दिल्ली में दो जगह भारत विरोधी नारे लगे। इसके पहले कश्मीर से अकसर खबरें आती
थीं कि वहाँ भारत विरोधी नारे लगे या भारतीय ध्वज का अपमान किया गया। कश्मीर के साथ पूरे देश का अलगाव अच्छी तरह स्पष्ट है। इस अलगाव का विकास हुआ है। जो स्थितियाँ 1947 में थी वैसी ही आज नहीं हैं। इसमें नब्बे के दशक में चले हिंसक आंदोलन की भूमिका भी है, जो अफगानिस्तान के तालिबानी उभार की पृष्ठभूमि में चला था। पाकिस्तानी राजनीति के केन्द्र में कश्मीर है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में भी कश्मीर को होना चाहिए था, क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सफलता तभी है जब हमारे बीच मुस्लिम बहुमत वाला कश्मीर राज्य हो। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि कश्मीर स्वतंत्र देश के रूप में खड़ा नहीं हो पाया। पर जेएनयू प्रकरण का कश्मीरी सवाल से वास्ता नहीं है। वहाँ कश्मीर समस्या को लेकर बहस नहीं है, बल्कि खुलकर मुख्य धारा की राजनीति हो रही है। ऐसा ही हैदराबाद में हुआ, जहाँ असली सवाल पीछे रह गया।
सवाल है कश्मीर में हिंसा की शुरुआत किसने की? जो लोग पाकिस्तान-परस्त बातें करते हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को पढ़ा है, जिसकी बिना पर आजादी बातें कही जा रही हैं? क्या पाकिस्तान कश्मीर की आजादी के आंदोलन को बढ़ावा दे रहा है? जी नहीं वह उसे हड़पना चाहता है। हम कश्मीर की आजादी से जुड़े विचारों की अभिव्यक्ति को स्वीकार करते हैं। इसलिए किसी गोष्ठी या सभा में कश्मीरी प्रतिरोध की बातें सुनकर घबराना नहीं चाहिए। पर भारतीय राजनीति इन दिनों जिस तरीके से कश्मीर पर विमर्श चला रही है वह घबराहट पैदा करता है। यह सीधे-सीधे राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठनों की लड़ाई है।
भारतीय राष्ट्र राज्य तमाम तरह के अंतर्विरोधों के बीच विकसित हो रहा है। एक तरफ हम परस्पर
विरोधी राजनीतिक धारणाओं के टकराव को देख रहे हैं, वहीं राष्ट्रवाद, मानवाधिकार और
राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल हैं। पिछले कुछ महीनों में इन सवालों को लेकर टकराव
बढ़ा है। ताजा उदाहरण है जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली के प्रेस क्लब
में हुए कार्यक्रम जिनमें भारत विरोधी और आतंकवादियों के समर्थन में नारे लगाए गए।
इस सिलसिले में कुछ गिरफ्तारियाँ हुई हैं। यह मामला दूर तक और सम्भवतः देश की सबसे
ऊँची अदालत तक जाएगा। यह विमर्श कम से कम तीन अलग-अलग सतहों पर है। पहला है
सामान्य नागरिक की भावनाएं। दूसरे इस मसले के सांविधानिक पहलू और तीसरे इसका
राजनीतिक निहितार्थ।
हैरत की बात है
कि कोई हमारे सामने देश-विरोधी नारे लगाए और फिर सीनाजोरी करे। वह भी तब जब हाल
में पठानकोट पर आतंकी हमला हो चुका है। क्या यह हमारे संयम की परीक्षा है? कश्मीर हमारी भावनाओं से जुड़ा सवाल है। जिस
आतंकवाद को लेकर पूरा देश परेशान है, वह पाकिस्तान की ‘कश्मीर नीति’ की उपज है। कश्मीर की ‘आजादी’ शब्द भ्रामक है। इसका नारा लगाने वालों का सीधा मतलब है पाकिस्तान के हवाले करो।
असली नारा है, ‘कश्मीर बनेगा
पाकिस्तान।’ यह अवधारणा साम्प्रदायिक
आधार पर है, धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत पर नहीं। इसमें घाटी के पंडित, जम्मू के डोगरे
और लद्दाख के बौद्ध शामिल नहीं हैं।
कश्मीर की हिंसा और आतंक के पीछे एक इतिहास है। सन 1947 में पाकिस्तान की फौज
ने गैर-कश्मीरी कबायलियों के हुजूम के साथ कश्मीर पर हमला बोला था। उसके बाद 1965
में बाकायदा योजनाबद्ध तरीके के दूसरा हमला बोला। फिर 1999 में करगिल-कांड
हुआ। फिर भी कुछ लोग यदि कश्मीर की ‘आजादी’ को लेकर अलग राय रखते
हैं तो उसे देश-द्रोह कहना तब तक ठीक नहीं, जब तक उसके तौर-तरीके गैर-कानूनी न
हों। दूसरी बात धारा 124 ए और
120 बी के दुरुपयोग को लेकर आजादी के पहले से बहस है। महात्मा गांधी इसके खिलाफ
थे। आजादी के बाद भी इसका कई मौकों पर दुरुपयोग हुआ। इसलिए बेहतर हो कि हम देश की
सर्वोच्च अदालत में इस मामले को जाने दें। या फिर संसद के आगामी सत्र में इस मसले
पर विचार-विमर्श करें।
यह मामला जेएनयू
से उठा जरूर है, पर मूलतः इसके पीछे केन्द्र-विरोधी राजनीतिक ताकतें हैं।
असहिष्णुता को लेकर शुरू हुई बहस भी इससे जुड़ी है। हाल में डेविड हेडली की गवाही
और इशरत जहाँ मामले के तार भी इससे जुड़े हैं। डेविड हेडली जो भी जानकारी दे रहा
है, वह पाकिस्तान में बैठे आतंकी गठबंधन पर रोशनी डालते हैं। वह सही कह रहा है या
गलत, बात इसपर होनी चाहिए। उसने इशरत जहाँ का नाम क्यों लिया है वगैरह? यह मसला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है।
पड़ताल इस बात की होनी चाहिए कि जेएनयू में नारेबाजी अनायास हो गई या किसी ने
मौके का फायदा उठाया? अफजल गुरु और मकबूल बट के मामलों को इसके साथ किसने जोड़ा? इस कार्यक्रम को पहले
अनुमति क्यों मिली, फिर वह रद्द क्यों हुई? अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की इसमें क्या भूमिका
है? क्या यह जेएनयू में
वाम पंथी दलों के वर्चस्व को तोड़ने की मुहिम है? और यह भी कि जेएनयू में वाम-गठजोड़ की अकादमिक भूमिका क्या है? इन बातों पर ठंडे
माहौल में भी विचार-विमर्श हो सकता है। तब हम इस पर भी विचार कर सकते हैं कि अफजल
गुरु को हुई फाँसी के पीछे के हालात क्या थे।
जेएनयू-कार्यक्रम
के आयोजकों का कहना है कि उन्हें अभिव्यक्ति के सांविधानिक अधिकार के तहत अपनी बात
कहने का हक़ है। हाल में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की
आत्महत्या के बाद वामपंथी दल भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा विद्यार्थी परिषद
को निशाना बना रहे हैं। पर यह मामला केवल छात्र राजनीति का नहीं है। कश्मीर का सवाल
है तो उसका देश-विरोधी नारेबाजी से मेल कैसे होगा? कश्मीर का वैधानिक
तरीके से भारतीय राष्ट्र राज्य में विलय हुआ है और हमने उसकी रक्षा में तीन बड़ी
लडाइयां लड़ी हैं। उसे तश्तरी में रखकर पाकिस्तान को नहीं देंगे।
दूसरी ओर कुछ लोगों की नारेबाजी हमसे कश्मीर नहीं छीन लेगी। इसका केवल
भावनात्मक अर्थ है। या फिर यह कि विश्वविद्यालयों का इस्तेमाल संकीर्ण राजनीति के
लिए होने लगा है। तीसरा सवाल धारा 124ए और 120बी के इस्तेमाल से जुड़ा है। सन 2012 में
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी के बाद भी यह सवाल उठा था। उस वक्त यूपीए
सरकार थी और आज के सत्ताधारी विपक्ष में थे। विडंबना है कि उसी दौरान तमिलनाडु में
कुडानकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे लोगों के खिलाफ
देशद्रोह के आरोप लगाए थे। राहुल गांधी को अब अपनी बात कहने के पहले पुराने
दस्तावेज भी देखने चाहिए।
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता, शासन के प्रति विरोध और विद्रोह में काफी महीन
रेखा है। संविधान में मूलतः कोई सीमा रेखा नहीं थी। संशोधन के मार्फत संविधान में
युक्तिसंगत पाबंदियाँ लगाने का प्रावधान बाद में शामिल किया गया। विचार-विनिमय की
स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। विडंबना है कि मानवाधिकार और
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत एक ओर धुर वामपंथी कार्यकर्ता महसूस करते हैं
वहीं सैयद अली शाह गिलानी और पाकिस्तान के हाफिज सईद जैसे नेता महसूस करते हैं, जिनका लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में विश्वास नहीं है, पर
हमारा है। यह अधिकार है तो व्यावहारिक रूप से लागू भी होगा।
कुछ साल पहले दिल्ली
की एक सभा में अरुंधती रॉय ने कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा। ऐसा
उन्होंने पहली बार नहीं कहा। वे इसके पहले भी यह बात कह चुकी हैं। महत्वपूर्ण था
उनका दिल्ली की एक सभा में ऐसा कहना। उस सभा में गिलानी भी बोले थे। उनके अलावा
पूर्वोत्तर के कुछ राजनैतिक कार्यकर्ता इस सभा में थे। देश की राजधानी में भारतीय
राष्ट्र राज्य के बारे में खुलकर ऐसी चर्चा ने बड़ी संख्या में लोगों को मर्माहत
किया, सदमा पहुँचाया। उससे ज्यादा बड़ा सदमा जेएनयू
प्रकरण से लगा है।
भारतीय दंड
संहिता की धारा 121ए तथा 124ए के अंतर्गत देशद्रोह
दंडनीय अपराध हैं। 124ए में उन गतिविधियों के
तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है। इन
स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक सशस्त्र
विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है। मोटे
तौर पर राष्ट्र-राज्य से असहमति को देशद्रोह नहीं मानना चाहिए। सवाल है कि जेएनयू
में जो हुआ क्या केवल असहमति थी? देश विरोधी नारे लगाने वालों की सीनाजोरी भारतीय राष्ट्र राज्य के कमजोर होने
की निशानी है या इस बात की निशानी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की ताकत हवा के ऐसे
झोंकों को आसानी से कमजोर कर देती है? जवाब आपको देना है।
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