जैसी कि उम्मीद थी, हिरोशिमा में जी-7 देशों ने चीन और रूस को निशाना बनाया. हिंद-प्रशांत की सुरक्षा योजना का सदस्य होने के नाते भारत की भूमिका भी चीनी-घेराबंदी में है, पर रूस की घेराबंदी में नहीं. जापान के प्रधानमंत्री किशिदा फुमियो इस समय ज्यादा आक्रामक हैं.
हिरोशिमा में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर
ज़ेलेंस्की को भी बुलाया गया था. सम्मेलन के अंत में जारी संयुक्त बयान में कहा गया
कि हम उम्मीद करते हैं कि यूक्रेन युद्ध रोकने के लिए रूस पर चीन दबाव बनाएगा.
भारत जी-7 का सदस्य नहीं है, पर जापान के विशेष
निमंत्रण पर भारत भी इस बैठक में गया था. भारत को लगातार तीसरे साल इसके सम्मेलन
में शामिल होने का अवसर मिला है. कयास हैं कि अंततः किसी समय इसके आठवें सदस्य के
रूप में भारत को भी शामिल किया जा सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रकारांतर से
वहाँ चीन की आलोचना की. उन्होंने जी-7 के अलावा क्वाड के शिखर सम्मेलन में शिरकत भी
की. अब वे पापुआ न्यूगिनी होते हुए ऑस्ट्रेलिया और अब भारत पहुँच गए हैं.
भारत की दिलचस्पी केवल चीन को निशाना बनाने में नहीं है, बल्कि आर्थिक विकास की संभावनाओं को खोजने में है. आगामी 22 जून को पीएम मोदी अमेरिका की राजकीय-यात्रा पर जाने वाले हैं. इस साल एससीओ और जी-20 के शिखर सम्मेलन भारत में हो रहे हैं और अगले साल होगा क्वाड का शिखर सम्मेलन. इस रोशनी में भारत की वैश्विक-भूमिका को देखा जा सकता है.
चीन की निंदा
हिरोशिमा चीन की घेराबंदी का सम्मेलन था, जिसके
अंत में जारी संयुक्त बयान से चीन खासा नाराज है. चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा है
कि जी-7 देश हमारे आंतरिक मामलों में दखल दे रहे हैं.
क्वाड नेताओं ने भी दक्षिण चीन सागर में ‘सैनिक
गतिविधियों’ और ‘आर्थिक दबाव’ की निंदा की. उन्होंने यह भी कहा कि चीन अब कारोबार का
इस्तेमाल हथियार के रूप में कर रहा है. इसके खिलाफ नए संगठन की जरूरत है.
चीन लगातार दक्षिण चीन सागर के विवादित इलाकों
पर अपना दावा जताता रहा है. उसने यहां अपने कृत्रिम द्वीप बना लिए हैं. विश्लेषकों
का कहना है कि ये द्वीप एक प्रकार की फौजी चौकियां हैं.
भारत का रसूख
वैश्विक मंच पर भारत की चर्चा है. यूक्रेन के
ज़ेलेंस्की ने बड़ी तन्मयता से प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य को सुना. मोदी की
विदेश-यात्राएं मीडिया में काफी चर्चित रहती हैं. खासतौर से अमेरिका की यात्रा. अमेरिका
में इसबार होने वाले कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए काफी जोश है.
सारी दुनिया में फैले भारतवंशी भारत के
प्रतिनिधियों का काम करते हैं. 23 मई को मोदी ऑस्ट्रेलिया पहुंचे. सिडनी में उनके कार्यक्रम
में करीब 20 हजार लोग शामिल हुए. क्षमता से ज्यादा लोगों के लिए व्यवस्था करने में
सरकार को परेशानी हो रही है. सिडनी के हैरिस पार्क को लिटिल इंडिया नाम दे दिया
गया है.
जापान की दिलचस्पी
चीन-विरोधी मोर्चे में अमेरिका और जापान की
दिलचस्पी यूरोपियन देशों की तुलना में ज्यादा है. जापान और अमेरिका चाहते हैं कि
चीन के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया जाए, जबकि जर्मनी और फ्रांस जैसे यूरोपियन देशों को
अब भी लगता है कि चीन से दोस्ती बनाए रखने में समझदारी है.
बहरहाल इस दौरान दो बातें साफ हुईं. रूस पर आर्थिक
पाबंदियों को और कड़ा किया जाएगा और दूसरे चीन की घेराबंदी जारी रहेगी. ताइवान की
सुरक्षा और हिंद-प्रशांत क्षेत्र सम्मेलन में छाए रहे.
जापान ने सम्मेलन में भाग लेने के लिए जिन सात
गैर जी-7 देशों को आमंत्रित किया था, उन्हें देखते हुए इस बात को समझा जा सकता है.
भारत, ब्राज़ील और इंडोनेशिया जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की उपस्थिति और दक्षिण
कोरिया, वियतनाम और ऑस्ट्रेलिया की उपस्थिति इस बात को स्पष्ट करती है.
अमेरिकी प्रतिष्ठा
जनवरी 2021 में अपना पद संभालने के बाद जो
बाइडन ने कहा था, ‘अमेरिका इज़ बैक, हमारी विदेश-नीति के केंद्र में डिप्लोमेसी की वापसी हो रही है.’ चालीस
और पचास के दशक में विश्व-व्यवस्था का निर्धारण अमेरिका ने किया था. पर आज
वैश्विक-व्यवस्था किसी एक के नियंत्रण में नहीं है, बल्कि वैश्विक-नियमों और फ्री
मार्केट की ज़रूरत बढ़ती जा रही है.
इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की विफलता
ने इस बात को रेखांकित किया है. वैश्विक-मुद्रा के रूप में डॉलर अभी काफी लंबे समय
तक काम करेगा, पर कुछ बड़े देशों ने स्थानीय मुद्राओं के मार्फत कारोबार शुरू किया
है.
पिछले ढाई साल से अमेरिका लड़खड़ा रहा है, फिर
भी उसने चीन के खिलाफ कमर कस रखी है. यूक्रेन युद्ध के बाद उसने रूस पर जो आर्थिक
पाबंदियाँ लगाई हैं, उनकी कुछ देशों ने अनदेखी की है या उनसे बचने के रास्ते निकाल
लिए हैं. फिर भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि अमेरिका का समय खत्म हो गया. उसका रसूख
अभी दशकों तक कायम रहेगा.
सात देशों का समूह
दुनिया के सात सबसे ताकतवर देशों के नेता
हिरोशिमा में एकत्र हुए हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एटम बम का पहला शिकार
बना था हिरोशिमा शहर. संयोग से दुनिया फिर से उन्हीं सवालों को लेकर परेशान है, जो
दूसरे विश्वयुद्ध के समय उभरे थे.
सात देशों के समूह में जापान और जर्मनी शामिल
हैं, जो दूसरे विश्वयुद्ध में शत्रु-पक्ष थे. वहीं चीन और रूस जैसे मित्र-पक्ष के
देश आज शत्रु-पक्ष माने जा रहे हैं. कुछ साल पहले तक रूस भी इस समूह का सदस्य था,
जो अब दूसरे पाले में है.
इस अनौपचारिक समूह के सदस्य हैं कनाडा, फ्रांस,
जर्मनी, इटली, जापान, युनाइटेड किंगडम और अमेरिका. जी-7 की बैठकों में कुछ मित्र
देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बुलाने की भी परंपरा है. इस साल ऑस्ट्रेलिया,
ब्राज़ील, कोमोरोस, कुक आइलैंड्स, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम को
आमंत्रित किया गया.
इन सम्मेलनों में आर्थिक नीतियाँ, सुरक्षा से
जुड़े सवाल, ऊर्जा, लैंगिक प्रश्न से लेकर पर्यावरण तक सभी सवालों पर चर्चा होती
है. इस सम्मेलन को लेकर हमारी विदेश-नीति के साथ भी कुछ बड़े सवाल जुड़े हुए हैं.
भारत की दुविधा
चीन की घेराबंदी में भारत एक हद तक पश्चिम के
साथ है, पर भारत रूस को नाखुश भी नहीं करेगा. हिरोशिमा में प्रधानमंत्री मोदी की
मुलाकात यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से हुई, जिसमें मोदी ने कहा कि लड़ाई
रोकने के लिए हमसे जो भी बन पड़ेगा, वह करेंगे.
ज़ेलेंस्की जी-7 में आए, पर भारत के विदेश सचिव
ने कहा है कि उन्हें जी-20 की बैठक में नहीं बुलाया गया है. अलबत्ता ज़ेलेंस्की ने
पीएम मोदी को अपने देश आने का निमंत्रण दिया है. विदेश सचिव ने इस निमंत्रण की पुष्टि
की है, पर यह नहीं बताया कि उनके निमंत्रण को स्वीकार किया गया है या नहीं.
राष्ट्रीय हित
भारत का अमेरिका की तरफ बढ़ता रुझान भी नज़र आने
लगा है. इसकी वजह भारत से ज्यादा अमेरिका खुद है, जो अब वे सुविधाएं देने को तैयार
है, जिन्हें देने में वह पहले आनाकानी करता था.
अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की
अमेरिका की पहली राजकीय-यात्रा होने जा रही है, जो बहुत सी बातें साफ करेगी. अमेरिका
की राजकीय-यात्रा को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. मोदी से पहले केवल दो
भारतीय नेताओं को यह सम्मान प्राप्त हुआ है. राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को
1963 में और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2009 में.
अमेरिका यात्रा से मोदी की वापसी के फौरन बाद
3-4 जुलाई को दिल्ली में एससीओ का शिखर सम्मेलन होगा, जिसमें चीन के राष्ट्रपति शी
चिनफिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़
शरीफ आने वाले हैं. ईरान के राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी तथा मध्य एशिया के देशों के
राष्ट्राध्यक्ष-शासनाध्यक्ष भी आएंगे.
यह बड़ा आयोजन है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ भी
बड़े हैं. एससीओ सम्मेलन के बाद मोदी फ्रांस के ‘बास्तील राष्ट्रीय-दिवस’ की परेड में मुख्य अतिथि होंगे. वे कुछ यूरोपियन देशों में भी जाएंगे.
अगस्त के महीने में वे ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका जाएंगे. 9-10
सितंबर को जी-20 का शिखर सम्मेलन और भी बड़ा आयोजन होगा.
स्वतंत्र विदेश-नीति
भारत इतनी बड़ी शक्ति नहीं है कि वह आसानी से
अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति का संचालन कर सके, पर इतनी छोटी ताकत भी नहीं कि किसी का
पिछलग्गू बनकर रहे. जैसा पाकिस्तान इस समय है.
भारत दो ध्रुवों के बीच अपनी जगह बना रहा है. एससीओ
पर चीन और रूस का वर्चस्व है. वे मिलकर अपने प्रभाव वाली विश्व-व्यवस्था चाहते हैं.
यूक्रेन-युद्ध के बाद से यह प्रक्रिया तेज हुई है. इसमें एससीओ और ब्रिक्स की
भूमिका होगी.
यूरोप का संशय
एशिया-प्रशांत को लेकर यूरोप और अमेरिका के
अंतर्विरोध हैं. इस अंतर्विरोध का फायदा उठाने के लिए चीन ने अपने विदेशमंत्री छिन
गांग को यूरोप भेजा और अपने विशेष शांतिदूत ली हुई को यूक्रेन और मॉस्को, ताकि उसे
मध्यस्थ के रूप में देखा जाए.
पिछले हफ्ते राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने मध्य
एशिया के पाँच देशों के राष्ट्राध्यक्षों को अपने देश में बुलाया और उनके साथ पहला
संयुक्त शिखर सम्मेलन किया. अब यह शिखर सम्मेलन हर साल होगा.
यूरोपियन देश रूस के खिलाफ अमेरिकी रणनीति से
कमोबेश पूरी तरह सहमत हैं, पर चीन को लेकर उनके मन में संदेह हैं. ब्रिटेन सहित
यूरोप के देश टकराव से बचना चाहते हैं. वे चीनी प्रभाव में चलने वाली
विश्व-व्यवस्था नहीं चाहते, पर उसके आर्थिक फायदों के लोभ से भी बाहर आना नहीं
चाहते.
हाल में चीन के दौरे पर गए फ्रांस के
राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यूरोप के देशों से कहा कि हमें ऐसी लड़ाई का हिस्सा
नहीं बनना चाहिए जो हमारी नहीं है. चीनी रणनीतिकार सावधानी से यूरोप को लुभा रहे
हैं.
बदलता आर्थिक-विश्व
‘विश्व-व्यवस्था’ तेज़ी से बदल रही है. जी-7 देशों की हनक हमेशा नहीं रहेगी.
1990 में इस संगठन में शामिल देशों का दुनिया की जीडीपी में 50 फ़ीसदी से अधिक
योगदान था. अब यह 30 फ़ीसदी के आसपास रह गया है.
इसकी आर्थिक शक्ति इसी तरह क्षीण होती रही, तो
इसका राजनीतिक महत्व भी कम हो जाएगा. इस कारण जापान और अमेरिका इसका वैश्विक
विस्तार करने की कोशिश में हैं, पर रूस और चीन इनकी गेस्ट लिस्ट से बाहर हैं.
ग्लोबल साउथ
जापान के प्रधानमंत्री किशिदा ने बीते 18
महीनों में 16 विदेशी दौरे किए हैं, इनमें भारत,
अफ़्रीका और दक्षिण पूर्वी देश शामिल हैं. उनका कहना है कि चीन और
रूस के अलावा और भी विकल्प हैं, जो विकासशील देशों की सहायता करेंगे. वे उन देशों
को अपनी तरफ खींच रहे हैं, जिन्हें 'ग्लोबल साउथ'
कहा जाता है. भारत की कोशिश भी यही है.
'ग्लोबल साउथ' शब्द
का इस्तेमाल एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के उन विकासशील
देशों के लिए किया जाता है, जिनके रूस और चीन से अच्छे संबंध हैं. आने
वाले वक्त में तराजू का पलड़ा किसी एक तरफ झुकाने में इन देशों की भूमिका होगी.
No comments:
Post a Comment