मई 2014 में लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने बजाय आत्ममंथन करने के घोषणा की कि हम बाउंस बैक करेंगे। उस साल नवम्बर के महीने में मोदी सरकार के 6 महीने के कार्यकाल के दौरान विभिन्न मुद्दों पर यू-टर्न लेने का आरोप लगाते हुए बुकलेट जारी की। '6 महीने पार, यू टर्न सरकार' टाइटल वाली इस बुकलेट में विभिन्न मुद्दों पर बीजेपी सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया था। कांग्रेस को लगता था कि उसने कहीं नारेबाजी में गलती की है। उसके बाद सन 2015 में पार्टी ने आक्रामक होने का फैसला किया। संसद के मॉनसून सत्र में व्यापम और सुषमा स्वराज वगैरह के खिलाफ मोर्चा खोला गया। संसदीय कार्यवाही ठप कर दी गई। उसके बाद से पार्टी की हर कोशिश विफल हो रही है। उसे हाल में एक मात्र सफलता पंजाब में मिली है, पर अकाली-भाजपा सरकार की ‘एंटी इनकम्बैंसी’ को देखते हुए इसे पार्टी नेतृत्व की सफलता नहीं कहा जा सकता।
पिछले साल नवम्बर में की गई नोटबंदी के खिलाफ कांग्रेस और विपक्ष ने हंगामा खड़ा किया, पर वह जनता के मूड को समझने में विफल रहा। सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर कांग्रेसी बयान उल्टे पड़े। अब लालबत्ती हटाने का फैसला तुरुप का पत्ता साबित हो रहा है। भाजपा के बाहर और शायद भीतर भी, मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब यह विजय रथ धीमा पड़ेगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार को सन 2015 में पहले दिल्ली और बाद में बिहार के विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा था। पर इन दो झटकों को छोड़ दें तो और कोई बड़ी विफलता उसे नहीं मिली है। पर उत्तर प्रदेश के परिणामों ने तो गैर-भाजपा विपक्ष के हाथों के तोते उड़ा दिए हैं। उन्हें लगता है कि सन 2019 के चुनाव भी गया बीजेपी की गोद में। हाल में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद देश के 15 राज्य बीजेपी के झंडे तले आ गए हैं। अब इस बात की कोशिश की जा रही है कि विपक्षी एकता को राष्ट्रीय शक्ल दी जाए, जिसके लिए सबसे अच्छा मौका है राष्ट्रपति चुनाव। इस चुनाव में गैर-भाजपा दलों की गोलबंदी और साझा उम्मीदवार को लेकर जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार की कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी से मुलाकात के अगले दिन राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने भी देश में भाजपा के खिलाफ अभियान शुरू करने की घोषणा की है। हाल में मायावती ने भी इस बात के संकेत दिए हैं कि वे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ आने को तैयार हैं।
विपक्ष की एकता के दो पहलू हैं। पहला है तात्कालिक रूप से राष्ट्रपति चुनाव और दूसरा है सन 2019 का लोकसभा चुनाव। सन 2014 के चुनाव के पहले भी विपक्षी एकता की कोशिश की गई थी, पर वह विफल रही। वस्तुतः 1967 से अब तक विपक्षी पार्टियों की एकजुटता की बहुत कम मिसालें हैं। और जो हैं भी, वे सफलता से ज्यादा विफलता की कहानी कहती हैं। अलबत्ता सन 1989 के बाद से केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था, जो सन 2014 में थम गया। इसके साथ राजनीति का पहिया पूरी तरह घूम गया है। इसके पहले की विपक्षी एकता कांग्रेस के विरोध में होती थी, जो अब भाजपा-विरोधी एकता की शक्ल ले चुकी है।
गैर-भाजपा एकता की कोशिश होगी तो उसके साथ कुछ सवाल भी खड़े होंगे। पहला सवाल नेतृत्व का है। क्या कोई एक दल इसकी धुरी बनेगा? सहज रूप से कांग्रेस की राष्ट्रीय उपस्थिति उसे नेतृत्व की भूमिका देती है, पर क्या दूसरे दल उसके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे? क्या उसके नेता राहुल गांधी की साख राष्ट्रीय स्तर पर इतनी है कि वे चुनाव जिता ले जाएं। क्या बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति और एनसीपी जैसे दल राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करने को तैयार होंगे? तमिलनाडु में दो द्रविड़ पार्टियाँ हैं। क्या दोनों एक मंच पर आ सकती हैं? क्या वाम मोर्चा और टीएमसी का समन्वय सम्भव है? राष्ट्रपति चुनाव में जो सम्भव है, वह क्या लोकसभा चुनाव में भी सम्भव होगा?
खबरें हैं कि ममता बनर्जी ने गुरुवार को ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से भुवनेश्वर में मुलाकात की। सच यह है कि नवीन पटनायक और मोदी सरकार के बीच रिश्ते अच्छे रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के लिए बीजेपी को भी कुछ वोटों की जरूरत है। बीजेपी भी बीजेडी के सम्पर्क में है। इसलिए ममता-पटनायक वार्ता महत्त्वपूर्ण है। दोनों राज्यों में बीजेपी अपनी जगह बना रही है। पश्चिम बंगाल में दो सीटों पर हुए हाल के उपचुनावों में टीएमसी बड़े अंतर से जीती जरूर, पर बीजेपी का दूसरी पायदान पर पहुंचना ममता की चिंता का विषय हो सकता है। उनके लिए वाम मोर्चा के मुकाबले भाजपा ज्यादा बड़ा खतरा बन सकती है। इसी तरह ओडिशा में हाल के पंचायत चुनावों में बीजेपी का बेहतर प्रदर्शन नवीन पटनायक के लिए खतरे के संकेत है।
पिछले सोमवार को ममता बनर्जी ने दिल्ली में कहा कि हम मिलकर काम कर सकें तो मुझे खुशी होगी। पिछले शुक्रवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ विचार-विमर्श किया। उधर राहुल गांधी और सीताराम येचुरी तथा सीपीआई के डी राजा की मुलाकात हुई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने अपने कार्यालय में विपक्षी नेताओं की एक बैठक बुलाई जिसमें तय किया गया कि वोटिंग मशीनों में छेड़छाड़ को लेकर सभी दलों का रुख एक रहेगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव में पराजय के बाद मायावती ने यह मसला उठाया था, जिसे अरविन्द केजरीवाल ने बढ़ाया। दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव के संदर्भ में अरविन्द केजरीवाल घोषणा कर चुके हैं कि यदि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं होगी तो हमें 200 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। इसका मतलब साफ है कि यदि चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार हुई तो ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा जाएगा। इस किस्म की राजनीति जनता को पसंद आएगी या नहीं, इसे देखना होगा।
बहरहाल विरोधी दलों का एक-दूसरे के करीब आना कोई नई बात नहीं है। सवाल है कि यह एकता कितने समय तक बनी रहेगी? उनकी एकता के अलावा उनके बीच मतभेद के कारण क्या हैं? यदि उनके बीच वैचारिक एकता इतनी ही तीव्र है तो वे अनेक क्यों हैं? क्यों नहीं वे विलय करके और करीब आ जाते हैं? इस किस्म की एकता पर ‘मौका-परस्ती’ का आरोप चस्पां होता है, जो अब भी होगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
पिछले साल नवम्बर में की गई नोटबंदी के खिलाफ कांग्रेस और विपक्ष ने हंगामा खड़ा किया, पर वह जनता के मूड को समझने में विफल रहा। सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर कांग्रेसी बयान उल्टे पड़े। अब लालबत्ती हटाने का फैसला तुरुप का पत्ता साबित हो रहा है। भाजपा के बाहर और शायद भीतर भी, मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब यह विजय रथ धीमा पड़ेगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार को सन 2015 में पहले दिल्ली और बाद में बिहार के विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा था। पर इन दो झटकों को छोड़ दें तो और कोई बड़ी विफलता उसे नहीं मिली है। पर उत्तर प्रदेश के परिणामों ने तो गैर-भाजपा विपक्ष के हाथों के तोते उड़ा दिए हैं। उन्हें लगता है कि सन 2019 के चुनाव भी गया बीजेपी की गोद में। हाल में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद देश के 15 राज्य बीजेपी के झंडे तले आ गए हैं। अब इस बात की कोशिश की जा रही है कि विपक्षी एकता को राष्ट्रीय शक्ल दी जाए, जिसके लिए सबसे अच्छा मौका है राष्ट्रपति चुनाव। इस चुनाव में गैर-भाजपा दलों की गोलबंदी और साझा उम्मीदवार को लेकर जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार की कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी से मुलाकात के अगले दिन राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने भी देश में भाजपा के खिलाफ अभियान शुरू करने की घोषणा की है। हाल में मायावती ने भी इस बात के संकेत दिए हैं कि वे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ आने को तैयार हैं।
विपक्ष की एकता के दो पहलू हैं। पहला है तात्कालिक रूप से राष्ट्रपति चुनाव और दूसरा है सन 2019 का लोकसभा चुनाव। सन 2014 के चुनाव के पहले भी विपक्षी एकता की कोशिश की गई थी, पर वह विफल रही। वस्तुतः 1967 से अब तक विपक्षी पार्टियों की एकजुटता की बहुत कम मिसालें हैं। और जो हैं भी, वे सफलता से ज्यादा विफलता की कहानी कहती हैं। अलबत्ता सन 1989 के बाद से केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था, जो सन 2014 में थम गया। इसके साथ राजनीति का पहिया पूरी तरह घूम गया है। इसके पहले की विपक्षी एकता कांग्रेस के विरोध में होती थी, जो अब भाजपा-विरोधी एकता की शक्ल ले चुकी है।
गैर-भाजपा एकता की कोशिश होगी तो उसके साथ कुछ सवाल भी खड़े होंगे। पहला सवाल नेतृत्व का है। क्या कोई एक दल इसकी धुरी बनेगा? सहज रूप से कांग्रेस की राष्ट्रीय उपस्थिति उसे नेतृत्व की भूमिका देती है, पर क्या दूसरे दल उसके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे? क्या उसके नेता राहुल गांधी की साख राष्ट्रीय स्तर पर इतनी है कि वे चुनाव जिता ले जाएं। क्या बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति और एनसीपी जैसे दल राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करने को तैयार होंगे? तमिलनाडु में दो द्रविड़ पार्टियाँ हैं। क्या दोनों एक मंच पर आ सकती हैं? क्या वाम मोर्चा और टीएमसी का समन्वय सम्भव है? राष्ट्रपति चुनाव में जो सम्भव है, वह क्या लोकसभा चुनाव में भी सम्भव होगा?
खबरें हैं कि ममता बनर्जी ने गुरुवार को ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से भुवनेश्वर में मुलाकात की। सच यह है कि नवीन पटनायक और मोदी सरकार के बीच रिश्ते अच्छे रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के लिए बीजेपी को भी कुछ वोटों की जरूरत है। बीजेपी भी बीजेडी के सम्पर्क में है। इसलिए ममता-पटनायक वार्ता महत्त्वपूर्ण है। दोनों राज्यों में बीजेपी अपनी जगह बना रही है। पश्चिम बंगाल में दो सीटों पर हुए हाल के उपचुनावों में टीएमसी बड़े अंतर से जीती जरूर, पर बीजेपी का दूसरी पायदान पर पहुंचना ममता की चिंता का विषय हो सकता है। उनके लिए वाम मोर्चा के मुकाबले भाजपा ज्यादा बड़ा खतरा बन सकती है। इसी तरह ओडिशा में हाल के पंचायत चुनावों में बीजेपी का बेहतर प्रदर्शन नवीन पटनायक के लिए खतरे के संकेत है।
पिछले सोमवार को ममता बनर्जी ने दिल्ली में कहा कि हम मिलकर काम कर सकें तो मुझे खुशी होगी। पिछले शुक्रवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ विचार-विमर्श किया। उधर राहुल गांधी और सीताराम येचुरी तथा सीपीआई के डी राजा की मुलाकात हुई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने अपने कार्यालय में विपक्षी नेताओं की एक बैठक बुलाई जिसमें तय किया गया कि वोटिंग मशीनों में छेड़छाड़ को लेकर सभी दलों का रुख एक रहेगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव में पराजय के बाद मायावती ने यह मसला उठाया था, जिसे अरविन्द केजरीवाल ने बढ़ाया। दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव के संदर्भ में अरविन्द केजरीवाल घोषणा कर चुके हैं कि यदि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं होगी तो हमें 200 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। इसका मतलब साफ है कि यदि चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार हुई तो ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा जाएगा। इस किस्म की राजनीति जनता को पसंद आएगी या नहीं, इसे देखना होगा।
बहरहाल विरोधी दलों का एक-दूसरे के करीब आना कोई नई बात नहीं है। सवाल है कि यह एकता कितने समय तक बनी रहेगी? उनकी एकता के अलावा उनके बीच मतभेद के कारण क्या हैं? यदि उनके बीच वैचारिक एकता इतनी ही तीव्र है तो वे अनेक क्यों हैं? क्यों नहीं वे विलय करके और करीब आ जाते हैं? इस किस्म की एकता पर ‘मौका-परस्ती’ का आरोप चस्पां होता है, जो अब भी होगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
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