भारत के लिए यह साल बेहद उथल-पुथल
वाला साल रहा। इस साल देश के नाम तीन तरह के संदेश थे। पहला अपनी आर्थिक स्थिति को
सुधारने का। दूसरा, अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को ठीक करने का और तीसरा आंतरिक राजनीति
और लोकतंत्र के नाम। तीनों मोर्चों पर जबर्दस्त जद्दो-जहद देखने को मिली। आर्थिक
रूप से इस साल देश ने उदारीकरण की दिशा में दो बड़े फैसले किए। पहला था जीएसटी से
जुड़े संविधान संशोधन को संसद की स्वीकृति। और दूसरा था 8 नवंबर को घोषित
विमुद्रीकरण। दोनों के फायदे आने वाले वर्षों में देखने को मिलेंगे।
साल की शुरुआत पठानकोट पर हमले से
हुई। उसके बाद जेएनयू-आंदोलन खड़ा हुआ, जिसकी प्रतिक्रिया श्रीनगर के एनआईटी और
जादवपुर विवि में देखने को मिली। सीमा के उस पार से मिल रही शह पर कश्मीर की घाटी
में किशोरों की आड़ में अराजकता फैलाने की कोशिशों ने जोर पकड़ा। जुलाई में बुरहान
वानी की मौत के बाद यह आंदोलन काफी उग्र हो गया। पाकिस्तान के लिए यह सुनहरा मौका
था। संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना सम्मेलन में कश्मीर का मामला उठाने की
पाकिस्तानी कोशिशों को हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने करारा जवाब दिया।
इस साल उम्मीद थी कि भारत और
पाकिस्तान रिश्तों में सुधार होगा। दोनों देशों के विदेश सचिवों की 15 जनवरी को
बातचीत तय थी। दिसंबर के आखिरी हफ्ते में नरेंद्र मोदी अफगानिस्तान से लौटते वक्त
अचानक नवाज शरीफ के परिवार से मिलने लाहौर चले गए। इससे लगा कि माहौल खुशनुमा होने
वाला है। पर पाकिस्तान के कट्टरपंथी प्रतिष्ठान की मर्जी कुछ और थी। इस साल पहले
पठानकोट, फिर उड़ी में हमले हुए। कश्मीर में ‘पत्थर मारो’ आंदोलन चलता रहा।
जाहिर है कि पाकिस्तानी सेना की
दिलचस्पी भारत के साथ रिश्ते सुधारने में नहीं है। इधर पाकिस्तानी अख़बार डॉन में
प्रकाशित एक खबर से इस बात की पुष्टि भी हुई कि सेना और नागरिक सरकार के मतभेद
बढ़ते जा रहे हैं। पाकिस्तान में एक तबका चाहता था कि जनरल राहिल शरीफ को सेवा
विस्तार दिया जाए। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि जब तक राहिल शरीफ अपने पद पर रहे
एलओसी पर गोलाबारी चलती रही। नवंबर के अंतिम सप्ताह में पाकिस्तान के नए
सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने कार्यभार सँभाला है। माना जाता है कि वे
मध्यमार्गी हैं और भारत का पाकिस्तान का नंबर एक शत्रु नहीं मानते।
यह केवल एक जनरल की बात नहीं है।
इसलिए दोनों देशों के रिश्तों को लेकर विश्वास के साथ कुछ भी कहना मुश्किल है।
दोनों देशों के रिश्तों में बढ़ती खटास का असर दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस)
पर पड़ रहा है। फिलहाल यह संगठन एकदम ठप हो गया है। भारत इसकी जगह बिमस्टेक जैसे
दूसरे क्षेत्रीय संगठनों में दिलचस्पी ले रहा है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर
पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिशें भी कीं, पर पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ
होने की वजह से इन कोशिशों को आंशिक सफलता ही मिली।
भारत की कोशिश थी कि संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद से जैशे मोहम्मद के मुखिया मसूद अज़हर को आतंकवादी घोषित
किया जाए। इस कोशिश को भी चीन ने नाकाम कर रखा है। इसके अलावा चीन ने भारत के
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में प्रवेश पर रोक लगा रखी है। हाल में चीन-पाकिस्तान
के गुट में रूस की दिलचस्पी भी बढ़ी है। रूस की दिलचस्पी अफगानिस्तान की राजनीति
में है। वह तालिबान के साथ रिश्ते बेहतर कर रहा है। मध्य एशिया के देशों में
इस्लामिक स्टेट का असर बढ़ रहा है। रूस और चीन दोनों उसके असर को रोकना चाहते हैं।
इस घटनाक्रम के समानांतर
भारत-अमेरिका रिश्तों में बदलाव आ रहा है। जून में प्रधानमंत्री का पाँच देशों का
दौरा विदेश नीति के निर्णायक मोड़ का संकेत भी कर रहा है। इस यात्रा के तमाम पहलू
दक्षिण एशिया के बाहर रहे, पर केन्द्रीय सूत्र
दक्षिण एशिया की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से ही जुड़ा था। दो साल के अपने कार्यकाल
में नरेंद्र मोदी चौथी अमेरिका यात्रा पर गए। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से यह
उनकी सातवीं मुलाकात थी।
एशिया-प्रशांत और दक्षिण चीन सागर
में भारत की भूमिका बढ़ रही है। सवाल है कि क्या भारत पूरी तरह अमेरिका के पाले
में जा रहा है? अमेरिका ने इस साल भारत को बड़ा
रक्षा साझीदार घोषित किया है। दोनों देशों के बीच लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज सपोर्ट
मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (लेमोआ) समझौते को अंतिम रूप दे दिया गया है। सन 2008 के
न्यूक्लियर डील के बाद अमेरिका ने भारत को चार महत्वपूर्ण ग्रुपों का सदस्य बनवाने
का वादा किया था।
अमेरिका ने भारत को संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने के लिए पूरा समर्थन देने का वादा
किया है। इस साल भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम (एमटीसीआर) का सदस्य बन गया।
अगले महीने 20 जनवरी को नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पद ग्रहण कर रहे हैं। विदेश
नीति के मोर्चे पर इस साल जापान के साथ नाभिकीय सहयोग का समझौता भी काफी बड़ी
उपलब्धि है।
भारतीय राज-व्यवस्था, प्रशासन और राजनीति के लिए यह साल बड़ी चुनौतियों से भरा रहा। उम्मीद थी कि इस
साल देश की अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि आठ फीसदी की संख्या को या तो छू लेगी या उस
दिशा में बढ़ जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। खासतौर से विमुद्रीकरण के बाद अंदेशा इस बात
का है कि संवृद्धि की दर 7 फीसदी के आसपास ही रहेगी।
उम्मीद है कि विमुद्रीकरण की
प्रक्रिया के पूरा होने के बाद इसमें तेजी आएगी और दो या तीन तिमाहियों के बाद
अर्थ-व्यवस्था 8 फीसदी को छू लेगी। सवाल है कि क्या नोटबंदी के कारण आय-करदाताओं
की संख्या में वृद्धि होगी। साथ ही यह भी कि काला धन किस मात्रा में बाहर आएगा। इन
बातों के परिणाम आने में अभी दो-तीन महीने का इंतजार करना होगा।
केंद्र में मोदी सरकार के ढाई साल
पूरे हो गए हैं। अब ढाई साल बाकी हैं। राजनीतिक मोर्चे पर इस साल बीजेपी ने असम
विधानसभा के चुनावों में जीत के साथ पूर्वोत्तर भारत में अपने पैर पसारे हैं। इसके
अलावा अरुणाचल में भाजपा के समर्थन से सरकार बनी है। इस साल पाँच राज्यों के
विधानसभा चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति के रुख को स्पष्ट करेंगे। कुल मिलाकर देश
ने तीनों मोर्चों पर कदम बढ़ाए और कुछ न कुछ हासिल ही किया। अब जब हम एक और नए साल
से रूबरू होने वाले हैं, पुराने सवाल नए लिबास में फिर से खड़े होंगे। अंतर केवल
परिस्थितियों का है।
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