हाल में खबर थी कि ओडिशा के बालासोर (बालेश्वर) जिले में भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के 800 कार्यकर्ता घर-घर जाकर जानकारियाँ हासिल कर रहे हैं. बीजू जनता दल के लोकसभा सदस्य रवीन्द्र कुमार जेना का यह क्षेत्र है. गाँवों में काम कर रहे कार्यकर्ता इस सूचना को एक एप की मदद से टैबलेट्स में दर्ज करते जाते हैं. जानकारियों का वर्गीकरण किया गया है. ज्यादातर सूचनाएं स्कूलों, आँगनवाड़ी केन्द्रों, स्वास्थ्य सुविधाओं, पंचायती राज संस्थाओं, सड़कों, परिवहन, विद्युतीकरण और खेती के बारे में हैं. इस डेटा का विश्लेषण एक गैर-लाभकारी संस्था कर रही है, जो सांसद को इलाके का डेवलपमेंट प्लान बनाकर देगी.
अड़तालीस वर्षीय रवीन्द्र कुमार जेना नई पीढ़ी के सांसद हैं. वे वैज्ञानिक तरीके अपनाकर राजनीति में सफल होना चाहते हैं. देश के कई राज्यों की सरकारें डेटा के आधार पर फैसले करने की दिशा में बढ़ रही हैं. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात और ओडिशा जैसे राज्यों ने इस दिशा में पहल की है. दूसरे राज्य भी इस दिशा में बढ़ रहे हैं. वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा, सांसद जय पांडा, चंद्रबाबू नायडू और अखिलेश यादव नई पीढ़ी के नेता है, जिन्हें यह तरीका बेहतर लगता है. कोई वजह है कि तमाम पुराने राजनेताओं के फेसबुक और ट्विटर एकाउंट खुलते जा रहे हैं. मोदी सरकार की डिजिटल इंडिया पहल ने भी अपना काम किया है.
देश के पहले सौ स्मार्ट शहरों में से पहले 20 के नाम सामने आए हैं, जिनमें आने वाले समय की कहानी लिखी जाएगी. भारत तो गाँवों का देश है. आजादी के पहले से हम यह बात कहते रहे हैं. पर पिछले दो दशक में कहानी बदली है. आर्थिक उदारीकरण ने केवल अर्थ-व्यवस्था की दिशा ही नहीं बदली, राजनीति में भी बड़ा बदलाव किया है, जिसके शुरूआती लक्षण सन 2014 के चुनाव में दिखाई पड़े. इसके अलावा सन 2011 का अन्ना आंदोलन और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत मध्यवर्गीय शहरी आबादी की मनोकामनाओं को व्यक्त करती है. आम आदमी पार्टी के उभार का मतलब यह भी है कि ऐसा शहर जो सबसे बड़ा और सबसे उन्नत है, राजनीतिक रूप से बड़े फैसले भी करता है.
देश के लगभग दो सौ शहर राष्ट्रीय आमराय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. मोदी सरकार की शुरूआती घोषणा थी कि अगले आठ साल में हर परिवार के पास पक्का मकान होगा, जिसमें पानी का कनेक्शन, शौचालय सुविधाएं और चौबीसों घंटे विद्युत आपूर्ति और आवागमन की सुविधाएं होंगी. गाँव-गाँव ब्रॉडबैंड और देश में हाईस्पीड ट्रेनों का हीरक चतुर्भुज होगा. क्या यह केवल घोषणा मात्र है? शहरी नागरिक की इच्छा यह जानने की भी होगी कि वास्तव में जो कहा गया वह हुआ भी या नहीं. राजनेताओं को अब जवाब देने के लिए भी तैयार होना चाहिए. जो तैयार नहीं होंगे उनका भविष्य उज्ज्वल नहीं है.
शहरी नागरिक अपनी जातीय, धार्मिक पहचान को लेकर चिंतित नहीं होता. उसे अपनी जीवन दशा में बदलाव चाहिए. उसे पीने का पानी, बिजली, सफाई, सार्वजनिक परिवहन और स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवाएं चाहिए. भारतीय राजनेताओं का बड़ा तबका पुरानी शैली और पुराने मुहावरों से अब भी चिपका हुआ है. दिसम्बर 2013 में जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में आश्चर्यजनक सफलता हासिल की थी, तब उम्मीद बँधी थी कि एक नए किस्म की राजनीति का देश में प्रवेश हो रहा है. दिसम्बर 2012 में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद शहरी युवा और स्त्रियाँ ताकतवर आवाज़ बनकर उभरे थे. दिल्ली में हुए भारी राजनीतिक परिवर्तन का संदेश केवल यही नहीं था कि लोग अब भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं. बल्कि यह भी कि अब हमारे शहरों ने सोचना और अपनी आवाज़ बुलंद करना शुरू कर दिया है.
पर यह पूरा सच नहीं है. भारत की शहरी आबादी एक दशक बाद 60 करोड़ के आसपास होगी, फिर भी देश की आधी से ज्यादा आबादी गाँवों में होगी. इसलिए गाँव कम से कम अगले दो दशक तक देश की राजनीति के केन्द्र में रहेंगे. आज का दौर इसीलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह राजनीति के रूपांतरण का संधिकाल है. सरकार एक और जीएसटी को पास कराना चाहती है वहीं खबर यह है कि वह अगले वित्त वर्ष में खाद्य सुरक्षा की बहुत बड़ी योजना लाने वाली है. बताया जाता है कि लगभग 1.30 लाख करोड़ रुपए के खर्च से शुरू होने वाली इस योजना में देश के तकरीबन 70 करोड़ लोगों को कवर किया जाएगा.
सरकार की एक महत्वपूर्ण योजना मनरेगा के मंगलवार को 10 साल पूरे हो गए. इस योजना को लेकर मोदी सरकार के रुख में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. ग्रामीण विकास मंत्रालय का दावा है कि 2015-16 में मनरेगा दोबारा पटरी पर लौटा है. पिछली दो तिमाही में औसतन जितना रोजगार मिला, उतना पिछले पांच साल में नहीं हुआ था. मोदी सरकार अब मनरेगा की प्रशंसक हो गई है. कारण साफ है. वह गाँवों और गरीबों की उपेक्षा नहीं कर सकती. देश के शहरी रूपांतरण के साथ-साथ गाँवों की बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करना होगा. उसके समांतर आर्थिक और तकनीकी विकास भी होगा.
इस साल मई में एनडीए सरकार के दो साल पूरे हो जाएंगे. हाल में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार लोक-लुभावन बजट से बचेगी. यानी आर्थिक सुधार पर जोर होगा. पिछले शनिवार को दिल्ली में दो अलग प्रोग्रामों में जेटली ने कहा, अर्थ-व्यवस्था में बुनियादी चीजों का मजबूत होना जरूरी है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत उन चुनिंदा देशों में है जो 2001, 2008 और 2015 के संकट से सफलतापूर्वक बच निकले. संयोग से हालात अब भी भारत के पक्ष में हैं. पर क्या भारतीय राजनीति इस बात को समझती है? क्या वह बदलते वक्त की नब्ज को पहचानती है?
युवा आबादी की बढ़ती आमदनी शहरी क्षेत्रों में रोजगार की बेहतर गुणवत्ता और शहरी इलाकों में बेहतर लोक सेवाओं की आकांक्षा को भी जन्म देती है. तेज, समावेशी और सतत विकास में शहरीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. इस दौरान गाँवों की राजनीति भी बदलाव से गुजरेगी. शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन की जरूरत गाँवों को भी है. परम्परागत राजनीति उन्हें जाति और धर्म में उलझाकर रखती है. उससे बाहर निकलने की जरूरत है. साथ ही नागरिक के रूप में नेताओं से सवाल पूछने की जरूरत भी है. लोकतंत्र के विकास के लिए समय की दूरी को तकनीक कम कर सकती है, बशर्ते उसका इस्तेमाल सावधानी से हो. यह इस्तेमाल केवल चुनाव जीतने या प्रचार करने तक सीमित नहीं है. नई राजनीति में राजनेता नहीं, नागरिक केन्द्र में होना चाहिए. राजनेता की जवाबदेही होनी चाहिए. सोशल मीडिया में नागरिक की बदलती भूमिका देखी जा सकती है. प्रभात खबर में प्रकाशित
अड़तालीस वर्षीय रवीन्द्र कुमार जेना नई पीढ़ी के सांसद हैं. वे वैज्ञानिक तरीके अपनाकर राजनीति में सफल होना चाहते हैं. देश के कई राज्यों की सरकारें डेटा के आधार पर फैसले करने की दिशा में बढ़ रही हैं. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात और ओडिशा जैसे राज्यों ने इस दिशा में पहल की है. दूसरे राज्य भी इस दिशा में बढ़ रहे हैं. वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा, सांसद जय पांडा, चंद्रबाबू नायडू और अखिलेश यादव नई पीढ़ी के नेता है, जिन्हें यह तरीका बेहतर लगता है. कोई वजह है कि तमाम पुराने राजनेताओं के फेसबुक और ट्विटर एकाउंट खुलते जा रहे हैं. मोदी सरकार की डिजिटल इंडिया पहल ने भी अपना काम किया है.
देश के पहले सौ स्मार्ट शहरों में से पहले 20 के नाम सामने आए हैं, जिनमें आने वाले समय की कहानी लिखी जाएगी. भारत तो गाँवों का देश है. आजादी के पहले से हम यह बात कहते रहे हैं. पर पिछले दो दशक में कहानी बदली है. आर्थिक उदारीकरण ने केवल अर्थ-व्यवस्था की दिशा ही नहीं बदली, राजनीति में भी बड़ा बदलाव किया है, जिसके शुरूआती लक्षण सन 2014 के चुनाव में दिखाई पड़े. इसके अलावा सन 2011 का अन्ना आंदोलन और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत मध्यवर्गीय शहरी आबादी की मनोकामनाओं को व्यक्त करती है. आम आदमी पार्टी के उभार का मतलब यह भी है कि ऐसा शहर जो सबसे बड़ा और सबसे उन्नत है, राजनीतिक रूप से बड़े फैसले भी करता है.
देश के लगभग दो सौ शहर राष्ट्रीय आमराय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. मोदी सरकार की शुरूआती घोषणा थी कि अगले आठ साल में हर परिवार के पास पक्का मकान होगा, जिसमें पानी का कनेक्शन, शौचालय सुविधाएं और चौबीसों घंटे विद्युत आपूर्ति और आवागमन की सुविधाएं होंगी. गाँव-गाँव ब्रॉडबैंड और देश में हाईस्पीड ट्रेनों का हीरक चतुर्भुज होगा. क्या यह केवल घोषणा मात्र है? शहरी नागरिक की इच्छा यह जानने की भी होगी कि वास्तव में जो कहा गया वह हुआ भी या नहीं. राजनेताओं को अब जवाब देने के लिए भी तैयार होना चाहिए. जो तैयार नहीं होंगे उनका भविष्य उज्ज्वल नहीं है.
शहरी नागरिक अपनी जातीय, धार्मिक पहचान को लेकर चिंतित नहीं होता. उसे अपनी जीवन दशा में बदलाव चाहिए. उसे पीने का पानी, बिजली, सफाई, सार्वजनिक परिवहन और स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवाएं चाहिए. भारतीय राजनेताओं का बड़ा तबका पुरानी शैली और पुराने मुहावरों से अब भी चिपका हुआ है. दिसम्बर 2013 में जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में आश्चर्यजनक सफलता हासिल की थी, तब उम्मीद बँधी थी कि एक नए किस्म की राजनीति का देश में प्रवेश हो रहा है. दिसम्बर 2012 में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद शहरी युवा और स्त्रियाँ ताकतवर आवाज़ बनकर उभरे थे. दिल्ली में हुए भारी राजनीतिक परिवर्तन का संदेश केवल यही नहीं था कि लोग अब भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं. बल्कि यह भी कि अब हमारे शहरों ने सोचना और अपनी आवाज़ बुलंद करना शुरू कर दिया है.
पर यह पूरा सच नहीं है. भारत की शहरी आबादी एक दशक बाद 60 करोड़ के आसपास होगी, फिर भी देश की आधी से ज्यादा आबादी गाँवों में होगी. इसलिए गाँव कम से कम अगले दो दशक तक देश की राजनीति के केन्द्र में रहेंगे. आज का दौर इसीलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह राजनीति के रूपांतरण का संधिकाल है. सरकार एक और जीएसटी को पास कराना चाहती है वहीं खबर यह है कि वह अगले वित्त वर्ष में खाद्य सुरक्षा की बहुत बड़ी योजना लाने वाली है. बताया जाता है कि लगभग 1.30 लाख करोड़ रुपए के खर्च से शुरू होने वाली इस योजना में देश के तकरीबन 70 करोड़ लोगों को कवर किया जाएगा.
सरकार की एक महत्वपूर्ण योजना मनरेगा के मंगलवार को 10 साल पूरे हो गए. इस योजना को लेकर मोदी सरकार के रुख में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. ग्रामीण विकास मंत्रालय का दावा है कि 2015-16 में मनरेगा दोबारा पटरी पर लौटा है. पिछली दो तिमाही में औसतन जितना रोजगार मिला, उतना पिछले पांच साल में नहीं हुआ था. मोदी सरकार अब मनरेगा की प्रशंसक हो गई है. कारण साफ है. वह गाँवों और गरीबों की उपेक्षा नहीं कर सकती. देश के शहरी रूपांतरण के साथ-साथ गाँवों की बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करना होगा. उसके समांतर आर्थिक और तकनीकी विकास भी होगा.
इस साल मई में एनडीए सरकार के दो साल पूरे हो जाएंगे. हाल में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार लोक-लुभावन बजट से बचेगी. यानी आर्थिक सुधार पर जोर होगा. पिछले शनिवार को दिल्ली में दो अलग प्रोग्रामों में जेटली ने कहा, अर्थ-व्यवस्था में बुनियादी चीजों का मजबूत होना जरूरी है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत उन चुनिंदा देशों में है जो 2001, 2008 और 2015 के संकट से सफलतापूर्वक बच निकले. संयोग से हालात अब भी भारत के पक्ष में हैं. पर क्या भारतीय राजनीति इस बात को समझती है? क्या वह बदलते वक्त की नब्ज को पहचानती है?
युवा आबादी की बढ़ती आमदनी शहरी क्षेत्रों में रोजगार की बेहतर गुणवत्ता और शहरी इलाकों में बेहतर लोक सेवाओं की आकांक्षा को भी जन्म देती है. तेज, समावेशी और सतत विकास में शहरीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. इस दौरान गाँवों की राजनीति भी बदलाव से गुजरेगी. शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन की जरूरत गाँवों को भी है. परम्परागत राजनीति उन्हें जाति और धर्म में उलझाकर रखती है. उससे बाहर निकलने की जरूरत है. साथ ही नागरिक के रूप में नेताओं से सवाल पूछने की जरूरत भी है. लोकतंत्र के विकास के लिए समय की दूरी को तकनीक कम कर सकती है, बशर्ते उसका इस्तेमाल सावधानी से हो. यह इस्तेमाल केवल चुनाव जीतने या प्रचार करने तक सीमित नहीं है. नई राजनीति में राजनेता नहीं, नागरिक केन्द्र में होना चाहिए. राजनेता की जवाबदेही होनी चाहिए. सोशल मीडिया में नागरिक की बदलती भूमिका देखी जा सकती है. प्रभात खबर में प्रकाशित
अत्यधिक सराहनीय पहल। सूचना निर्णय के पहले की सीढ़ी है।
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