Thursday, May 22, 2014

क्या यह भाजपा-गैर भाजपा दौर का आग़ाज़ है?

चुनाव में जीतने के बाद वाराणसी में नरेंद्र मोदी ने कहा, पहले सरकार चलाने के लिए गठबंधन करना पड़ता था। अब प्रतिपक्ष है नहीं। अब प्रतिपक्ष बनाने के लिए गठबंधन करना पड़ेगा. इस चुनाव के बाद कम से कम दो सच्चाइयाँ उजागर हुई हैं. अभी तक देश की राजनीति के तीन कोने थे. एक कांग्रेस, दूसरा भाजपा और तीसरा गैर-कांग्रेस, गैर भाजपा विपक्ष. पर अब तीन नहीं दो कोने हो गए हैं. एक भाजपा और दूसरा गैर-भाजपा.

बिहार में नीतीश कुमार के इस्तीफे की गहमा-गहमी के बीच एक प्रस्ताव आया कि जेडीयू और राजद एक साथ आ जाएं. क्या व्यावहारिक रूप से यह संभव है. अभी तक बिहार में लालू को रोकने का श्रेय नीतीश कुमार को दिया जा रहा था. अब यह काम भाजपा ने सम्हाल लिया है. ऐसे में क्या जेडीयू और राजद एक साथ जा सकते हैं? सेक्युलरिज़्म की अवधारणा वास्तविक है तो फिर तमाम ताकतें एकसाथ क्यों नही आतीं? ऐसी पहेलियाँ दूसरे राज्यों में भी बूझी जाएंगी.

चुनाव परिणाम आने के बाद पहले जयललिता ने मोदी को और फिर मोदी ने जयललिता को बधाई देकर गर्मजोशी का माहौल बनाया है. जयललिता को एनडीए में शामिल करने की ज़रूरत मोदी को नहीं है, पर जयललिता को मोदी की ज़रूरत है. चुनाव के ठीक पहले मोदी और ममता के बीच कटु वक्तव्यों की बौछारों हुईं, पर ज़रूरत तो ममता को भी मोदी की होगी. उधर नवीन पटनायक ने केंद्र के प्रति अपने सकारात्मक रुख की घोषणा करके साफ कर दिया है कि वे भाजपा विरोधी कैम्प में नहीं हैं. तब विपक्ष में है कौन?


ममता बनर्जी ने जयललिता से बातचीत की है कि क्यों न हम मिलकर एक ग्रुप बनाएं और नेता विपक्ष का आधिकारिक पद और लोकसभा के उपाध्यक्ष पद पर अपने प्रत्याशी को बैठाएं. कांग्रेस की लोकसभा में 44 सीटें हैं. ममता की 34 और जयललिता की 37 जोड़ने पर संख्या होती है 71. इसमें नवीन पटनायक की 20 और जोड़ दें तो यह संख्या 91 हो जाती है. क्या यह ग्रुप विपक्ष की दावेदारी पेश करेगा. ऐसा हुआ तो कांग्रेस आधिकारिक विपक्ष के रूप में भी नहीं बचेगी.

इस चुनाव के पहले कयास यह था कि किसी को साफ बहुमत नहीं मिला तो तीसरे मोर्चे के किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाया जाए. अंतिम दौर में कांग्रेस ने अपने सारे घोड़े खोल दिए थे. लक्ष्य एक था कि मोदी न आने पाए. क्या मोदी अब कांग्रेस को विपक्ष के रूप में बने रहने देंगे? हाल के दिनों में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस के बाद सबसे बड़ा मोर्चा तीसरे मोर्चे का था. इसके मुख्य घटक थे वाममोर्चा, जेडीयू, सपा और जेडीएस. इनकी सीटों को जोड़ दें तो 20 होती हैं. यानी तीसरे मोर्चे की ताकत बीजद के बराबर है.

चुनाव परिणाम आने के कुछ दिन पहले नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमें साफ बहुमत मिलने वाला है, पर हमारे दरवाजे सबके लिए खुले हैं. हम सबके सहयोग से काम करेंगे. मोदी के उस निमंत्रण के पीछे कुछ बातें समझ में आती हैं. एक तो यह कि राज्यसभा में उनकी स्थिति अच्छी नहीं है. महत्वपूर्ण कानूनों को पास कराने के लिए उन्हें दूसरे सहयोगियों की जरूरत होगी. दूसरी ओर उनका एजेंडा केंद्र-राज्य सम्बंधों को फिर से परिभाषित करने का है. इस सिलसिले में जयललिता, ममता और नवीन पटनायक तीनों ही महत्वपूर्ण हैं.

नए राज्य सीमांध्र में चंद्रबाबू नायडू मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव मुख्यमंत्री बनेंगे. दोनों का सहयोग मोदी को चाहिए. नायडू पहले से ही मोदी कैम्प में हैं. महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और सम्भवतः दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी अगले कुछ महीनों में होंगे. इन राज्यों से कांग्रेस को बाहर करने की भी मोदी की योजना है. इस राजनीति के बरक्स क्या कोई गैर-भाजपा राजनीति भी विकसित होगी?

कांग्रेस के सामने अस्तित्व का सवाल है. देखना होगा कि वह वैचारिक और संगठनात्मक रूप से किस रास्ते पर जाती है. क्या वह किसी वामपंथी एजेंडा के साथ सामने आएगी? यानी मनमोहन सिंह की नीतियों के पलट? इस स्थिति में उसका वाममोर्चे के साथ तालमेल हो सकता है. पर यह भी देखें कि भारत में वाममोर्चे का भविष्य क्या है. सन 2004 में वाममोर्चे की सीटें थीं 59. उसने कांग्रेस का समर्थन करके कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के रूप में अपना राजनीतिक एजेंडा भी आगे बढ़ाया. पर मनमोहन सिंह सरकार के साथ उसकी नहीं बनी. वाममोर्चा और डीएमके ने मिलकर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के विनिवेश को रोका. पर मनमोहन सिंह न अमेरिका जाकर रक्षा और नाभिकीय सहयोग की नींव डाल दी.

यह रिश्ता अंततः टूटा, जिसका नुकसान वामदलों को ही हुआ. सन 2009 के चुनाव में वोटर ने 59 से घटाकर उसकी ताकत 24 की कर दी. और अब इस चुनाव में यह संख्या 11 हो गई है. उसका बंगाल का गढ़ टूट चुका है. भाजपा केरल में भी प्रवेश कर गई है. केरल विधानसभा के चुनाव दो साल बाद होंगे. वहाँ के ज़मीनी बदलावों पर नजर रखने की ज़रूरत भी है.

वाम मोर्चे ने उभरते भारतीय मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को नहीं पहचाना. सन 2011 में बंगाल विधान सभा का चुनाव हारने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एबी वर्धन ने दिल्ली के एक अखबार से कहा कि हम मध्य वर्ग से खुद को नहीं जोड़ पाए. पूँजी के वैश्वीकरण को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ समझ नहीं पाईं है. भारत में वामपंथी आंदोलन सिर्फ औद्योगिक कामगारों के सहारे नहीं चल सकता. खेत-मजदूर और किसान गाँव के दो विपरीत ध्रुव हैं. ऐसे ही तमाम वैचारिक प्रश्नों पर वामपंथी पार्टियों को विचार करने की ज़रूरत है. देश की जनता ने वामपंथियों को परास्त किया है, खारिज नहीं किया.

सन 1991 मे जिस नई आर्थिक नीति की शुरुआत हुई उसे लेकर हमारे यहाँ या तो पूर्ण समर्थन है या पूर्ण विरोध. किसी भी देश के कारोबारी उसके निर्माता होते हैं. वे तमाम लोगों के रोजगार का इंतज़ाम करते हैं. पर राजनीति, बिजनेस, ब्यूरोक्रेसी और माफिया का गठज़ोड़ भी खतरनाक होता है. टू-जी घोटाला सबसे बड़ा प्रमाण है. दूसरी ओर बंद और घेराव का उजाड़वादी दर्शन भी कुछ नहीं देता. यह बात हम फलते-फूलते वस्त्र उद्योग की तबाही के रूप में देख चुके हैं. वस्त्र उद्योग एक बड़े वर्ग को रोजगार देता था. उसके आधुनिकीकरण की जब ज़रूरत थी, तब वह आंदोलनों माफिया-संग्रामों में उलझा रहा.
वाम मोर्चा ने बंगाल में इस बात को जब समझा तब तक राजनैतिक कमान उसके हाथ से निकल चुकी थी. आर्थिक विकास के विपरीत प्रभावों रोकने वाली ताकत भी चाहिए. इस लिहाज से वामपंथ की उपयोगिता कभी खत्म नहीं होगी. उसे नए ढंग से परिभाषित करने की ज़रूरत ज़रूर है. यह बात पूरी राजनीति पर लागू होती है.
 प्रभात खबर में प्रकाशित


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