नरेंद्र मोदी की
सरकार के बारे में माना जा रहा है कि यह काम करने वाली और साफ बोलने वाली सरकार
होगी। चुनाव प्रचार के दौरान वे कई बार ‘ब्रांड इंडिया’ को चमकाने की बात करते रहे हैं। उनका यह भी कहना था कि यह
सदी भारत के नाम है। दुर्भाग्य है कि हम इस दशक की शुरुआत य़ानी सन 2010 से पराभव
का दौर देख रहे हैं। सन 2010 में हमने कॉमनवैल्थ गेम्स का आयोजन किया। उसका
उद्देश्य भारत की प्रगति को शोकेस करना था। पर हुआ उल्टा। कॉमनवैल्थ गेम्स हमारे
लिए कलंक साबित हुआ। टू-जी हमारी तकनीकी प्रगति का संकेतक था। सन 1991 के बाद शुरू
हुई आर्थिक क्रांति का पहला पड़ाव था टेलीकम्युनिकेशन की क्रांति। पर यह क्रांति
हमारे माथे पर कलंक का टीका लगा गई। जरूरी है कि भारत अपनी उद्यमिता और मेधा को
साबित करे। पिछले साल हमारे वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह की ओर एक यान भेजा है। इस
साल सितम्बर में यह यान मंगलग्रह की कक्षा में प्रवेश करेगा। हमें मानकर चलना
चाहिए कि ऊँचे आसमान से प्रकाशमान होकर यह भारत का नाम इस साल जगमग करेगा।
आमतौर पर विदेश
नीति के मामले में निरंतरता रहती है। सरकारें कोई बड़ा और बुनियादी बदलाव नहीं
करती हैं। पर अक्सर कुछ घटनाएं होती हैं, जब बुनियादी बदलाव देखने को मिलते हैं।
मसलन सन 1971 में भारत और रूस के बीच रक्षा सहयोग का समझौते ने हमारी विदेश नीति
को नई दिशा दी थी। हाल के वर्षों में सन 2005 में अमेरिका के साथ हुए सामरिक सहयोग
के समझौते के बाद भारतीय विदेश नीति में बुनियादी बदलाव आया। उसके बाद सन 2008 में
अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लीयर डील ने इस सहयोग को और पुख्ता किया। सन 2010 में
भारत ने नाभिकीय ऊर्जा का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम घोषित किया था, जिसके तहत सन 2023
तक देश की नाभिकीय ऊर्जा की क्षमता को 63,000 मैगावॉट तक पहुँचाना है। इस वक्त यह
क्षमता 5000 मैगावॉट के आसपास है। इस दिशा में काफी काम अब इस सरकार के कार्यकाल
में होना है।
आज की विदेश नीति
का केंद्रीय तत्व आर्थिक विकास और उच्चस्तरीय तकनीक हासिल करने पर केंद्रित है। मोदी
की सम्भावित विदेश नीति को हमें इसी नजरिए से देखना होगा। इसमें पड़ोसी देशों के
साथ रिश्तों की भूमिका है। दूसरी भूमिका है अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ के साथ
रिश्तों की। तीसरी एशिया में चीन-जापान और एशिया प्रशांत देशों के साथ रिश्तों की।
इसमें एसियान देशों के साथ सहयोग शामिल है। अंतरराष्ट्रीय समूहों में भारत की
जी-20 और ब्रिक्स में महत्वपूर्ण भूमिका है। पी-5 यानी सुरक्षा परिषद के पाँच
स्थायी सदस्यों में अमेरिका और यूके का एक धड़ा है, जो राजनैतिक रूप से हमारा
मित्र है, अनेक अंतर्विरोधों के साथ। हमें इनके साथ रहना
है क्योंकि हमें उच्च तकनीक और पूँजी निवेश की ज़रूरत है। अमेरिका की मदद हमें न्यूक्लियर
सप्लायर्स ग्रुप में चाहिए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता
चाहिए, जी-8 के साथ संतुलन चाहिए।
फ्रांस हालांकि पश्चिमी
देश है, पर पिछले एक दशक में हम अमेरिकी धड़े के साथ उसकी दूरी देख
चुके हैं। उसके अलावा जर्मनी परम्परा से फ्रांस और यूके का प्रतिद्वंदी है। इन
दोनों देशों के साथ हमें कारोबारी और सामरिक रिश्ते बनाने हैं। रूस हमारा
परम्परागत मित्र है और हथियारों का सबसे बड़ा सप्लायर। उसके साथ हम मिलकर पाँचवीं
पीढ़ी का युद्धक विमान विकसित कर रहे हैं। ब्रह्मोस मिसाइल का बेहद सफल कार्यक्रम
रूस के सहयोग से ही चल रहा है। सुदूर पूर्व में जापान-कोरिया और दक्षिण पूर्व
एशिया में वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड और सिंगापुर आने वाले वक्त में हमारे बड़े साझीदार बनेंगे। मुस्लिम
देशों की बिरादरी में टुंकू अब्दुल रहमान के ज़माने से मलेशिया हमारा सबसे बड़ा
मित्र होता था। आज भी है। इस वक्त इंफ्रास्ट्रक्चर और निर्माण के क्षेत्र में
मलेशिया ने काफी बढ़त ले ली है। हमें आने वाले वक्त में काफी भारी निर्माण करने
हैं। इन सब के बाद ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका दो और महत्वपूर्ण देश हैं जो
इक्कीसवीं सदी के भारत के विकास में भागीदार बनेंगे। पूरे परिदृश्य को देखें तो
बड़ा संतोषजनक सीन है, पर दो चुनौतियाँ हैं। पहली, कि क्या चीन का राजनैतिक रूपांतरण शांतिपूर्ण हो सकेगा? दूसरी कि क्या भारत
अपने देश के सामाजिक विकास को आर्थिक विकास के साथ जोड़ पाएगा?
नरेंद्र मोदी ने
अपनी ज़्यादातर रैलियों और भाषणों में सुशासन और आर्थिक विकास पर ज़ोर दिया।
उन्होंने कहा कि हम नजरें झुकाकर नहीं नजरें मिलाकर बात करने के पक्ष में हैं। मोदी
की धारणा साफ है कि ताकतवर देश की विदेशनीति ही ताकतवर होती है। और आज ताकत का
मतलब है आर्थिक ताकत। पाकिस्तान के बरक्स भारतीय नागरिकों की सबसे बड़ी चिंता
आतंकवाद की है। हमारी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि मुम्बई पर 26 नवम्बर 2008 को हमले
की साजिश करने वाले पाकिस्तान में बैठे हैं। उनके खिलाफ अदालती कार्रवाई बेहद
सुस्त चाल से चल रहे है। इसके अलावा लश्करे तैयबा के हफीज सईद और जैशे मोहम्मद के
मौलाना मसूद अज़हर को पाकिस्तानी प्रतिष्ठान का पूरा समर्थन मिला हुआ है। मोदी की
सबसे बड़ी परीक्षा पाकिस्तान के साथ रिश्तों के संदर्भ में होगी।
दूसरी परीक्षा
अमेरिका के साथ तल्लुकात को लेकर होगी। सन 2005 में अमेरिकी
वीज़ा रद्द होने के बाद से मोदी गंभीर रूप से आहत हैं। राष्ट्रीय नीतियों और
व्यक्तिगत कटुताओं का कोई मेल नहीं होना चाहिए, पर यह मामला खासतौर से इसलिए
महत्वपूर्ण हो गया, क्योंकि अमेरिका काफी देर तक अपने रुख पर अड़ा रहा। हालांकि इस
साल 13 फरवरी को अमेरिकी राजदूत नैंसी पॉवेल ने मोदी से गांधी नगर जाकर न सिर्फ
मुलाकात की, बल्कि गुजरात सरकार के कार्यों की परोक्ष रूप से तारीफ भी की। मोदी की
विजय के बाद सबसे पहले बधाई देने वालों में राष्ट्रपति बराक ओबामा भी थे।
अमेरिका और
यूरोपीय देशों के मुकाबले जापान ने नरेंद्र मोदी को विशेष महत्व दिया। जुलाई 2012
में उनका जापान में अभूतपूर्व स्वागत हुआ था। हाल में जापान ने भारत के साथ रिश्तों
को सुधारा भी है। पिछले साल जापान के सम्राट भारत यात्रा पर आए और इस साल 26 जनवरी
की परेड में जापान के प्रधानमंत्री विशेष अतिथि थे। शिंजो अबे भी मोदी की तरह जापान
में नई राष्ट्रवादी चेतना के प्रतीक हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप
में नरेंद्र मोदी की पहली विदेश यात्रा जापान की हो। भारत के लिए आने वाला समय
अंतररष्ट्रीय सम्मान का समय होगा। हजारों साल पुरानी सभ्यता अपने गौरव और सम्मान
को स्थापित करना चाहती है। क्या मोदी इसके ध्वजवाहक बनेंगे?
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति सोमवारीय चर्चा मंच पर ।।
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