Sunday, May 28, 2023

संसद माने क्या, लोकतंत्र का मंदिर या राजनीति का अखाड़ा?


भविष्य के इतिहासकार इस बात का विश्लेषण करते रहेंगे कि संसद-भवन का उद्घाटन राजनीति का शिकार क्यों हुआ। शायद राजनीति में अब आमराय का समय नहीं रहा। पर संसद केवल राजनीति नहीं है। यह देश का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अभिलेखागार है। यह विवाद ही दुर्भाग्यपूर्ण है। बहरहाल आज नए संसद भवन का उद्घाटन हो रहा है। कांग्रेस समेत 20 विरोधी दलों ने उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया है। उनका कहना है कि इसका उद्घाटन पीएम मोदी के बजाय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों होना चाहिए। 

पूरा विपक्ष भी एकमत नहीं है। 20 दल बहिष्कार कर रहे हैं, तो 25 बहिष्कार के साथ नहीं हैं। सबके राजनीतिक गणित हैं, कोई विचार या सिद्धांत नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उस याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया जिसमें माँग की गई थी कि उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों होना चाहिए। लगता है कि कुछ दल अपनी राजनीतिक उपस्थिति को दर्ज कराने के लिए इस बहिष्कार का सहारा ले रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव की गोलबंदी का पूर्वाभ्यास। उनकी राजनीति अपनी जगह है, पर इस संस्था की गरिमा को बनाए रखने की जरूरत है। संसदीय मर्यादा और लोकतांत्रिक परंपराओं से जुड़े सवालों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। बेशक ताली एक हाथ से नहीं बजती। सरकार की भी जिम्मेदारी थी कि वह विरोधी दलों को समझाती। पर सत्तारूढ़ दल का भी राजनीतिक गणित है। उसे भी इस बहिष्कार में कुछ संभावनाएं दिखाई पड़ रही हैं।  

विवाद क्यों?

यह भी सच है कि संसद ही राजनीति का सर्वोच्च अखाड़ा होती है। कमोबेश दुनियाभर की संसदों में यही स्थिति है। बेशक संसदीय बहसें ही राजनीति है, पर संस्था के रूप में संसद सभी पक्षों का मंच है। बहिष्कार करने वाली पार्टियाँ क्या भविष्य में इस भवन में बैठकर संसदीय-कर्म में शामिल नहीं होंगी? बहिष्कार करने वाली पार्टियों को यह भी समझना चाहिए कि जनता उनके काम को किस तरीके से देख रही है।संसद में अच्छे भाषणों को जनता पसंद करती है। दुर्भाग्य से राजनीतिक नेताओं ने इस कला पर मश्क करना कम कर दिया है। संसदीय-बहसों का स्तर लगातार गिर रहा है और सड़क की राजनीति सिर उठा रही है। आप सोचें कि बरसों बाद लोग इस परिघटना को किस रूप में याद करेंगे? इस समारोह को क्या मिल-जुलकर नहीं मनाया जा सकता था? 

शुक्रवार को इस मामले पर सुनवाई के दौरान सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ऐसे मामले सुनवाई के लिहाज से तर्कसंगत और न्यायोचित नहीं हैं। याचिका दायर करने वाले से कहना चाहिए कि वे सुप्रीम कोर्ट से याचिका वापस लेने के बाद किसी हाईकोर्ट में भी न जाएं। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया। संयोग से नए संसद-भवन को लेकर अदालत के दरवाजे पर पहली बार दस्तक नहीं दी गई थी। पिछले ढाई साल में कई बार अदालत का दरवाजा खटखटाया गया है। यह सवाल भी वाजिब है कि उद्घाटन बजाय राष्ट्रपति के हाथों होता, तो बेहतर होता या नहीं। जवाबी सवाल है कि प्रधानमंत्री के उद्घाटन करने पर आपत्ति क्यों? वस्तुतः बीजेपी को अपनी सफलता के सूत्र मोदी में दिखाई पड़ते हैं। और कांग्रेस की नज़र में मोदी ही सबसे बड़ा अड़ंगा है।

शुरू से विवाद

जबसे संसद के नए भवन की बात शुरू हुई है, विवाद तब से ही शुरू हो गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2020 में नए भवन की आधारशिला रखी थी। उसी समय से यह विषय विवादों के घेरे में है। सेंट्रल विस्टा और संसद भवन के निर्माण को रुकवाने के लिए कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट तक गए। भवन के शिखर पर लगे अशोक स्तंभ के शेरों की मुखमुद्रा तक को लेकर आपत्ति प्रकट की गई। आपत्तियों की अगली कतार में कांग्रेस पार्टी है, जिनके नेता जवाहर लाल नेहरू ने 14-15 अगस्त की रात स्वतंत्रता-प्राप्ति का प्रसिद्ध भाषण देकर अंग्रेजों के हाथों से भारतीय राष्ट्र-राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली थी। ऐसा प्रधानमंत्री ने क्यों किया? पहले गवर्नर जनरल माउंटबेटन विदेशी थे, इसलिए किसी भारतीय को वह काम करना था। आपने कभी सोचा कि नेहरू ही क्यों? राजेंद्र प्रसाद क्यों नहीं? बेशक वे राष्ट्रपति नहीं थे, पर संविधान सभा के अध्यक्ष तो थे। उस समय तो संविधान सभा ही देश की सर्वोच्च संस्था थी, जो जनता के बीच से चुनकर आई थी। जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री जरूर थे, पर मनोनीत प्रधानमंत्री थे। चुने हुए प्रधानमंत्री नहीं। उस समय और उसके बाद कभी यह सवाल नहीं उठा कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों और इमारतों का उद्घाटन कौन करेगा। ऐसी कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। ऐसे मामलों में परंपराएं देखी जाती है। पर सोचें, ऐसा क्यों है कि राष्ट्र-राज्य के नायक के रूप में हमें नेहरू जी सबसे पहले याद आते हैं, राष्ट्रपति नहीं। इसकी वजह व्यक्ति नहीं व्यवस्था है। संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री शासनाध्यक्ष होने के साथ-साथ देश का प्रतिनिधि भी होता है। वैश्विक शिखर सम्मेलनों में प्रधानमंत्री जाते हैं, राष्ट्रपति नहीं। स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण होता है, राष्ट्रपति का नहीं। आपको पसंद हों या नहीं हों, मोदी प्रधानमंत्री हैं।

प्रधानमंत्री की भूमिका

हमारी संसदीय-व्यवस्था में प्रधानमंत्री की भूमिका महत्वपूर्ण है। यह अध्यक्षात्मक व्यवस्था नहीं है। जन-प्रतिनिधियों के चुनाव के जरिए ही प्रधानमंत्री का चुनाव होता है। जब तक वह प्रधानमंत्री है, जनता का प्रतिनिधि है और राष्ट्र का नायक। भारतीय अस्मिता और संप्रभुता का संरक्षक भी। बेशक राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य की प्रतीक और सेना की सुप्रीम कमांडर हैं। औपचारिक राष्ट्राध्यक्ष भी, पर व्यावहारिक प्रतिनिधि प्रधानमंत्री ही हैं। यह विवाद नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के मतभेदों के सिलसिले में पचास के दशक के शुरूआती वर्षों में शुरू भी हुआ था और प्रधानमंत्री के महत्व को तभी स्वीकार कर लिया गया था। बहरहाल जो हुआ, सो हुआ। आज नेहरू की पार्टी को राष्ट्रपति क्यों याद आ रही हैं? इस साल संसद का बजट सत्र शुरू होने पर जब आम आदमी पार्टी और बीआरएस ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के भाषण का बहिष्कार किया था, तब किसी ने राष्ट्रपति पद की गरिमा पर ध्यान क्यों नहीं दिया?  संसद भवन के निर्माण का औपचारिक निर्णय, उसकी योजना का कार्यान्वयन और उसके लिए साधनों की व्यवस्था, मंत्रिपरिषद ने की है, जिसके प्रमुख प्रधानमंत्री हैं। वे चाहते हैं कि नए संसद भवन का उद्घाटन करें, तो क्या दिक्कत है?  संसद भवन के संरक्षक लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराना चाहते हैं, तो इसमें गलत क्या है?

आरोप-प्रत्यारोप

आरोप-प्रत्यारोपों के कारण यह विमर्श राजनीतिक अखाड़े के रूप में बदल गया है। जिस तरह से विरोधी दलों ने प्रधानमंत्री को निशाना बनाया, उसी अंदाज़ में बीजेपी ने भी कांग्रेस पर निशाना साधा है। बीजेपी ने कहा है कि 2011 में मणिपुर और तमिलनाडु की विधानसभा की इमारतों के उद्घाटन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सोनिया गांधी किस हैसियत से मौजूद थीं? पार्टी का आरोप है कि विरोधी दल मोदी के प्रति अपनी नफ़रत का इज़हार इस तरह से कर रहे हैं। पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद भवन एनेक्सी की इमारत और राजीव गांधी ने 1987 में पार्लियामेंट लाइब्रेरी इमारत का उद्घाटन किया था। उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बिहार विधानसभा में सेंट्रल हाल के उद्घाटन की भी याद दिलाई। उन्होंने पूछा, इन मामलों में राष्ट्रपति और राज्यपालों का अपमान हुआ था क्या? मंत्री किरन रिजिजू ने ट्वीट करके छत्तीसगढ़ विधानसभा भवन के उद्घाटन के मामले का ज़िक्र किया। उन्होंने लिखा, छत्तीसगढ़ में नए विधानसभा भवन का उद्घाटन हुआ था। उस समय राज्यपाल अनुसुइया उईके थीं, जो जनजातीय समाज से आती हैं। उनका नाम शिलापट्ट पर नहीं है, बल्कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नाम हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उस कार्यक्रम की सूचना तक उन्हें नहीं दी थी।

नया भवन क्यों

बहुत से लोगों को लगता है कि वर्तमान संसद भवन के होते हुए नए संसद भवन की जरूरत क्यों पड़ी? मौजूदा संसद भवन का निर्माण वर्ष 1921 में शुरू किया गया और वर्ष 1927 में यह तैयार हुआ। यानी यह भवन करीब 100 साल पुराना हो चुका है। इसके कुछ हिस्सों में टूट-फूट होने लगी है। उन्हें टुकड़ों में ठीक करने के कारण जटिलताएं बढ़ी हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह भवन अंग्रेजी राज की निशानी है। नया भवन स्वदेशी प्रतिभा और कौशल का प्रतीक है। इसके अलावा पुराने भवन की जालीदार खिड़कियों को कवर करने से दोनों सदनों के कक्षों में प्राकृतिक रोशनी कम हो गई है। मूल डिजाइन के दस्तावेज भी उपलब्ध नहीं है। जब यह भवन बना था, तब सिवाय बिजली के तारों के अन्य केबलों की कोई योजना नहीं होती थी। पिछले सौ वर्षों में कम्युनिकेशन तकनीक का काफी विकास और विस्तार हुआ है। भविष्य में और ज्यादा होगा। भविष्य की जरूरतों को देखते हुए नई तकनीक से लैस नए भवन की जरूरत थी।

संसदीय परिसीमन

इतना ही नहीं, संसदीय कर्म से जुड़े लोगों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है। 1971 की जनगणना के आधार पर किए गए परिसीमन पर आधारित लोकसभा सीटों की संख्या 545 में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर सन 2002 में संविधान के 84वें संशोधन के बाद परिसीमन को 2026 तक के लिए रोक दिया गया। अब 2026 के बाद इसमें काफी वृद्धि होने की संभावना है। पुराने भवन में नए सांसदों के लिए बैठने की पर्याप्त जगह ही नहीं होगी। सेंट्रल हॉल में केवल 440 व्यक्तियों के बैठने की क्षमता है। जब संयुक्त सत्र होते हैं तो बैठने की समस्या और बढ़ जाती है। आग से सुरक्षा खासतौर पर चिंता का विषय है। पुराने भवन को आधुनिक दमकल मानदंडों के अनुसार डिजाइन नहीं किया गया है। नए संसद भवन को तिकोने आकार में डिजाइन किया गया है। लोकसभा में 888 सीटें हैं और विजिटर्स गैलरी में 336 से ज्यादा लोगों के बैठने का इंतजाम है। राज्यसभा में 384 सीटें हैं और विजिटर्स गैलरी में 336 से ज्यादा लोगों के बैठने की क्षमता है। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में 1272 से ज्यादा सांसद एकसाथ बैठ सकेंगे। कई प्रकार की दूसरी सुविधाएं इस नए भवन में हैं। कृपया उनपर भी ध्यान दें।

हरिभूमि में प्रकाशित

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