हाल के वर्षों
में यह नजर आया है कि स्थानीय निकायों के चुनाव भी राज्य और राष्ट्रीय स्तर की
राजनीति और जनमत को व्यक्त करते हैं। बंगाल और केरल की राजनीति में यह प्रवृत्ति
पहले से देखने को मिलती थी, क्योंकि वामपंथी दल हरेक स्तर पर विचारधारा के साथ
सक्रिय रहते हैं। इन राज्यों में ग्राम सभा स्तर तक राजनीतिक दल पहुँच चुके हैं,
जबकि एक अरसे तक देश में इस बात पर जोर दिया जाता था कि स्थानीय निकायों में
प्रतिनिधित्व राजनीति पहचान के आधार पर नहीं होना चाहिए क्योंकि वहाँ विचारधारा की
जगह स्थानीय मुद्दे होते हैं। ये परिणाम स्थानीय निकाय स्तर तक पार्टी के संगठन और
नेतृत्व की क्षमता के संकेतक भी होते हैं।
केन्द्र में मोदी
सरकार के तीन साल पूरे होने में अभी तीन महीने बाकी हैं। अभी से सन 2019 के चुनाव
को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। राष्ट्रीय सवाल दो तरह के हैं। एक, राजनीतिक गठबंधन के स्तर पर और दूसरा मुद्दों
को लेकर। सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि कांग्रेस का क्या होने वाला
है? उसकी गिरावट रुकेगी या
बढ़ेगी? नोटबंदी का मुद्दा इन
सवालों की कसौटी बनकर उभरा है। हाल में महाराष्ट्र में हुए चुनावों को राष्ट्रीय
मुद्दों के साथ जोड़ने की एक बड़ी वजह नोटबंदी थी। पिछले कई दशकों में शायद
नोटबंदी ऐसा पहला मसला है, जिसने देश के हर कोने के नागरिकों के जीवन पर असर डाला
है।
पिछले साल
नोटबंदी की घोषणा होने के बाद सबसे पहले ममता बनर्जी ने विरोध के स्वर ऊँचे किए थे
और सबसे पहले उनके साथ शिवसेना इस मुहिम में आगे आई थी। महाराष्ट्र के स्थानीय
निकाय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षाकृत बड़ी सफलता मिली है और
बृहन्मुम्बई नगर महापालिका के चुनाव में सन 2012 के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करने
के बावजूद शिवसेना का महाराष्ट्र में प्रभाव कम हुआ है। क्या इससे यह निष्कर्ष
निकालना चाहिए कि नोटबंदी को जनता ने नकारा नहीं, बल्कि इसका समर्थन किया है?
पाँच राज्यों के परिणाम आने के बाद इस सवाल का बेहतर जवाब मिलेगा। अलबत्ता
नरेन्द्र मोदी के स्वरों से लगता है कि उनके हौसले बढ़े हैं। उत्तर प्रदेश के
चुनाव के पहले तीन चरणों में पार्टी नोटबंदी को लेकर आक्रामक नहीं थी, पर शुक्रवार
को गोंडा की रैली में नरेन्द्र मोदी ने अपने विरोधियों पर नोटबंदी के सवाल पर
करारे वार किए। उन्होंने कहा, जिस-जिस का पैसा लुटा है, वो एक तरफ इकट्ठे हो गए हैं। 15 सालों में सपा-बसपा एक दूसरे के विरोधी रहे
हैं। लेकिन नोटबंदी के बाद दोनों का सुर एक हो गया है। उन्होंने कहा कि ओडिशा में
अभी चुनाव हुआ,
भाजपा को इतना जन-समर्थन
मिला कि देश के बाकी दल चौंक गए। अब महाराष्ट्र के चुनाव के नतीजे आए। कांग्रेस
पूरी तरह से साफ हो गई।
केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि विपक्षी पार्टियों को अब देश की
जनता का मिजाज समझ लेना चाहिए। उन्होंने कहा, महाराष्ट्र तथा गुजरात निकाय चुनाव
में भाजपा ने भारी जीत दर्ज की है। चुनाव परिणाम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के
नोटबंदी के कदम का विरोध करने वालों को आईना दिखा दिया है। वस्तुतः पिछले 8 नवंबर को नोटबंदी की घोषणा के बाद देश के सात राज्यों के हुए निकाय चुनावों
और उपचुनावों में भाजपा को सफलता मिली है। ओडिशा में भाजपा का खास जनाधार नहीं है।
पार्टी यहाँ सत्तारूढ़ बीजू जनता दल के बाद दूसरे नंबर पर आई और कांग्रेस तीसरे
नंबर पर चली गई।
पिछले साल नवंबर में गुजरात में जिला पंचायत, तहसील पंचायत और
नगरपालिका की 125 सीटों पर हुए चुनाव में भाजपा को 109 सीटें मिलीं। पिछले साल दिसंबर
में राजस्थान में हुए निकाय चुनावों में भाजपा ने 37 में 19 सीटों पर जीत दर्ज की। चंडीगढ़ में हुए नगर निगम चुनाव में भाजपा ने 26 में से 20 सीटों पर जीत दर्ज की। पार्टी को यहां 20 साल बाद बहुमत मिला। जनवरी
में मध्य प्रदेश में हुए नगर परिषद चुनाव में भाजपा को 35 में से 30 सीटों पर और कांग्रेस को 4 सीट पर जीत मिला। जनवरी में हरियाणा
के फरीदाबाद नगर निगम चुनाव में भाजपा 40 में से 30 सीटों पर जीत दर्ज
की। नोटबंदी के बाद विभिन्न राज्यों की 14 सीटों पर हुए विधानसभा और लोकसभा
के उपचुनाव में भी भाजपा का बेहतर प्रदर्शन रहा।
महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम जिस रोज आए उत्तर प्रदेश में चौथे चरण का मतदान चल
रहा था। अभी तीन चरण का मतदान बाकी है। इन परिणामों का सीधा असर भले ही बाकी तीन
दौरों पर न हो, पर भाजपा कार्यकर्ताओं के मनोबल पर इसका असर जरूर होगा।
भाजपा-विरोधी कार्यकर्ता, खासतौर से कांग्रेस पर भी इसका असर होगा। भाजपा ने इस
प्रभाव को मुकम्मल करने का फैसला भी किया है। पार्टी ने 25 फरवरी को विजय दिवस के
रूप में पूरे देश में इस जीत का जश्न मनाया। पर असली संदेश पूर्वी उत्तर प्रदेश के
नाम है।
मोदी सरकार ने नोटबंदी का फैसला करते समय क्या सोचा था पता नहीं, पर उसे इस
बात का पता फौरन लग गया होगा कि बगैर तैयारी के किया गया यह फैसला भारी पड़ेगा।
शायद उसने यह विचार नहीं किया था कि इस देश में गरीबी दूर करने का सपना हाथों-हाथ
बिकता है। इसलिए उसके नकारात्मक पक्ष को भी मोदी गरीबों की ओर मोड़ने में कामयाब
हुए हैं। उनकी शब्दावली में ‘गरीब’ शब्द अब बार-बार आ रहा है। ऐसा लगता है कि पार्टी
ने 2019 में गरीब को केंद्र में रखने का फैसला कर लिया है।
यकीनन गरीबों को नोटबंदी ने परेशान किया है, पर उन्हें इस बात पर संतोष है कि अमीरों के घर से नोट पकड़े गए। कोई है जो
अमीरों के काले धन को निकालने की कोशिश कर रहा है। बीजेपी की इस गरीब-मुखी राजनीति
की परीक्षा अगले ढाई साल में होगी। पर मौका बार-बार नहीं मिलेगा। सन 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर जीतीं इंदिरा गांधी को
1977 में भारी पराजय का सामना करना पड़ा था। सन 2019 से पहले भाजपा के सामने सबसे
बड़ा लक्ष्य उत्तर प्रदेश है। यहाँ पता लगेगा कि नोटबंदी की भूमिका वास्तव में
क्या थी।
हरिभूमि में प्रकाशित
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 27 फरवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... शानदार पोस्ट .... Nice article with awesome depiction!! :) :)
ReplyDeleteबढ़िया
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