लोकसभा क्षेत्र: रायबरेली
1977 के लोकसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था. एक शाम हमारे रायबरेली संवाददाता ने खबर दी कि आज एक चुनाव सभा में राजनारायण ने कांग्रेस के चुनाव चिह्न गाय-बछड़ा को इंदिरा गांधी और संजय गांधी की निशानी बताया है. खबर बताने वाले ने राजनारायण के अंदाज़े बयां का पूरी नाटकीयता से विवरण दिया था. बावजूद इसके कि इमर्जेंसी उस समय तक हटी नहीं थी और पत्रकारों के मन का भय भी कायम था. बताने वाले को पता था कि जरूरी नहीं कि वह खबर छपे.
उस समय मीडिया भी क्या था, सिर्फ अखबार, जिनपर
संयम की तलवार थी. सवाल था कि इस खबर को हम किस तरह से छापें. बहरहाल वह खबर
बीबीसी रेडियो ने सुनाई, तो बड़ी तेजी से चर्चित हुई. मुझे याद नहीं कि अखबार में
छपी या नहीं. वह दौर था, जब खबरें अफवाहें बनकर चर्चित होती थीं. मुख्यधारा के
मीडिया में उनका प्रवेश मुश्किल होता था. चुनाव जरूर हो रहे थे, पर बहुत कम लोगों
को भरोसा था कि कांग्रेस हारेगी.
इंदिरा गांधी का चुनाव
रायबरेली पर पूरे देश की निगाहें थीं. चुनाव
परिणाम की रात लखनऊ के विधानसभा मार्ग पर स्थित पायनियर लिमिटेड के दफ्तर के गेट
पर हजारों की भीड़ जमा थी. दफ्तर के बाहर बड़े से बोर्ड पर एक ताज़ा सूचनाएं लिखी
जा रही थीं. गेट के भीतर उस ऐतिहासिक बिल्डिंग के दाएं छोर पर पहली मंजिल में
हमारे संपादकीय विभाग में सुबह की शिफ्ट से आए लोग भी देर रात तक रुके हुए थे.
बाहर की भीड़ जानना चाहती थी कि रायबरेली में
क्या हुआ. शुरू में खबरें आईं कि इंदिरा गांधी पिछड़ रही हैं, फिर लंबा सन्नाटा
खिंच गया. कोई खबर नहीं. उस रात की कहानी बाद में पता लगी कि किस तरह से रायबरेली के तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट विनोद मल्होत्रा ने
अपने ऊपर पड़ते दबाव को झटकते हुए इंदिरा गांधी की पराजय की घोषणा की. बहरहाल
रायबरेली और वहाँ के डीएम का नाम इतिहास में दर्ज हो गया.
मोदी का निशाना
इंदिरा गांधी की उस ऐतिहासिक पराजय के 47 साल बाद सत्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदा की भांति परिवार-केंद्रित कांग्रेस पार्टी पर निशाना लगाते हुए कहा, एक ही प्रोडक्ट बार-बार लॉन्च करने के चक्कर में कांग्रेस की दुकान पर ताला लगने की नौबत आ गई है.
उन्होंने एक बात और कही, जिसपर कम लोगों का
ध्यान गया. उन्होंने कहा, विपक्ष चुनाव लड़ने का साहस खो चुका है. कुछ लोग अपनी
सीट बदल रहे हैं और कुछ राज्यसभा के रास्ते संसद आना चाहते हैं. उनका इशारा साफ-साफ
सोनिया गांधी की तरफ था. बात सही साबित हुई. सोनिया गांधी ने रायबरेली को छोड़
दिया है.
सोनिया का रायबरेली से और राहुल गांधी के अमेठी
से पलायन हुआ, तो इसका राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
इन दोनों सीटों पर गांधी परिवार के ही सदस्य चुनाव
लड़ते रहे हैं. लेकिन अगले लोकसभा चुनाव में गांधी परिवार का कोई सदस्य यूपी से
चुनाव नहीं लड़ेगा, तो उसके दूरगामी परिणाम होंगे. कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि गांधी
परिवार से यहाँ कोई चुनाव नहीं लड़ेगा, तो यूपी में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुलेगा.
राम भरोसे कांग्रेस
लोकसभा की 80 सीटों के साथ देश की राजनीति में
उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा अखाड़ा है और बीजेपी के हाथों में तुरुप का सबसे बड़ा
पत्ता. वह राज्य की उन सीटों पर तो ध्यान दे ही रही है, जिनपर 2019 में उसे जीत
मिली थी, साथ ही उन 14 को जीतने की योजना भी बना रही है, जहाँ उसे हार मिली थी. इन
14 में रायबरेली भी शामिल है, जो फिलहाल कांग्रेस का अंतिम गढ़ है, और यूपी में बीजेपी
का पसंदीदा निशाना.
2019 में अमेठी मे राहुल गांधी की हार के बाद
से बीजेपी के हौसले बढ़े हुए हैं. 2014 के लोकसभा
चुनाव में राज्य में केवल दो सीटें कांग्रेस के पास बची रह गई थीं. एक रायबरेली और
दूसरी अमेठी. उसके अगले चुनाव में राहुल गांधी की पराजय ने परिवार के वर्चस्व को लगभग
ध्वस्त कर दिया.
स्वतंत्रता के बाद से हुए 17 चुनावों में से
रायबरेली में केवल तीन बार पार्टी की हार हुई है. इस क्षेत्र ने इंदिरा गांधी को
जिताया, हराया और फिर जिताया. वह उतार-चढ़ाव का दौर था. पर आज कांग्रेस का रथ ढलान
पर है. इसबार सवाल है कि क्या 18वीं लोकसभा का चुनाव रायबरेली में चौथी पराजय
लिखेगा?
क्या प्रियंका आएंगी?
अब यह साफ है कि सोनिया ने रायबरेली को छोड़
दिया है. हालांकि उन्होंने रायबरेली जी जनता के नाम एक भावुक पत्र लिखा है, पर सच
यही है कि इस क्षेत्र से परिवार का नाता अब टूट चुका है. सोनिया के हटने के कयास
2019 के चुनाव के पहले भी थे, पर अंततः उन्होंने लड़ने का निश्चय किया. पर 2019
में अमेठी से राहुल गांधी की पराजय के बाद से पार्टी का आत्मविश्वास डोला हुआ है.
सोनिया गांधी ने राज्यसभा का रास्ता पकड़ लिया है.
बेशक उनके स्वास्थ्य को लेकर दिक्कतें हैं, पर
ज्यादा बड़ा खतरा पराजय की संभावना का है. सोनिया की पराजय ज्यादा अपमानजनक होगी. संभव
यह भी है कि परिवार की एक और सदस्य प्रियंका गांधी को यहाँ से उतारा जाए. ऐसा हुआ,
तो यह भी महत्वपूर्ण परिघटना होगी. राहुल गांधी शायद अमेठी और वायनाड से फिर
लड़ें, पर सोनिया गांधी दो जगह से लड़ने जाएंगी, तो मोदी के तंज उन्हें सुनने
पड़ेंगे.
प्रतिष्ठा को ठेस
सोनिया गांधी लगातार चार बार रायबरेली से जीत
चुकी हैं, पर उनके वोट प्रतिशत में गिरावट आती जा रही है. 2004 में उन्हें इस
इलाके से 80.49 प्रतिशत वोट मिले, जो 2009 में 72.23, 2014 में 63.80 और 2019 में
55 प्रतिशत रह गए. 2019 में लोकसभा सीट जीतने के बावजूद 2022 के विधानसभा चुनाव
में रायबरेली और अमेठी में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा.
इसका मतलब है कि संगठन से स्तर पर भी पार्टी
में गिरावट है. ऐसे में फिर से लड़ने में जोखिम थे, पर मैदान छोड़ने पर प्रतिष्ठा
को जो ठेस लगी है, वह भी कम नहीं है. रायबरेली से पलायन का मतलब है कांग्रेस के
दुर्ग का पतन.
रायबरेली, अमेठी और एक हद तक सुलतानपुर की यह
पट्टी ‘नेहरू-गांधी खानदान’ के लिए बेहद महत्वपूर्ण रही है.
फिरोज़ गांधी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल
गांधी की यह राजनीतिक नर्सरी क्या उजड़
जाएगी? ‘खानदान’ के दो
गैर-कांग्रेसी सदस्यों मेनका और वरुण गांधी को भी पड़ोस की सुलतानपुर सीट ने सहारा
दिया है.
इन सीटों पर कांग्रेस के ज्यादातर
प्रत्याशी या तो नेहरू-गांधी परिवार से रहे हैं या फिर उनके बहुत करीबी. इस इलाके
के गाँव-गाँव में तमाम ऐसे परिवार मिलेंगे, जिनकी नेहरू-गांधी परिवार तक सीधी
पहुँच रही है. इंदिरा गांधी 1977 के बाद फिर यहाँ से जीतीं. संजय गांधी के निधन के
बाद अमेठी से राजीव गांधी जीते.
फिरोज़ गांधी
इंदिरा गांधी से पहले फिरोज़ गांधी 1952
और 1957 में रायबरेली से चुनाव जीते थे. उनके चुनाव प्रचार में इंदिरा गांधी ने भी
भाग लिया था. इस वजह से वे भी इस इलाके से परिचित थीं. यह अलग बात है कि फिरोज़
गांधी ने कांग्रेस के नेतृत्व के साथ कई बार टकराव मोल लिया और नेहरू-सरकार
को कठघरे में खड़ा किया.
फिरोज़ गांधी को ‘खानदान’ की श्रेणी में
रखने के पहले देखना चाहिए कि उन्होंने सरकार की आलोचना करने में जितना समय लगाया,
उतना खानदान को बचाने में नहीं लगाया. 1959 में केरल की
कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने का मौका हो या मूंधड़ा मामले का. परिवारवाद से
उनकी अरुचि भी कभी छिपी नहीं.
फिरोज़ गांधी के निधन के कारण 1960 में
हुए चुनाव में इंदिरा गांधी ने भाग नहीं लिया. 1962 में रायबरेली को सुरक्षित सीट
बना दिया गया. 1967 में कुछ विलंब से इंदिरा गांधी ने रायबरेली को पारिवारिक
विरासत के रूप में ही अंगीकार किया.
अमेठी और रायबरेली के अलावा इसी इलाके की
एक तीसरी सीट सुलतानपुर की है. उसका रिश्ता भी नेहरू-गांधी परिवार से है.
सुलतानपुर एक तरह से संजय गांधी की राजनीतिक नर्सरी थी. उसका कुछ हिस्सा अमेठी में
पड़ता है. सुलतानपुर से वरुण गांधी का राजनीतिक जीवन भी शुरू हुआ था. अब मेनका
गांधी वहाँ का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. संजय गांधी के निधन के बाद नेहरू-गांधी
परिवार की यह धारा कांग्रेस से अलग बहती है.
कभी यूपी की फूलपुर लोकसभा सीट परिवार के
नाम से पहचानी जाती थी, जब जवाहर लाल नेहरू ने लगातार तीन बार इसका प्रतिनिधित्व
किया. उनके निधन के बाद विजय लक्ष्मी पंडित ने भी इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया.
वह गढ़ बनने के पहले ही ढह गया था, पर रायबरेली का गढ़ अभी तक बचा था. वह भी टूट
गया है.
No comments:
Post a Comment