पिछले हफ्ते देश के आर्थिक विकास के तिमाही परिणाम आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी ने कहा कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के मामले में हारवर्ड वालों को ‘हार्ड वर्क’ वालों ने पछाड़ दिया. मोदी ने जीडीपी के ताजा आंकड़ों के
हवाले से बताया कि नोटबंदी के बावजूद अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी नहीं पड़ी. एक
तरफ वे हैं जो हारवर्ड की बात करते हैं और दूसरी तरफ यह गरीब का बेटा है जो हार्ड
वर्क से देश की अर्थव्यवस्था बदलने में लगा है.
मोदी ने यह बात चुनाव सभा में कही. उनके भाषणों में नाटकीयता होती है. वोटर को
नाटकीयता पसंद भी आती है. पर चुनाव नाटक नहीं है. चुनाव से जुड़ा विमर्श असलियत को
सामने नहीं लाता, बल्कि भरमाता है. चिंता की बात है कि चुनाव के प्रति वोटर की नकारात्मकता
बढ़ी है. उसे जीडीपी के आँकड़ों को पढ़ना नहीं आता. राजनीति की जिम्मेदारी है कि उसका
मतलब समझाए.
सरकार ने ग्रोथ के जो आँकड़े बताए हैं, वे सही हैं, पर उनमें अभी बदलाव सम्भव
है. फिलहाल निष्कर्ष यह है कि जिन लोगों ने कहा था कि नोटबंदी के कारण
अर्थ-व्यवस्था चौपट हो जाएगी, वे पूरी तरह सही नहीं थे. पर कुछ न कुछ नकारात्मक
हुआ है. कितना फर्क पड़ा, इसकी पुष्टि होने में अभी समय लगेगा. इसका दूरगामी लाभ
होगा या नहीं, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता. चुनाव के वक्त जनता के सामने तथ्यों को
सही तरीके से रखा जाना चाहिए.
दिक्कत यह है कि राजनीति, जनता को उसके मसलों से दूर ले जा रही है. उसे
गाली-गलौज में उलझा रही है. पिछले हफ्ते बिहार में नरेन्द्र मोदी की तस्वीर पर
जूते-चप्पल चलाए गए. इस काम के लिए लोगों को एक मंत्री ने उकसाया था. बाद में उन्होंने
कहा, किसी की भावना को ठेस पहुँची हो तो हम क्षमा चाहते हैं. कोई किसी के सिर पर
जूते चलाए और कहे, ‘आपकी भावना को ठेस लगी हो तो...’ ऐसी
राजनीति क्यों है?
उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी ने केरल के मुख्यमंत्री पिनारी
विजयन का सिर काटकर लाने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी. बाद में उन्होंने भी
माफी माँग ली. बहरहाल उन्हें संघ से निकाल दिया गया. पर, क्या यह उसी राजनीति का
प्रतिरूप नहीं है? हाल में कोलकाता के एक मौलाना ने मोदी के सिर के बाल मूंड़ने वाले को इनाम
देने की घोषणा की थी. ये मौलाना इससे पहले तसलीमा नसरीन की गर्दन पर भी इनाम घोषित
कर चुके हैं.
हम सामंती
दौर से बाहर नहीं निकले हैं. हमारी शब्दावली सामंती है. इसे छोड़ना होगा. लोकतंत्र
आधुनिक विचार है, पर उसके भी अंतर्विरोध हैं. हमारे देश में कोई दिन नहीं जाता जब किसी कोने से अभद्र, अमर्यादित और कुत्सित बयान जारी
नहीं होता हो. चुनावों के दौरान यह बयानबाज़ी चरम पर होती है. शायद हमारे जीवन में
जहर ही जहर है, जो चुनाव के वक्त बाहर निकलता है.
जैसे-जैसे संवाद के साधन बढ़ रहे हैं, जहर बढ़ता जा रहा है. लोकतंत्र से जुड़े
तमाम मूल्यों को हम भूल चुके हैं. केवल चुनाव जीतना ही लोकतंत्र की केन्द्रीय गतिविधि नहीं है. नागरिकों की सामूहिक
धारणाओं को विकसित करना इसका उद्देश्य है. पर राजनीति वोटर को भरमाने में लगी है. और
वोटर इसकी अनुमति दे रहा है.
लोकतंत्र के सवाल वैश्विक स्तर पर भी हैं. भारत में
अपने तरह के सवाल हैं और अमेरिका में दूसरे. जेम्स हार्डिंग की पुस्तक है ‘अल्फा डॉग्स.’ इसमें लेखक ने बताया है कि अमेरिका में सत्तर के दशक
से ऐसे व्यावसायिक समूह खड़े हो गए हैं जो लोकतंत्र का संचालन कर रहे हैं. अमेरिका
में ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में. भारत में लोकतंत्र का लक्ष्य चुनाव जीतना
और फिर सब भूल जाना. जन-प्रतिनिधि बनने के बाद जो चाहे करें. चुनाव जिताने की
विशेषज्ञता प्राप्त कम्पनियां मैदान में उतर आईं हैं. ये कम्पनियाँ देश-काल और
समाज के हिसाब से मुहावरे और नारे गढ़ती हैं.
लोकतंत्र जनमत या पब्लिक ओपीनियन के सहारे चलता है. गोलबंदी पब्लिक ओपीनियन में
ही सबसे ज्यादा नजर आती है. कोशिश इस बात की है कि किसी एक नेता या दल के समर्थकों
के मन में दूसरे दल या नेताओं के लिए नफरत की आग भर दी जाए. जब जनता के नेता दूसरे
समूह के नेताओं के लिए अपमान भरी टिप्पणी करते हैं, तो उन्हें खुशी होती है. इससे अपनी जमात में नेता की जमीन मजबूत होती है. सरकार
और प्रशासन की नीतियाँ जाएं कूड़ेदान में.
सामाजिक ध्रुवीकरण की फसल के लिए लोकतंत्र उपजाऊ जमीन है. इससे नेता का वोट-आधार
बना रहता है. इस जहरीले संवाद में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है. अब ज्यादातर
राजनीतिक दल सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं. और यह काम विशेषज्ञ कर रहे हैं. मुख्यधारा
का मीडिया भी अब ह्वाट्सएप की भाषा और रूपकों का इस्तेमाल कर रहा है. अखबारों और
वैबसाइटों की रिपोर्टें ह्वाट्सएप संदेशों जैसी लगने लगी हैं.
लोकतंत्र की नई परिभाषाओं के तहत हमने मान लिया है कि राजनेता समाज सेवक नहीं, फिक्सर और दलाल है. हमें अपना
काम कराना है तो उसकी मदद लेनी होगी. आप व्यापारी हैं, सरकारी कर्मचारी हैं, किसी
चीज पर अवैध कब्जा करके बैठे हैं या नए प्रोफेशनल. सरकारी कामों के लिए आपको दलाल
चाहिए. गरीब जनता को भी मददगार चाहिए. राजनेताओं के पास कारकुनों का नेटवर्क है.
शहरी झुग्गी-झोपड़ियों का प्रबंधन ये कारकुन ही करते हैं. इनके पास होता है एक बना
बनाया वोट बैंक.
चुनाव बड़े बिजनेस का रूप ले चुका है. उत्तर प्रदेश
के चुनाव पर गौर करें. समाजवादी पार्टी ने हारवर्ड के स्टीव जार्डिंग की सेवाएं ली
हैं. बीजेपी ने एसोसिएशन ऑव ब्रिलियंट माइंड्स और कांग्रेस ने प्रशांत किशोर की.
यानी साधन सम्पन्न पार्टियाँ इसे व्यवसाय के रूप में देख रहीं हैं. चुनाव अभियान
संचालित करना व्यवसाय है. दूसरा धंधा है सोशल मीडिया को हैंडल करना. ओपीनियन पोल के
कारोबार में बिजनेस एजेंसियाँ कूद पड़ीं है. यह सोशल रिसर्च का हिस्सा है. उसका
अंग बनकर उभरा है ओपीनियन पोल.
लोकतंत्र मूल्यबद्ध परिकल्पना है, पर उसके व्यावहारिक
जोखिम भी हैं. उसकी सफलता के लिए जरूरी है कि उसकी इकाई यानी वोटर विवेकशील हो और
ताकतवर भी. लोक-शिक्षण की स्थिति जब तक नहीं सुधरेगी, संकीर्ण बातें उसे घेरे
रहेंगी. वोटर ही न्यस्त स्वार्थों को काबू में रख सकता है. यह तभी होगा जब उसे उचित-अनुचित
की समझ हो. आप खुद सोचें, क्या ऐसा है?
प्रभात खबर में प्रकाशित
लोकतंत्र मूल्यबद्ध परिकल्पना है, पर उसके व्यावहारिक जोखिम भी हैं. उसकी सफलता के लिए जरूरी है कि उसकी इकाई यानी वोटर विवेकशील हो और ताकतवर भी.
ReplyDeleteसही कहा है आपने, अब जागरूक जनता ही सही व्यक्ति को चुन कर सत्ता तक पहुंचा सकती है वरना तो भगवान भरोसे सब चल ही रहा है
हमेशा की तरह एक और बेहतरीन लेख ..... ऐसे ही लिखते रहिये और मार्गदर्शन करते रहिये ..... शेयर करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)
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