अरविन्द केजरीवाल ने
एक बार फिर से माफी माँगी है कि हमने जनता के मिज़ाज को ठीक से नहीं समझा। आम आदमी
पार्टी जितनी तेजी से उभरी थी, उससे भी ज्यादा तेजी के साथ उसका ह्रास होने लगा
है। पिछले डेढ़-दो महीनों में उसे जिस तरह से सिलसिलेवार हार का सामना करना पड़
रहा है, वह आश्चर्यजनक है। राजनीतिक दलों की चुनाव में हार कोई अनहोनी नहीं है।
ऐसा होता रहता है, पर जिस पार्टी का आधार ही नहीं बन पाया हो, उसका तेज पराभव
ध्यान खींचता है। सम्भव है पार्टी इस झटके को बर्दाश्त कर ले और फिर से मैदान में
आ जाए। पर इस वक्त उसपर संकट भारी है। दो साल पहले दिल्ली के जिस मध्यवर्ग ने उसे
अभूतपूर्व जनादेश दिया था, उसने हाथ खींच लिया और ऐसी पटखनी दी है कि उसे
बिलबिलाने तक का मौका नहीं मिल रहा है।
पार्टी के नेता संजय
सिंह का कहना है कि कोई तो कमी है हम में कि 2013 और 2015 में जिताने वाली जनता ने
एमसीडी चुनाव में वोट नहीं दिया। हम सब लोगों से घर-घर जाकर अपनी गलतियों के बारे
में पूछेंगे, उनसे माफी मांगेंगे। दुबारा विश्वास जगाने की कोशिश करेंगे।
पिछले दो दिन से पार्टी के भीतर से जो बातें निकल कर आ रहीं हैं उनसे यह भी लगता
है कि मतभेद ज्यादा बड़े स्तर पर हैं। आने वाले कुछ दिनों में चुनाव आयोग दिल्ली
के 21 विधायकों की सदस्यता के बारे में फैसला सुनाने वाला है। यह फैसला आने के बाद
पार्टी किस तरफ जाएगी, अभी कहना मुश्किल है।
दिल्ली में ही नहीं पार्टी
की पंजाब यूनिट में भी बगावत का खतरा है। पंजाब में पार्टी के
संयोजक गुरप्रीत सिंह घुग्गी ने पार्टी हाईकमान को राज्य में स्थानीय कार्यकर्ताओं
और नेताओं को नजरंदाज नहीं करने की नसीहत दी है। घुग्गी ने कहा है कि दूसरे दल ‘आप’ के विधायकों को तोड़ने
की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा,
‘जिस तरह के पार्टी
ने अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं से दूरी बना ली है उससे लोग पार्टी से अलग
होने पर विचार तक करने लगे हैं।’ ऐसी भी अफवाहें हैं कि एक दर्जन विधायक नई पार्टी बनाने
के बारे में विचार कर रहे हैं।
उधर दिल्ली में पार्टी
के नेता कुमार विश्वास ने कहा है कि हमारे चुनाव हारने का कारण ईवीएम नहीं बल्कि, लोगों से
संवाद की कमी है। उन्होंने पार्टी में व्यापक बदलाव का सुझाव दिया है। उनका कहना
है कि हम अपने कार्यकर्ताओं के साथ ठीक से संवाद नहीं कर पाए। एमसीडी चुनावों में
गलत लोगों को टिकट दिया गया। उन्होंने कहा कि ईवीएम में गड़बड़ी चुनाव का हिस्सा
है। इसके लिए कई प्लेटफॉर्म हैं। चुनाव आयोग है, कोर्ट है, जहां हम अपनी
बात दर्ज करा सकते हैं।
पार्टी के भीतर इस बात
को लेकर भी मतभेद हैं कि नरेन्द्र मोदी और केन्द्र सरकार के साथ पार्टी ने टकराव
की जो नीति अपनाई वह उचित थी या नहीं। कुमार विश्वास ने सर्जिकल स्ट्राइक की आलोचना
को लेकर भी नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि केजरीवाल को ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। संजय सिंह ने माना है कि पार्टी की नीतियों में
दोष हैं, पर उन्हें लगता है कि कुमार विश्वास को अपनी राय पार्टी फोरम में रखनी
चाहिए थी। पर कुमार विश्वास का यह कहना कि पार्टी
में कई फैसले बंद कमरों में किए गए, पहले से उनके मन में बैठे असंतोष को व्यक्त
करता है।
अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी के नए पार्षदों और
विधायकों की बैठक में अंतर-मंथन का इशारा भी किया है। उधर नेताओं की अंतर्विरोधी
बातें सामने आ रहीं हैं और संशय भी। पार्टी तय नहीं कर पाई है कि क्या बातें कमरे
के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर। पार्टी के इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके
इसके पहले आए हैं। एक, लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली
विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद। पार्टी की पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के
बाद ही हुई थी। और उसका कारण था विचार-मंथन की प्रक्रिया में खामी।
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के हटने के बाद
पिछले साल पंजाब में संयोजक के पद सुच्चा सिंह छोटेपुर का हटना बड़ी घटना थी। यह
पार्टी भी ‘हाईकमान’ से चलती है। इसके केन्द्र में कुछ लोगों की
टीम है, जो फैसले करती है। यह भी सही है कि यही टीम इसे एक बनाए रखती है। वैसे ही
जैसे नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस को और संघ परिवार बीजेपी को एक बनाकर रखता है। पर
यही बात तो उनकी कमजोरी है।
‘आप’ एक छोटा एजेंडा लेकर मैदान में उतरी थी। व्यापक
कार्यक्रम अनुभव की ज़मीन पर विकसित होगा, बशर्ते वह खुद कायम रहे। उसे सबसे पहले
नगरपालिका के चुनाव लड़ने चाहिए थे। गली-मोहल्लों के स्तर पर वह नागरिकों की जिन
कमेटियों की कल्पना लेकर आई, वह अच्छी थी। इस मामले में मुख्यधारा की पार्टियाँ
फेल हुई हैं। पर जनता के साथ सीधे संवाद के आधार पर फैसले करने वाली प्रणाली को
विकसित करना मुश्किल काम है। यह काम सबसे निचले स्तर पर किया जाए तो उसके दूरगामी
परिणाम होंगे। पर उसके लिए पार्टी को कुछ समय के लिए अपनी राष्ट्रीय
महत्वाकांक्षाओं को पीछे रखना होगा। सन 2014 के चुनाव में केजरीवाल को वाराणसी से
चुनाव लड़ने की क्या जरूरत थी?
वैकल्पिक राजनीति की बातें तो हुईं, पर उस
राजनीति के विषय खोजे नहीं गए। इसलिए वही मोदी, राहुल, नीतीश, लालू और ममता। उन्हीं
राष्ट्रीय प्रश्नों पर वैसी ही बयानबाज़ी जैसा मुख्यधारा की राजनीति का शगल है। पार्टी
की सबसे बड़ी कमजोरी है, आंतरिक लोकतंत्र की अनुपस्थिति। उसकी भी हाईकमान है। उसने क्षेत्रीय-राष्ट्रीय
क्षत्रपों की तरह अरविन्द केजरीवाल को ब्रांड बनाया और उनकी तस्वीरों से दिल्ली
शहर को पाट दिया।
आम आदमी पार्टी शहरी
मध्यवर्ग के प्रतिनिधि दल के रूप में उभरी थी। अब शहरी मध्यवर्ग का उससे मोहभंग हो
चुका है। पार्टी की अच्छाई यह थी कि यह भारी-भरकम
विचारधारा से मुक्त थी। उसके भीतर नए विचारों को स्वीकार करने की सामर्थ्य थी और
वैचारिक आधार व्यापक था। वह मुख्यधारा के दलों के दोषों को दूर करने की माँग के
सहारे उभरी थी। और अब वह खुद उन्हीं दोषों की शिकार है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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