सोमवार को जेडीयू के कुछ नेताओं की प्रतिक्रिया से यह बात समझ में आती है कि पिछले कुछ महीनों से चल रहे जेडीयू के मोदी विरोधी अभियान के पीछे भाजपा की वह वरिष्ठ टोली थी, जिसके शिखर पर लालकृष्ण आडवाणी है। शिवसेना की प्रतिक्रिया के पीछे भी पार्टी नेतृत्व का यथास्थितिवादी दृष्टिकोण था। सच यह है कि आडवाणी जी समय के साथ लड़ाई में हार चुके हैं। उनके पास 2009 में आखिरी मौका था, पर वे चमत्कार नहीं दिखा सके। इसके पहले 2004 के चुनाव में पार्टी की विफलता का श्रेय भी उन्हें दिया जाए तो गलत नहीं होगा। उनके सुझाव पर ही समय से पहले चुनाव हुए। शाइनिंग इंडिया उनका ही विचार था और अटल बिहारी वाजपेयी को कुर्सी खाली करने का दबाव भी उनकी ओर से था। उस चुनाव में पार्टी ने एक नहीं दो नेताओं को सामने रखने का फैसला किया था, जिससे वाजपेयी खिन्न थे।
भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान
संकट इस अर्थ में अभूतपूर्व है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की चाबुक भी काम नहीं कर
पा रही है। लालकृष्ण आडवाणी ने जून 2005 में पाकिस्तान की यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ के प्रसंग
में इस्तीफा देकर उतना अपमान महसूस नहीं किया जितना वे नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान
समिति का प्रमुख बनाए जाने पर महसूस कर रहे हैं। हालांकि मोदी को जो पद दिया गया है
वह 2004 में प्रमोद महाजन को और 2009 में अरुण जेटली को दिया गया था। यह कहीं से भावी
प्रधानमंत्री का संकेत नहीं देता। संयोग से भाजपा सरकार बनी तो आडवाणी जी का दावा उस
वक्त भी उतना ही मजबूत होगा, जितना आज है। पर उन्हें लगता है कि बाज़ी हाथ से निकल
चुकी है। यह इस्तीफा उनका आखिरी हथियार है।
पार्टी के पदों से उनके इस्तीफों
को राजनाथ सिंह ने स्वीकार नहीं किया है। सम्भव है कि उन्हें मना लिया जाए। पार्टी
उन्हें मनाने की कोशिश करेगी। उनकी नाराज़गी जो अभी तक खुलकर सामने नहीं आई थी, अचानक
फूट पड़ी है। नाराज़ वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज और
जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा समेत कुछ और वरिष्ठ नेता हैं। सुषमा स्वराज ने औपचारिक
रूप से नरेन्द्र मोदी का स्वागत करके अपनी नाराज़गी को दबा लिया है, पर उनकी नाराज़गी
भी छिपी नहीं है। यह नाराज़गी क्या भाजपा और संघ के बीच की उस दरार को रेखांकित कर
रही है जो नज़र नहीं आती, पर महसूस होती है। इस वरिष्ठ नेतृत्व-मंडल को नाराज़ करके
क्या पार्टी नरेन्द्र मोदी को सफलता दिला पाएगी? इसके विपरीत सवाल
है कि क्या आडवाणी जी बदले हुए राजनीतिक यथार्थ को नहीं समझ पा रहे हैं? क्या वे 2014 के चुनाव में अपने दम पर पार्टी को सफलता दिला
पाएंगे? क्या वे पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं की भावनाओं
को नहीं समझ पा रहे हैं?
भाजपा का नेतृत्व इस प्रकरण
में इतना आगे जा चुका है कि पीछे जाना सम्भव नहीं होगा। नरेन्द्र मोदी के बारे में
जो फैसला किया जा चुका है, वह वापस नहीं होगा। और हुआ तो उसका उल्टा असर होगा। पर आडवाणी
के सख्त रुख के कारण मोदी का काम-काज मुश्किल हो जाएगा। मसलन उत्तर प्रदेश के नए प्रभारी
अमित शाह 12 जून को लखनऊ जाने वाले हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण
है। वहाँ राजनाथ सिंह से नाराज़ नेता अमित
शाह के लिए दिक्कतें पेश कर सकते हैं। राजनाथ सिंह ने उत्तर प्रदेश में पुराने नेताओं
को किनारे करके वरुण गांधी और उमा भारती को आगे किया। पर मोदी-आडवाणी विवाद की वजह
से वरुण और उमा भारती का रुख भी बदल गया। उमा भारती ने बाद में अपना रुख बदला है, पर
लगता है कि यह विवाद बढ़ा तो तकरीबन सारे राज्यों के भाजपा संगठन पर इसका विपरीत प्रभाव
पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
और कर्नाटक के नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के लतिहाव
के कारण हार हुई। संयोग से कर्नाटक में आडवाणी और नरेन्द्र मोदी का ही विवाद था। येद्दियुरप्पा
के विरोधियों में आडवाणी खेमा था। और येद्दियुरप्पा के साथ नरेन्द्र मोदी। पिछले साल
जब मुम्बई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार नरेन्द्र मोदी भाग लेने आए तो येद्दियुरप्पा
भी आए थे। जिस तरह आडवाणी ने राजनाथ सिंह को चिट्ठी लिखी है तकरीबन उसी तरह कर्नाटक
में एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज की करारी चिट्ठी लिखी थी। सिरोया
को पार्टी कोषाध्यक्ष पद से फौरन हटा दिया गया, पर सवाल खत्म नहीं हुए।
अटल बिहारी वाजपेयी को निर्विवाद
नेता माना जाता है, पर विवाद उनके समय
में भी थे। संयोग से उस चर्चा में भी लालकृष्ण आडवाणी थे। आडवाणी पार्टी को वरिष्ठतम
नेता हैं। और उनके मन में स्वाभाविक रूप से क्लेश है। जैन हवाला कांड न हुआ होता तो
शायद 1996 में 13 दिन की सरकार का नेतृत्व करने का मौका अटल बिहारी वाजपेयी के बजाय
आडवाणी जी को मिलता। इस बात को वे खुद कहते हैं। अपनी किताब "माई कंट्री,
माई लाइफ" में वाजपेयी पर केन्द्रित अध्याय
में लालकृष्ण आडवाणी ने लिखा है कि सन 1995 में मुंबई अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के
नाते जब उन्होंने वाजपेयी को भावी प्रधानमंत्री घोषित किया, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ और पार्टी के ज्यादातर लोग मानते थे कि आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं।
तेरहवीं लोकसभा 10 अक्टूबर
1999 को गठित हुई थी। चुनाव अक्टूबर 2004 के पहले हो सकते थे, पर एनडीए ने समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया।
यह फैसला किसका था? माना जाता है कि फैसला
आडवाणी का था। उनकी किताब में इस बात का उल्लेख है कि अटल बिहारी वाजपेयी समय से पहले
चुनाव के सुझाव पर उत्साहित नहीं थे पर आडवाणी इसके पक्ष में थे। इंडिया शाइनिंग का
नारा उनका ही था। शायद आडवाणी को उम्मीद थी कि 2004 का चुनाव उनके लिए सौगात लेकर आ
रहा है। अटल बिहारी पर इस आशय का दबाव था। उन्हीं दिनों की बात है, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी विदेश में थे और
पार्टी कार्यकारिणी ने फैसला किया कि आने वाले चुनाव में एक के बजाय दो नेताओं को सामने
रख कर लड़ेंगे। वह वाजपेयी को हाशिए पर डालने की शुरूआत थी। ऐसा कौन चाहता था?
वाजपेयी ने विदेश से वापसी के बाद अपने रोचक अंदाज़
में मीडिया के सामने कहा था, न कोई टायर,
न रिटायर आडवाणी जी के नेतृत्व में पार्टी चुनाव
में विजय की ओर प्रस्थान करे। वाजपेयी की वह उलटबाँसी किसके समझ में नहीं आई? बताया जाता है कि उन्हीं दिनों पूर्व सरसंघचालक राजेन्द्र सिंह
रज्जू भैया वाजपेयी से मिले और कहा, मैने खराब स्वास्थ्य के कारण सुदर्शन को संघ का कार्यभार दे दिया था। आप भी आडवाणी
जी को दायित्व सौंपकर राष्ट्रपति बन जाइए।
आडवाणी जी की विडंबना है कि
वे ज्यादातर समय नम्बर टू रहे। इतने लम्बे समय तक पीएम इन वेटिंग रहने का रिकॉर्ड उनके
नाम ही है। राजनाथ सिंह को लिखे उनके पत्र के पीछे शायद यही विषाद है। यह पार्टी राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की छत्रछाया में काम करती है। सन 2005 के आडवाणी के इस्तीफे के बाद राजनाथ
सिंह पार्टी अध्यक्ष बने और उसके बाद नितिन गडकरी। दोनों फैसलों पर संघ की स्वीकृति
थी, पर संगठन में अराजकता लगातार
बढ़ती रही। नितिन गडकरी के कार्यकाल में झारखंड में फजीहत हुई और फिर उत्तर प्रदेश
में सफाया।
पार्टी की अनुशासनहीनता के कारण पिछले पन्द्रह महीनों में भाजपा ने उत्तर प्रदेश,
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक
में विफलता का मुख देखा है। झारखंड में उसकी गठबंधन सरकार समय से पहले डूब गई। पंजाब
में उसकी गठबंधन सरकार बनी ज़रूर पर भाजपा का प्रदर्शन पहले के मुकाबले खराब रहा। उसे
केवल गोवा और गुजरात में सफलता मिली। भाजपा की सफलता के प्रतीक नरेन्द्र मोदी, शिवराज
सिंह चौहान, रमन सिंह और मनोहर पर्रिकर हैं। कर्नाटक में येद्दियुरप्पा जैसा मजबूत
नेता पार्टी छोड़कर चला गया। लगभग उसी तरह उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह अलग हुए थे।
आडवाणी की नाराज़गी लम्बी
चली तो पार्टी गहरे संकट में फँस जाएगी। पर यह समझना होगा कि आडवाणी क्या चाहते हैं।
शायद भरोसा चाहते हैं कि 2014 में सम्भावना बने तो उन्हें नेतृत्व का मौका मिले। हो
सकता है उनके कुछ व्यक्तिगत गिले-शिकवे भी हों। उन्हें सुलझाया नहीं गया तो पार्टी
संकट में फँस जाएगी। यूपीए के उलझाव के कारण पार्टी के सामने बेहतर मौका है। पर पिछले
दो साल में वह हर मौके पर गच्चा खाती रही है। भाजपा को मोदी और आडवाणी दोनों की ज़रूरत
है। इस बात को हमसे बेहतर इसके नेताओं को समझना है। प्रभात खबर में प्रकाशित
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
yathartha chintan.....mahoday....dhanyawad.....
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