भारतीय आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है। यह गतिविधि काले धन से चलती है। काले धन की विशाल गठरियाँ इस मौके पर खुलती हैं। चंदा लेने की व्यवस्था काले पर्दों से ढकी हुई है। लोकसभा के एक चुनाव में 543 सीटों के लिए करीब आठ हजार प्रत्याशी खड़े होते लड़ते हैं। तीस से पचास हजार करोड़ रुपए की धनराशि प्रचार पर खर्च होती है। शायद इससे भी ज्यादा। राजनीतिक दलों का खर्च अलग है। जो पैसा चुनाव के दौरान खर्च होता है, उसमें काफी बड़ा हिस्सा काले धन के रूप में होता है। यह सोचने की जरूरत है कि यह काला धन कहाँ से और क्यों आता है।
ज्यादातर प्रत्याशी
अपने चुनाव खर्च को कम करके दिखाते हैं। चुनाव आयोग के सामने दिए गए खर्च के
ब्यौरों को देखें तो पता लगता है कि किसी प्रत्याशी ने खर्च की तय सीमा पार नहीं
की। जबकि अनुमान है कि सीमा से आठ-दस गुना तक ज्यादा खर्च होता है। जिस काम की
शुरूआत ही गोपनीयता, झूठ और छद्म से हो वह आगे जाकर कैसा होगा? इसी छद्म-प्रतियोगिता में जीतकर आए जन-प्रतिनिधि कानून
बनाते हैं। चुनाव-सुधार से जुड़े कानून भी उन्हें ही बनाने हैं।
हाल में उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों को चुनावी चंदे की व्यवस्था यानी इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक करार दिया है। अदालत ने चुनावी बॉन्ड की बिक्री पर रोक लगा दी है। अदालत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में पाँच जजों के संविधान पीठ ने इस बारे में 15 फरवरी को फैसला सुनाया। इसके पहले नवंबर 2023 में संविधान पीठ ने लगातार तीन दिन तक दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद इस योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इस योजना के अवैध
घोषित होने के बाद अब ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि देश में राजनीतिक-चंदे की
व्यवस्था को किस तरह से संचालित किया जाए। यह सवाल आज से नहीं काफी अरसे से
बार-बार पूछा जा रहा है। काफी लोग मानते हैं कि चुनावी-बॉन्ड योजना गलत थी, पर वे
बता नहीं पाते हैं कि किया क्या जाए। एक अरसे से चुनाव आयोग चुनाव के दौरान
धन-शक्ति को नियंत्रित करने और चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की माँग करता
रहा है। आयोग ने चुनावी-बॉन्ड की व्यवस्था को भी अपारदर्शी बताया था। केंद्र सरकार
के तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली का कहना था कि पारदर्शिता बनाने की दिशा में
यह पहला कदम है।
धन-शक्ति और
राजनीति
सुप्रीम कोर्ट ने अपने
फैसले में धन-शक्ति और राजनीति के रिश्तों पर विस्तार से विवेचन किया है। अदालत ने
माना है कि वोट जनता देती है, पैसा नहीं। बावजूद इसके ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनसे
पता लगता है कि कांचन-शक्ति से पूरी राजनीतिक-प्रक्रिया प्रभावित होती है। चुनाव
में वे लोग हमेशा पिछड़ते हैं, जिनके पास साधन नहीं होते। खासतौर से पिछड़े और
गरीब लोगों के हितों की रक्षा करने वाली राजनीति इस मामले में हार जाती है।
चुनावी व्यवस्था में
पेच हैं। एक तरफ हमारे चुनाव कानून प्रत्याशियों के व्यय का नियमन करते हैं, वहीं
पार्टियों के खर्च पर कोई रोक नहीं है। इस व्यय को कागज पर दिखाने में भी तमाम
तिकड़मों का इस्तेमाल होता है और ज्यादातर प्रत्याशी कानूनी सीमा से कहीं कम का खर्च
दिखाते हैं, जबकि यह खुली जानकारी है कि चुनाव में प्रत्याशी करोड़ों रुपये तक
खर्च कर डालते हैं। ज्यादातर खर्च काले धन के रूप में होता है।
राजनीतिक व्यवस्था
महत्वपूर्ण है, तो उसका खर्च भी समाज की जिम्मेदारी होनी चाहिए। सवाल है कि वह
कैसे हो? दुनिया के कुछ देशों
में राजनीतिक दलों को सरकार की ओर से खर्च दिया जाता है। मसलन जर्मनी में ऐसी
व्यवस्था है, जिसमें पार्टियों को उनके महत्व के अनुसार खर्च सरकार की ओर से मिलता
है। जिस तरह की व्यवस्था चुनावी-बॉन्ड की थी, उससे मिलती जुलती व्यवस्था अमेरिका के
सिएटल के स्थानीय चुनावों में भी अपनाई गई है, जिसमें सरकार मतदाताओं को ‘डेमोक्रेसी वाउचर्स’ के रूप में
पैसा देती है। वोटर अपने पसंदीदा प्रत्याशी को वह धनराशि देते हैं।
चुनावी बॉन्ड
चुनावी बॉन्ड एक वचन
पत्र की तरह होता था, जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय
स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकती थी और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक
दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकती थी। अदालती फैसले के अनुसार यह योजना, आयकर अधिनियम की धारा 139 द्वारा संशोधित धारा 29(1)(सी)
और वित्त अधिनियम 2017 द्वारा संशोधित धारा 13(बी) का प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(ए)
का उल्लंघन है। अदालत ने कहा है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 2019 से अब तक चुनावी
बॉन्ड से जुड़ी पूरी जानकारी देनी होगी। बैंक इन जानकारियों को 6 मार्च तक भारत के
चुनाव आयोग को सौंप देगा। चुनाव आयोग इसे 13 मार्च तक आधिकारिक वैबसाइट पर
प्रकाशित करेगा। राजनीतिक दल इसके बाद खरीददारों के खाते में चुनावी बॉन्ड की धनराशि
वापस कर देंगे।
चुनावी बॉन्ड प्रणाली
को वर्ष 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किया
गया था और इसे जनवरी 2018 में लागू किया गया था। बॉन्ड दानदाता की
गुमनामी बनाए रखते हुए पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए व्यक्तियों और
संस्थाओं के लिए एक साधन के रूप में कार्य करते थे। भारतीय स्टेट बैंक एक हजार, दस
हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़
रुपए के बॉन्ड जारी करता था। ब्याज मुक्त ये बॉन्ड धारक द्वारा माँगे जाने पर देय
होते थे। भारतीय नागरिक अथवा भारत में स्थापित संस्थाएँ इसे खरीद सकती थीं। इन्हें
व्यक्तिगत रूप से या संयुक्त रूप से खरीदा जा सकता था।
केवल जन प्रतिनिधित्व
अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल, जिन्होंने पिछले आम
चुनाव में लोकसभा अथवा विधानसभा के लिए डाले गए वोटों में से कम से कम एक प्रतिशत
वोट हासिल किए हों, चुनावी बॉन्ड हासिल करने के पात्र होते थे। नकदीकरण
केवल राजनीतिक दल के अधिकृत बैंक खाते के माध्यम से किया जा सकता था।
बॉन्ड की इस व्यवस्था
का उद्देश्य यह बताया गया था कि इससे राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता में
वृद्धि होगी। धन के रूप में प्राप्त दान के उपयोग का खुलासा करने की जवाबदेही
बढ़ेगी। नकद लेन-देन में कमी आएगी और दाता की गोपनीयता का संरक्षण होगा।
पारदर्शिता
कहाँ थी?
चुनावी बॉन्ड योजना की
आलोचना का मुख्य कारण यह है कि यह अपने मूल विचार अथवा उद्देश्य, चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने, के विपरीत काम करती नज़र आती थी। इसके आलोचकों का तर्क
है कि चुनावी बॉन्ड की गोपनीयता केवल जनता और विपक्षी दलों के लिए है, दान प्राप्त करने वाले दल के लिए नहीं। ये बॉन्ड सरकारी
स्वामित्व वाले स्टेट बैंक के माध्यम से ये बॉन्ड बेचे जाते थे, जिससे सरकार को यह
पता चल सकता था कि उसके राजनीतिक-विरोधियों की फंडिंग कौन कर रहा है।
दूसरी तरफ मतदाताओं को
यह नहीं पता होता था कि किस व्यक्ति, कंपनी या संगठन ने किस
पार्टी को कितनी मात्रा में फंड दिया है। इस प्रकार बॉन्ड योजना ने राजनीतिक दलों
को असीमित कॉरपोरेट चंदे और भारतीय तथा विदेशी कंपनियों द्वारा गुप्त वित्तपोषण के
द्वार खोल दिए। इतना ही नहीं कॉरपोरेट और विदेशी संस्थाओं द्वारा किए गए दान पर टैक्स
में सौ प्रतिशत की छूट से बड़े व्यवसायियों को लाभ हुआ। इससे कैपिटलिज्म का मार्ग
प्रशस्त होता था।
बॉन्ड व्यवस्था से आम
नागरिक के सूचना पाने के अधिकार का हनन भी हुआ। नागरिकों को यह जानकारी नहीं होती
कि किसने और किस दल को पैसा दिया। चुनावी बॉन्ड नागरिकों को कोई विवरण नहीं देते थे,
जबकि यह गुमनामी सरकार पर लागू नहीं होती थी, जो बैंक से जानकारी
प्राप्त कर सकती थी।
नियमों में संशोधन
सरकार ने 2016 और 2017
के वित्त विधेयक के माध्यम से चुनावी बॉन्ड योजना शुरू करने के लिए चार अधिनियमों
में संशोधन किया था। ये संशोधन लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951, कंपनी अधिनियम-2013, आयकर अधिनियम-1961, और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम-2010 (एफसीआरए) में 2016
और 2017 के वित्त अधिनियमों के माध्यम से हुए थे। 2017 में केंद्र सरकार ने
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को वित्त विधेयक के रूप में सदन में पेश किया था। संसद से
पास होने के बाद 29 जनवरी 2018 को इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की अधिसूचना जारी की गई
थी।
अधिसूचना जारी होने के
तुरंत बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), कॉमन कॉज और
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) सहित कई पार्टियों ने इसे चुनौती दी। कॉमन
कॉज और एडीआर का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील प्रशांत भूषण ने तर्क दिया था कि
नागरिकों को वोट माँगने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों के बारे में जानकारी पाने
का अधिकार है। हालांकि कंपनियों के वित्तीय विवरण कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय की
वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं,
जो सैद्धांतिक रूप से
किसी को दान के स्रोत को जानने की अनुमति दे सकते हैं।
भारत में लगभग 23 लाख
पंजीकृत कंपनियां हैं। इस पद्धति का उपयोग करके यह पता लगाना कि प्रत्येक कंपनी ने
कितना दान दिया है, एक सामान्य नागरिक के लिए संभव नहीं होगा। इसके
अलावा इस योजना में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए दान को चुनाव प्रक्रिया से
जोड़ा जाना आवश्यक हो। स्टेट बैंक के ‘एफएक्यू’ में कहा गया है कि बॉन्ड राशि को किसी भी समय और किसी
अन्य उद्देश्य के लिए भुनाया जा सकता है।
गोपनीयता
अदालत में केंद्र
सरकार के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि योजना का फोकस ‘गुमनाम’ नहीं, 'गोपनीयता' सुनिश्चित
करना है। निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने के शीर्ष अदालत
के 2019 के फैसले का जिक्र करते हुए उन्होंने तर्क दिया कि दान-दाताओं को तब तक निजता
का अधिकार है, जब तक कि जानकारी सार्वजनिक हित में हो। उन्होंने दावा किया कि
चुनावी बॉन्ड योजना विभिन्न प्रकार की योजनाओं, संशोधनों और
नीतियों के साथ 'प्रयोग' करने के बाद
पेश की गई थी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि योजना में कोई खामी थी, तो इसे रद्द करने के लिए केवल इतना ही पर्याप्त कारण
नहीं होना चाहिए।
बॉन्ड कोई भी व्यक्ति
और कोई भी कंपनी खरीद सकती थी। कोई कितनी बार बॉन्ड खरीद सकता था, इसकी कोई सीमा नहीं थी। ये बॉन्ड फाइनेंस एक्ट 2017 के
तहत लाए गए थे। यह बॉन्ड साल में चार बार जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में जारी किए जाते थे। इसके लिए ग्राहक
बैंक की शाखा में जाकर या उसकी वेबसाइट पर ऑनलाइन जाकर इसे खरीद सकता था।
देश में राजनीतिक दलों
को इनकम टैक्स से पूरी तरह छूट है। उन्हें केवल 20 हज़ार रुपये से अधिक के चंदे की
जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है। 2016 में जब नोटबंदी हुई, तब लगा था कि राजनीतिक दलों के पास जमा काला धन बर्बाद
हो जाएगा। ऐसा हुआ नहीं,
और उन्होंने सब कुछ
ठीक कर लिया। सच यह है राजनीतिक दलों के एजेंडा में पारदर्शिता की कोई भूमिका नहीं
है।
इसके पहले आयकर
अधिनियम की धारा 13ए के तहत व्यवस्था थी कि राजनीतिक दल 20 हजार रुपये से ऊपर के चंदे का हिसाब
रखेंगे।
लोक प्रतिनिधित्व
अधिनियम-1951 की धारा 29सी के तहत पार्टियों को एक वित्त वर्ष में 20 हजार रुपये
से ऊपर की धनराशि की रिपोर्ट तैयार करनी होती थी। चुनावी बॉन्ड व्यवस्था के तहत यह
नियम बना दिया गया कि बॉन्ड के मार्फत प्राप्त धनराशि का विवरण उन्हें रखने की
जरूरत नहीं है। इसके साथ ही यह व्यवस्था थी कि कंपनी अधिनियम की धारा 182 (3) के
तहत कंपनियों को अपने सालाना लाभ-हानि विवरण में राजनीतिक दलों को दी गई धनराशि का
विवरण देना होगा। इसमें राजनीतिक दल का नाम और दी गई रकम को बताना होता था।
इसमें संशोधन करके नई
व्यवस्था की गई कि कंपनी ने राजनीतिक चंदे के रूप में कुल कितनी धनराशि दी, इसे
दर्ज किया जाए। पुरानी व्यवस्था में पार्टियों को 20 हजार रुपये से ऊपर का चंदा
बहुत कम मिलता था। ज्यादातर चंदा छोटी रकम के रूप में होता था, जो नकद मिलती थी। और
स्वाभाविक है कि यह ज्यादातर काले धन के रूप में होती थी। सरकार ने बदलाव करते समय
कहा कि अब राजनीतिक चंदा वैध तरीके से बैंक के मार्फत दिया जाएगा, जिससे काले धन
की भूमिका खत्म हो जाएगी।
योजना का
विरोध
एसोसिएशन फॉर
डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अदालत में चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगाने की
गुहार लगाई। चुनाव आयोग ने भी अधिसूचना जारी होने के पहले से ही इसका विरोध किया
था। विरोध की वजह थी दानदाताओं की गोपनीयता। विधि आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़ी
अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजनीति में धन के इस्तेमाल के साथ जुड़ी सबसे
महत्वपूर्ण चीज है सार्वजनिक जानकारी। जन प्रतिनिधित्व कानून, आयकर कानून, कम्पनी कानून और दूसरे
सभी कानूनों के तहत बुनियादी बातों का पता सबको होना चाहिए।
चुनाव आयोग का कहना था
कि ये बॉन्ड काले धन को सफेद करने का एक और जरिया है। हमारे चुनाव-तंत्र में कई
तरह के छिद्र हैं। चुनाव-सुधार राजनीतिक दलों के एजेंडा में नहीं हैं। ज्यादातर
सुधार चुनाव आयोग और स्वयंसेवी समूहों की पहल पर हुए हैं या सुप्रीम कोर्ट के
फैसलों से। मतदाता पहचान पत्र बनाने और प्रत्याशियों के हलफनामे की व्यवस्था इसके
उदाहरण हैं।
कौन चाहता है
सुधार?
चुनाव-सुधार किसी
पार्टी का कभी एजेंडा नहीं रहा है। सुधार से जुड़े जितने भी कदम उठाए गए हैं, उनके पीछे या तो चुनाव आयोग है या स्वयंसेवी समूहों की
पहल पर हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले। कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियाँ बचती हैं। चुनावी चंदे की पारदर्शिता, दागी प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक और गलत हलफनामे
पर कार्रवाई।
हलफनामे की व्यवस्था
लागू तभी हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की पहल को समर्थन दिया। सन 2002 में
जब चुनाव आयोग ने हलफनामों की व्यवस्था की तो सरकार ने उसे अध्यादेश जारी करके रोक
दिया। इसके बाद 13 मार्च 2003 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह व्यवस्था लागू
हो पाई। कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियाँ बचती
हैं। चुनावी चंदे की पारदर्शिता, दागी प्रत्याशियों के
चुनाव लड़ने पर रोक और गलत हलफनामे पर कार्रवाई।
चुनाव में काले धन का
जमकर इस्तेमाल होता है। यह काला धन राजनीतिक दलों को कहाँ से और क्यों मिलता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन 2013 में छह राष्ट्रीय
दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की कोशिश को पार्टियों ने पसंद नहीं किया। वह
कोशिश आज तक सफल नहीं हो पाई है।
1990 में गोस्वामी
समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए
इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को और 2015 में विधि आयोग की 255 वीं
रिपोर्ट को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि पूरी व्यवस्था को रफू करने की
जरूरत है।
भारत वार्ता
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