राष्ट्रीय-राजनीति का चुनाव-विमर्श अचानक तेज हो गया है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ जिस दिन शुरू हो रही थी, उसके एक दिन पहले नीतीश कुमार दिल्ली में 2024 के चुनाव की संभावनाओं को लेकर मुलाकातें कर रहे थे। उन्होंने राहुल गांधी और राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के अलावा शरद पवार, एचडी कुमारस्वामी, ओम प्रकाश चौटाला, सीताराम येचुरी और दूसरे कुछ नेताओं से भी मुलाकात की। पार्टी उन्हें पीएम-उम्मीदवार के तौर पर पेश कर रही है, वहीं नीतीश कुमार ने दिल्ली में कहा कि मैं दावेदार नहीं बनना चाहता। सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास कर रहा हूँ। 4 सितंबर को रामलीला मैदान में हुई रैली में राहुल गांधी ने कहा कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है। यानी कि बीजेपी को हराना है तो उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व में ही आना होगा। पर विरोधी-खिचड़ियाँ अलग-अलग बर्तनों में पक रही हैं। विपक्ष बिखरा हुआ है, लेकिन एकजुटता की कोशिशें जारी है। इस एकता का एक प्रदर्शन 25 सितंबर को हरियाणा में हिसार के नजदीक विपक्ष की रैली में देखने को मिलेगा।
एकता के प्रयास
विरोधी राजनीति के नजरिए से बिहार में हुए
राजनीतिक बदलाव के बाद संभावनाएं बेहतर हुई हैं। इसका संकेत ममता बनर्जी के ताजा
बयान से मिलता है। उन्होंने कहा, नीतीश जी, अखिलेश,
हेमंत और मेरा वादा है कि ये चार मिलकर बीजेपी को 2024 लोकसभा चुनाव
में 100 सीटों पर रोक देंगे। इनमें से पश्चिम बंगाल में 42, बिहार
में 40, उत्तर प्रदेश में 80 और झारखंड में 14 लोकसभा
सीटे हैं। भाजपा कहती है कि उनके पास 300 सीटें हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि
राजीव गांधी के पास 400 सीटें थीं लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस हार गई। बीजेपी
भी हारेगी। इन राज्यों में उसे 100 सीटों का नुकसान होगा। देश के अन्य हिस्सों की
पार्टियां भी जल्द ही हमारे साथ आएंगी। क्या बीजेपी को 100 सीटों पर रोका जा सकता
है?
कांग्रेस से परहेज
ध्यान देने वाली बात है कि ममता बनर्जी ने
राहुल गांधी, केजरीवाल, शरद पवार और चंद्रशेखर राव के नामों का उल्लेख नहीं किया
है। क्या इस बयान को भविष्य के राजनीतिक गठजोड़ का संकेत मानें? या सिर्फ बयान मानें, जो माहौल बनाने के लिए है? सवाल
तीन हैं। नंबर एक, क्या राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी एकता है? दो,
क्या इस एकता में कांग्रेस भी शामिल है? और तीन, बीजेपी के पास इसकी काट की
रणनीति क्या है? इन सवालों के आगे-पीछे अनेक किंतु-परंतु हैं। इंडियन
नेशनल लोकदल अपने संस्थापक देवीलाल की जयंती पर 25 सितंबर को रैली का आयोजन कर रहा
है। इसमें कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी दलों के कई नेताओं को निमंत्रण भेजा गया है।
दूसरी तरफ हालांकि ममता बनर्जी विरोधी-एकता की समर्थक हैं, पर उनकी पार्टी ने
उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार माना है। कोलकाता में आयोजित पार्टी की
बैठक के दौरान उन्होंने जिन दलों के नाम लिए उनमें कांग्रेस का नाम गायब था। यह भी
साफ है कि बीजेपी को हराने के लिए लेफ्ट के साथ भी उनका गठबंधन नहीं होने वाला है।
भारत जोड़ो यात्रा
राहुल गांधी की यात्रा का उद्देश्य क्या है? कन्याकुमारी से यात्रा शुरू करते हुए राहुल गांधी ने दो तरह की बातें
कहीं, यह मार्च राष्ट्रीय ध्वज के मूल्यों के तले सभी भारतीयों को एकजुट करने की
कोशिश है, जिसका मूल सिद्धांत विविधता है। साथ ही यह भी
कहा कि हिंदुत्व की विचारधारा के साए में ये मूल्य अब खतरे में हैं। ज़ाहिर है कि
यह कांग्रेस को बचाने की कोशिश है और 2024 के चुनाव के पहले की राजनीतिक गतिविधि।
यह यात्रा पार्टी के झंडे के पीछे नहीं चल रही है, बल्कि तिरंगे के पीछे है, पर
संदेश राजनीतिक है और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी योजना भी राजनीतिक है। अब इसे
विरोधी एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ जोड़कर देखें।
धुरी या परिधि?
विरोधी दलों की एकता में कांग्रेस कहाँ है? धुरी में या परिधि में? कांग्रेस साबित
करना चाहती है कि यह एकता उसके नेतृत्व में ही संभव है, जबकि क्षेत्रीय स्तर पर
दूसरे नेताओं को लगता है कि कांग्रेस अब नेतृत्व के लायक नहीं रही। डीएमके, राकांपा
और शिवसेना जैसे दल कहते रहे हैं कि कांग्रेस के बिना विरोधी एकता संभव नहीं है,
पर जल्द ही होने वाले बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव में राकांपा और
शिवसेना मिलकर लड़ेंगे। कांग्रेस उसमें शामिल नहीं होगी। महाराष्ट्र में सरकार
गिरने के बाद महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की पहली बैठक में तीनों सहयोगी पार्टियों
ने फैसला किया कि शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस विधानसभा और
लोकसभा दोनों चुनाव एक साथ लड़ेंगी, जबकि स्थानीय निकाय चुनावों को साथ लड़ने पर
कोई सहमति नहीं बनी।
यात्रा की राजनीति
राहुल गांधी खुद को हिंदुत्व का सबसे मुखर आलोचक, संघवाद और उदारवाद का प्रवर्तक मानते हैं। पर चुनाव परिणामों को देखें, तो लगता है कि वे पर्याप्त जन समर्थन जुटाने की स्थिति में नहीं हैं। कांग्रेस ने हिंदू-जनाधार को खो दिया है, जबकि बीजेपी ने गहरी जड़ें जमा ली हैं। राहुल गांधी अब यात्रा के फॉर्मूले का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अतीत में महात्मा गांधी, चंद्रशेखर, मुरली मनोहर जोशी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक ने इसका लाभ लिया है। क्या राहुल गांधी को इसका लाभ मिलेगा? आंशिक-परिणाम सामने आने में कुछ महीने लगेंगे और अंतिम-परिणाम 2024 के चुनाव के बाद आएंगे।
कांग्रेसी-चिंतन
कांग्रेस ने पार्टी को जगाने के लिए उदयपुर चिंतन-शिविर
में जो घोषणाएं की थीं, उनमें इस यात्रा का कार्यक्रम भी शामिल था। उदयपुर में
वंशवाद रोकने का संकल्प भी किया गया था, लेकिन यह सब
हवाई साबित हुआ है। अक्तूबर में पार्टी के नए अध्यक्ष का चुनाव होना है। उससे काफी
चीजें साफ होंगी। पर यह तय है कि पार्टी के शीर्ष पर परिवार ही रहेगा, जिसका
प्रतिनिधित्व राहुल गांधी कर रहे हैं। बेशक राहुल अपनी पार्टी के शिखर पर बने रहेंगे,
पर उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे शेष विरोधी दलों दिल-दिमाग जीतने में
सफल हों। असली परीक्षा देश की जनता के सामने होनी है। वह यात्रा ‘भारत
जोड़ो’ से ज्यादा लंबी और कठिन है।
चुनाव-योजना
2019 के चुनाव में कांग्रेस को 52 सीटों पर जीत
मिली थी। 210 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही थी। यानी कि 262 सीटों पर कांग्रेस और
बीजेपी में सीधा मुकाबला हो सकता है। कांग्रेस मानती है कि यदि विरोधी दल उसकी
सहायता करें, तो वह बीजेपी से बड़ी संख्या में सीटें जीत सकती है। लोकसभा की 274
सीटें गैर-बीजेपी शासित राज्यों में है। वहां बीजेपी की मुख्य लड़ाई क्षेत्रीय दलों
से ही होगी। विपक्ष के एकजुट न होने और अलग-अलग चुनाव लड़ने से वोटों का जो बँटवारा
हुआ, उसका लाभ बीजेपी को पिछले दोनों लोकसभा चुनाव
में मिला। सवाल है कि क्या विरोधी दल इन 274 सीटों पर बीजेपी के खिलाफ एक
प्रत्याशी खड़ा करने में सफल होंगे? क्या इस रणनीति का लाभ विरोधी दलों को
मिलेगा?
बीजेपी की रणनीति
2004 और आज की बीजेपी में बड़ा अंतर है। पिछले
18 साल में बीजेपी ने ओबीसी कार्ड अपने हाथ में ले लिया है। सोशल इंजीनियरी के
गणित में उसने कांग्रेस को तो परास्त किया ही है, मंडल-मुखी पार्टियों को भी पीछे
छोड़ दिया है। जातीय-भिन्नताओं को हिंदू एकता जोड़ रही है। बिहार में छोटी पहचान
वाले जातीय-दल बीजेपी के साथ दिखाई पड़ें, तो हैरत नहीं होगी। बीजेपी ने 2019 के
लोकसभा चुनाव में 303 सीटों पर जीत हासिल की थी। उस चुनाव में पार्टी ने उन सीटों
पर खास फोकस किया था, जहाँ 2014 में पार्टी जीतते-जीतते हार गई थी। इसका फायदा भी
मिला और 2014 की 282 सीटें 2019 में 300 के पार पहुंच गईं।
एनडीए का क्षरण
इसबार दूसरी चिंताएं हैं। पिछले तीन साल में
एनडीए के कुछ महत्वपूर्ण सहयोगी टूटे हैं। इनमें शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल और
जेडीयू प्रमुख हैं। रामविलास पासवान के निधन के बाद लोक जनशक्ति पार्टी दो टुकड़ों
में बँट चुकी है। बिहार में लोजपा के करीब 6 फीसदी वोट हैं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली,
उत्तराखंड, हिमाचल, त्रिपुरा,
अरुणाचल जैसे आठ राज्यों से लोकसभा की सभी सीटों पर बीजेपी का कब्जा
है। मध्य प्रदेश की 29 में से 28 सीटें बीजेपी को मिली थीं। महाराष्ट्र की 48 में
से 39 सीटें एनडीए को मिली थीं। इस स्तर को बनाए रखने की बहुत बड़ी चुनौती है। ये
सीटें इससे ज्यादा नहीं हो सकती हैं।
144 सीटों पर नजर
बीजेपी की योजना में जीती हुई सीटों को बरकरार
रखने के अलावा उन चुनाव-क्षेत्रों पर खास फोकस किया गया है जहां पिछले चुनाव में
पार्टी दूसरे या फिर तीसरे नंबर पर थी। बड़े नेताओं को 144 सीटों की जिम्मेदारी गई
है। इन सीटों की जातीय-संरचना और स्थानीय मसलों का बारीक वर्गीकरण किया गया है। ये
144 सीटें पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, महाराष्ट्र,
पंजाब, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़,
बिहार, तमिलनाडु में हैं। दक्षिण के पाँच राज्यों
में लोकसभा की कुल 129 सीटें हैं। पिछले चुनाव में बीजेपी ने इनमें से 30 सीटें हासिल
की थीं। इन 30 में से 26 अकेले कर्नाटक मे मिलीं। पार्टी का ध्यान दक्षिण पर है। हाल
में हैदराबाद में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी पार्टी के इसी
मिशन को सफल बनाने के इरादे से थी। केरल, आंध्र, तेलंगाना और तमिलनाडु में पार्टी कमजोर है। कर्नाटक और तेलंगाना में
2023 में विधानसभा होंगे। कर्नाटक की तरह बीजेपी तेलंगाना में अपनी पूरी ताकत झोंकेगी।
हरिभूमि में प्रकाशित
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