कांग्रेस के पास अब
कोई विकल्प नहीं है। राहुल गांधी की सफलता या विफलता भविष्य की बात है, पर उन्हें अध्यक्ष बनाने के
अलावा पार्टी के पास कोई रास्ता नहीं बचा। सात साल से ज्यादा समय से पार्टी उनके
नाम की माला जप रही है। अब जितनी देरी होगी उतना ही पार्टी का नुकसान होगा। हाल के
चुनावों में असम और केरल हाथ से निकल जाने के बाद ‘डबल’ नेतृत्व से चमत्कार की उम्मीद करना बेकार है। सोनिया गांधी
अनिश्चित काल तक कमान नहीं सम्हाल पाएंगी। राहुल गांधी के पास पूरी कमान होनी ही चाहिए।
राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद अब प्रियंका गांधी को
लाने की माँग भी नहीं उठेगी। शक्ति के दो केन्द्रों का संशय नहीं होगा। कांग्रेस
अब ‘बाउंसबैक’ करे तो श्रेय राहुल को और
डूबी तो उनका ही नाम होगा। हालांकि कांग्रेस की परम्परा है कि विजय का श्रेय
नेतृत्व को मिलता है और पराजय की आँच उसपर पड़ने से रोकी जाती है। सन 2009 की जीत
का श्रेय मनमोहन सिंह के बजाय राहुल को दिया गया और 2014 की पराजय की जिम्मेदारी
सरकार पर डाली गई।
बहरहाल अभी तमाम
बातें साफ होंगी। कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों की औसत आयु इस समय 67 साल है। इसमें
मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, एके एंटनी, मोतीलाल बोरा, अहमद पटेल और जनार्दन
द्विवेदी जैसे वरिष्ठ नेता सदस्य हैं। राहुल गांधी इनमें सबसे युवा हैं, जो इस
महीने 46 साल के पूरे हो जाएंगे। राहुल गांधी की टीम में युवा सदस्यों की संख्या
बढ़नी चाहिए। उम्मीद यह भी करनी चाहिए कि राज्यों से निकल कर कुछ नए नेता दिल्ली
की राजनीति में आएं। ऐसा नहीं हुआ तो बदलाव दिखाई नहीं पड़ेगा। कांग्रेस के सामने
तीन कारणों से चुनौती भारी है-
·
इंदिरा गांधी की तरह राहुल करिश्माई नेता नहीं हैं और
न पार्टी के पास ‘गरीबी हटाओ’ जैसा कोई जादुई नारा है।
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इसके पहले 1977, 1989 और 1996 में कांग्रेस की ताकत
लोकसभा में कम होने के बावजूद राज्यों की विधानसभाओं में आज जैसी स्थिति नहीं थी।
·
उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारतीय जनता
पार्टी इतनी ताकतवर पहले कभी नहीं थी। सन 2004 में भी नहीं।
इस वक्त पार्टी परास्त और हताश है। उसे उत्साहित करने वाले मौके की तलाश है।
इसके साथ ही उसके आंतरिक लोकतंत्र की दशा को भी देखना और समझना होगा। भाजपा को कोसना
अपनी जगह है, पर अरुणाचल में बगावत की जिम्मेदारी पार्टी के नेतृत्व पर जाती है।
उत्तराखंड में 10 विधायकों ने पार्टी से बगावत की है, जिसमें एक पूर्व मुख्यमंत्री
हैं। हिमाचल और मेघालय से भी बगावत की खबरें हैं। कर्नाटक में भी पार्टी
अनुशासनहीनता की शिकार है। बताया जाता है कि असम में हिमंत बिश्व सरमा ने पार्टी
इसलिए छोड़ी क्योंकि राहुल गांधी ने उनकी बात को नहीं सुना। भाजपा इन बातों का
फायदा न उठाती तो करती क्या?
राहुल गांधी आदर्शों में जीते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने घोषणा
की थी कि प्रत्याशियों का चयन स्थानीय कार्यकर्ताओं से पूछकर किया जाएगा। उन्होंने
आम आदमी पार्टी से सीख लेकर ‘प्राइमरीज’ का प्रयोग भी कर लिया। पर यह सब अव्यावहारिक साबित हुआ। राहुल
प्रत्याशियों को थोपने के खिलाफ थे,
पर चुनाव के ठीक पहले तमाम प्रत्याशी पैराशूट से
उतारे गए।
सन 2014 में लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त हार के बाद जब कांग्रेस कार्यसमिति की
बैठक हुई तब उम्मीद थी कि बड़े फैसले हो जाएंगे। ऐसा हुआ नहीं। पार्टी ने चुनाव
में हार के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं माना। बैठक में कहा गया कि पार्टी
‘बाउंसबैक’ करेगी। पर इसके लिए पिछले दो साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे याद रखा
जाए। सिवा इसके कि पार्टी ने अकेले चलने के बजाय मोदी और बीजेपी विरोधी ताकतों के
साथ खड़े होने का फैसला किया है। यह उसकी मजबूरी है। पिछले साल सोनिया गांधी ने तीन
या चार बार सड़क पर उतर कर आंदोलनों का संचालन किया। पर राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी
की अपील घटती जा रही है।
दो साल पहले कांग्रेस
संसदीय दल ने सोनिया गांधी को जब अपना अध्यक्ष चुना तब सबको लगा कि स्वाभाविक रूप
से लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व राहुल गांधी करेंगे। शायद वे संसद के मंच का इस्तेमाल करें, जहाँ से
उनकी बात दूर तक सुनी जा सकेगी। ऐसा हुआ नहीं। लोकसभा की कमान मल्लिकार्जुन खड़गे
को सौंपी गई। पार्टी ने राज्यसभा में कुछ सरकारी विधेयकों को रोकने के अलावा ऐसा
कोई काम नहीं किया जिसे याद रखा जाए।
कांग्रेस का नकारात्मक पहलू यह नहीं है कि वह खानदानी पार्टी है। पार्टी
कार्यकर्ता को यह मंजूर है तो ठीक। वह मानता है कि सिर्फ ‘परिवार’ ही पार्टी को जोड़कर रख सकता है। वामपंथी दलों और
केन्द्र में भाजपा को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर दल खानदानी हैं। सवाल खानदान का
नहीं, बल्कि इस बात का है कि क्या राहुल इस काम को कर पाएंगे? क्या कार्यकर्ता के मन में यह भरोसा पैदा होगा कि पार्टी की
नैया को वापस लाने का माद्दा राहुल गांधी में है?
हाल में पांच
राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद दिग्विजय सिंह ने अपने एक ट्वीट में कहा कि
बड़ी सर्जरी की जरूरत है। दिग्विजय सिंह ने बाद में अपने बयान की सफाई में जो कुछ
कहा उससे बातें और जटिल हो गईं। अखबारों में उनका यह बयान भी छपा है ये चुनाव
परिणाम पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की विफलता को परिलक्षित नहीं करते। तब किसकी
विफलता को परिलक्षित करते हैं? और दिग्विजय सिंह जिस सर्जरी का सुझाव दे रहे
हैं उसका मतलब क्या है?
सच
यह है कि पार्टी ने 2014 की हार को गम्भीरता से नहीं लिया। उसे लेकर उस स्तर का
अंतर्मंथन तक नहीं किया गया, जिसकी दरकार थी। हाल में दिग्विजय सिंह
ने बताया कि लोकसभा चुनाव में
भारी हार के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के सीनियर नेताओं से कहा कि वे अपनी
रिपोर्ट बनाकर दें कि अब क्या किया जाए। रिपोर्ट देने की आखिरी तारीख थी 20 फरवरी 2015।
जून 2016 तक पार्टी ने जो किया वह हमारे सामने है। भले
ही राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष नहीं थे, पर वास्तविक नेता तो वही हैं।
फिलहाल कांग्रेस
के सामने चार चुनौतियाँ हैं। ये हैं, लगातार होती पराजय को रोकना, संगठन के भीतर
बढ़ते लतिहाव पर काबू पाना, राहुल गांधी के नेतृत्व को मजबूत करना और पार्टी को
नया वैचारिक आधार प्रदान करना। पिछले दो साल में पार्टी को हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर,
असम और केरल में हार का मुँह देखना पड़ा है। उसे अकेली जीत अरुणाचल में मिली थी, जहाँ पार्टी में हुई बगावत के बाद वह सरकार भी हाथ से गई। और
अब पुदुच्चेरी में पार्टी जीती है। अब कांग्रेस के पास कर्नाटक ही बड़ा राज्य बचा
है। शेष हैं उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और पुदुच्चेरी का केन्द्र शासित क्षेत्र।
पिछले साल 56 दिन
के प्रवास के बाद राहुल गांधी की वापसी के समय पार्टी में उत्साह था। उसके बाद
संसद के मॉनसून सत्र में कांग्रेस ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। उससे ऐसा लगा
कि शायद कांग्रेस संसद में अपनी भूमिका को बढ़ाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस ने
भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन और जीएसटी कानून को रोककर राज्यसभा में अपने
संख्याबल का परिचय जरूर दिया, पर यह सकारात्मक भूमिका
नहीं थी। इससे वोटर के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं गया। सन 1991 में उदारीकरण की
शुरूआत करने वाली पार्टी ने सन 2004 में वाममोर्चे की मदद से यूपीए-1 बनाया और
नीतियों को बाएं बाजू मोड़ा। वह वामपंथी है और दक्षिणपंथी भी।
अमेरिका के साथ
न्यूक्लियर डील के कारण यूपीए-1 टूटा। उम्मीद थी कि यूपीए-2 उदारीकरण से जुड़े
अधूरे काम पूरे कर लेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस वैचारिक रूप से देश के गरीबों
और मध्यवर्ग के बीच के अंतर्विरोधों को सुलझाने में नाकामयाब रही। उसके पास ‘साम्प्रदायिकता-विरोध’ के अलावा ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है जो
उसे लोकप्रिय बना सके।
राहुल गांधी ने 2014 में पार्टी के महासचिवों से कहा था कि वे कार्यकर्ताओं से
सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी
जा रही है। लोकसभा चुनाव के बाद एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा
था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली अपनी छवि
को सुधारना होगा। पार्टी का सामाजिक आधार कभी दलित, मुसलमानों और ब्राह्मण होते
थे। उसके इस सामाजिक आधार को दूसरी पार्टियाँ ले उड़ीं। और अब कांग्रेस उन
पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने की बात कर रही है, जिनके जन्म का आधार ही
कांग्रेस-विरोध पर टिका था।
कांग्रेस अब
क्षेत्रीय पार्टी के रूप में भी नहीं बची है। उसका आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु और बंगाल से
सफाया हो चुका है। असम में उसका वोट-आधार है, पर उसने भाजपा के लिए पूर्वोत्तर का
दरवाजा खुलने दिया है। कई राज्यों में पार्टी दूसरे नम्बर पर भी नहीं है। पार्टी
अब क्षेत्रीय दलों का मुँह देख रही है।
कांग्रेस संकट
में होती है तो वह सोचना शुरू करती है। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण
के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई
पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 का शिमला शिविर
गठबंधन की राजनीति की स्वीकृति के रूप में था। नवीनतम शिविर जनवरी 2013 का जयपुर
चिंतन शिविर था, जिसमें राहुल गांधी के आरोहण की कामना की गई थी। पार्टी ने अपने
उस संकल्प को पूरा कर लिया है। सुनाई पड़ा है कि पार्टी अब एक और चिंतन शिविर
आयोजित करने जा रही है। अगले साल पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और गोवा में विधानसभा चुनाव होंगे।
राहुल की पहली परीक्षा इन चुनावों में होगी। उसके बाद 2019 तक परीक्षाएं ही होंगी।
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