड़ा हुआ है। आने वाले समय में
प्रतिद्वंद्विता केवल सामरिक नहीं होगी, बल्कि आर्थिक होगी। एनएसजी में भारत को
सदस्यता मिले या न मिले इससे फर्क नहीं पड़ता। असल बात है अपने आर्थिक और सामरिक
महत्व को समझने की। हमारा बढ़ता रसूख अपने आप समस्याओं के समाधान करेगा।
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