जनता पार्टी एक प्रकार का
गठबंधन था, नहीं चला। जनता दल भी गठबंधन था। राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा भी
गठबंधन थे जो साल, डेढ़ साल से ज्यादा नहीं चले। इनके बनने के मुकाबले बिगड़ने के कारण
ज्यादा महत्वपूर्ण थे। राजनीतिक गठबंधनों का इतिहास बताता है कि इनके बनते ही सबसे
पहला मोर्चा इनके भीतर बैठे नेताओं के बीच खुलता है। पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा
है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है। इस उम्मीद ने लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री
पद के दो-दो तीन-तीन दावेदार पैदा कर दिए हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ये
मोर्चे बनने से पहले ही टूटने लगते हैं। वर्तमान कोशिशें भी उत्साहवर्धक संकेत नहीं
दे रहीं हैं।
छत्रप शब्द पश्चिमी लोकतंत्र
से नहीं आया है। आधुनिक भारतीय राजनीति पर परम्परागत क्षेत्रीय सूबेदारों के हावी होने
की वजह है हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता। एक धीमी प्रक्रिया से क्षेत्रीयता
और राष्ट्रीयता का समागम हो रहा है। प्रमाण है पार्टियों की बढ़ती संख्या। सन 1951
के चुनाव में हमारे यहाँ 14 राष्ट्रीय और 39 अन्य पार्टियाँ थीं। इनमें से 11 राष्ट्रीय
पार्टियों के 418, अन्य के 34 और 37 निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। जबकि 2009 के लोकसभा
चुनाव में 363 पार्टियाँ उतरीं थीं। इनमें 7 राष्ट्रीय, 34 प्रादेशिक और 242 पंजीकृत
गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं। इनमें से 38 पार्टियों के और 9 निर्दलीय सांसद
वर्तमान लोकसभा में हैं।
पार्टियों की संख्या का लगातार
बढ़ना साबित करता है कि क्षेत्रीय छत्रपों की अवधारणा के बीज राजनीतिक संस्कृति में
छिपे हैं। यह बहुलता किसी एक दल या समूह की दादागीरी कायम नहीं होने देती। यह इस राजनीति
की ताकत है और कमज़ोरी भी। इसके आधार पर विकसित गठबंधन की राजनीति को परिभाषित करने
की ज़रूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। इसकी शुरूआत 1967 से हुई, जब पहली बार कई
राज्यों में कांग्रेस की हार हुई थी। वैकल्पिक पार्टी न होने के कारण तब कई पार्टियों
को मिलकर संयुक्त विधायक दल बनाने पड़े। दूसरी ओर सन 1977 में छह पार्टियों ने बंगाल
में मिलकर वाम मोर्चा बनाया, जो एक माने में इस वक्त मौज़ूद गठबंधनों में सबसे पुराना
है। 1977 में उसमें कम्युनिस्ट पार्टी शामिल नहीं थी, क्योंकि इमर्जेंसी में वह कांग्रेस
के साथ थी और सीपीएम उसके खिलाफ। 1980 के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ने इस मोर्चे
के साथ तालमेल किया और 1982 के चुनाव में बाकायदा इसमें शामिल होकर चुनाव लड़ा।
वाम मोर्चा त्रिपुरा में इसी
नाम से और केरल में वाम लोकतांत्रिक गठबंधन के नाम से प्रसिद्ध है। पर यह मोर्चा तीन
राज्यों तक सीमित है। तीसरे मोर्चे की अवधारणा नब्बे के दशक की है जब कांग्रेस के बरक्स
भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में खड़ी हो गई और इन दोनों से अलग एक तीसरे मोर्चे की ज़रूरत
महसूस हुई। इसकी पहल में वाम मोर्चा का हाथ भी था। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले
वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और एमडीएमके के
साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं रहा।
चुनाव से पहले इस मोर्चे के सदस्यों की संख्या 102 थी जो चुनाव को बाद 80 रह गई। पर
इस वक्त तीसरे मोर्चे को लेकर लेफ्ट फ्रंट भी उत्साहित नहीं है। प्रकाश करत और सीताराम
येचुरी ने कहा है कि हम तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश नहीं करेंगे। कम्युनिस्ट पार्टी
ने कहा है कि चुनाव के बाद ही कोई गठबंधन बनेगा। उधर भाजपा के वेंकैया नायडू का कहना
है कि चुनाव के बाद ही गठबंधन बनेंगे। कांग्रेस यों भी आमतौर पर चुनाव पूर्व गठबंधनों
से परहेज करती है। यानी गठबंधन का माहौल है नहीं।
इसके बावज़ूद ममता बनर्जी
संघीय मोर्चे की पेशकश कर रहीं हैं। यह पेशकश नरेन्द्र मोदी के भूमिका-विस्तार के साथ
शुरू हुई है। पर इसमें दम नज़र नहीं आता। राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा
दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नज़र नहीं आती। ममता
बनर्जी के गणित को ही देखें। मान लें कि इस मोर्चे में उनके अलावा बीजद और जेडीयू हों।
तेदेपा आ जाए और अद्रमुक भी शामिल हो जाए। इन पाँचों राज्यों की कुल सीटें हैं 184।
इन पार्टियों की आज की कुल ताकत है 67 (जेडीयू 20, टीएमसी 18, बीजद 14, तेदेपा 6 और अद्रमुक
9)। मान लेते हैं कि इनकी ताकत बढ़ेगी, पर कितनी हो जाएगी? ज्यादा से ज्यादा 100। अब इसमें और पार्टियाँ जोड़ें। मसलन
सपा, राकांपा, अकाली दल, झारखंड विकास मोर्चा की ताकत को भी जोड़ लें। इसके बाद भी
सीटों की संख्या 175 से ज्यादा नहीं हो पाएगी।
यह सही है कि राष्ट्रीय दलों
की ताकत घटी है। सीटों और वोटों दोनों मामलों में सन 1996 के बाद से यह गिरावट देखी
जा सकती है। पर यह इतनी नहीं घटी कि उनकी जगह कोई तीसरा मोर्चा ले सके। अब भी दो तिहाई
सीटें और वोट राष्ट्रीय दलों को मिलते हैं। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस या भाजपा की
या तो मदद लेनी होगी या दोनों में से किसी का समर्थन करना होगा। चुनाव पूर्व कोई भी
गठबंधन हो, सरकार बनाने का मौका आते ही गठबंधन टूट जाएगा। हमारी ज्यादातर पार्टियाँ
सैद्धांतिक आधार पर नहीं बनी हैं। उनके बनने में भौगोलिक और सामाजिक संरचना की भूमिका
है। हम इन्हें व्यक्तियों के नाम से जानते हैं। बसपा के बजाय मायावती का नाम लेना ज्यादा
आसान है। ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश
चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, फारूक अब्दुल्ला,
महबूबा मुफ्ती, लालू यादव, राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, नवीन पटनायक,
कुलदीप बिश्नोई और नीतीश कुमार नेताओं को नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं।
पार्टियों की संरचना में थोड़ा
फर्क हो सकता है। मसलन मायावती जितनी आसानी से फैसले कर सकती हैं उतनी आसानी से नीतीश
कुमार नहीं कर सकते, पर महत्व छत्रप होने का है। कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ ऐसी हैं जो
केवल एक नेता के असर में नहीं हैं, पर उनके बारे में भी कहा नहीं जा सकता कि चुनाव
के बाद उनकी भूमिका क्या हो। जैसे कि असम गण परिषद या तेलंगाना राष्ट्र समिति। सामाजिक-सांस्कृतिक
और क्षेत्रीय संरचनाओं में भी बदलाव आ रहा है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संख्या
तकरीबन साढ़े अठारह फीसदी है,जबकि असम में तकरीबन तीस फीसदी। असम विधान सभा चुनाव में
पिछली बार मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने सफलता हासिल
करके मुसलमानों के अपने राजनीतिक संगठन का रास्ता साफ किया। पर उत्तर प्रदेश में मुसलमानों
की तकरीबन एक दर्जन पार्टियाँ खड़ी हैं। यह बात रास्ते खोलने के बजाय बंद करती है।
इनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के जुलाहे और पसमांदा मुसलमान भी हैं। असम और केरल की तरह
यूपी के मुसलमान एक ताकत नहीं हैं।
पिछले साल नेशनल काउंटर टेररिज्म
सेंटर (एनसीटीसी) और लोकपाल की बहस के दौरान केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकारों
को लेकर एक संघीय मोर्चे का विचार सामने आया। इस विमर्श में नरेन्द्र मोदी भी शामिल थे, पर मूलतः यह उड़ीसा के मुख्यमंत्री
नवीन पटनायक और ममता बनर्जी की अवधारणा थी। यह सैद्धांतिक विचार था, राजनीतिक गठबंधन
जैसी बात इसमें नहीं थी। अब नवीन पटनायक और ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार के सामने चुनाव
पूर्व राजनीतिक गठबंधन की पेशकश करके इस विचार को आगे बढ़ाया है। पिछले साल उत्तर प्रदेश
में अपूर्व जीत हासिल करने के बाद मुलायम सिंह यादव ने गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे
का आह्वान किया था। तब से अब तक उनकी ओर से कई बार कहा गया है कि अगली सरकार तीसरे
मोर्चे की बनेगी और इंशा अल्लाह मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बनेंगे।
अभी तक का अनुभव है कि क्षेत्रीय
दलों के राष्ट्रीय गठबंधन तभी सफल हो पाते हैं जब उनमें कोई एक सबसे बड़ा दल हो। वाम
मोर्चे में भी सीपीएम सबसे बड़े दल की भूमिका अदा करता है। राजनीतिक गणित ऐसा है कि
कुछ पार्टियाँ एक साथ नहीं आएंगी। ममता बनर्जी होंगी यो सीपीएम नहीं होगी। मायावती
होंगी तो मुलायम दूर रहेंगे। लालू और नीतीश एक
साथ नहीं आएंगे। कांग्रेस और बीजेपी का गठबंधन नहीं होगा। डीएमके और जयललिता एक साथ
नहीं आएंगे। एक इस मोर्चे में होगा तो दूसरा दूसरे मोर्चे में जाएगा। इन्हें बनाने
को मजबूत वैचारिक कारण अनुपस्थित हैं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अनेक हैं। इसलिए
यह विचार पक्के तौर पर अव्यावहारिक है। पहले तो बनेगा नहीं। बनेगा तो चलेगा नहीं।
लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियों का घटता प्रभाव
चुनाव वर्ष
|
सीट प्रतिशत में
|
वोट प्रतिशत में
|
1952
|
82.6
|
67.8
|
1957
|
85.2
|
73.0
|
1962
|
89.0
|
78.4
|
1967
|
84.6
|
76.3
|
1971
|
85.1
|
77.8
|
1977
|
88.7
|
84.6
|
1980
|
91.7
|
85.1
|
1984
|
85.4
|
77.8
|
1989
|
89.0
|
79.3
|
1991
|
89.5
|
80.8
|
1996
|
76.6
|
69.6
|
1998
|
71.2
|
68.0
|
1999
|
68.0
|
67.1
|
2004
|
67.5
|
63.1
|
2009
|
69.4
|
63.6
|
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बिलकुल सटीक विष्लेशन....
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