दिल्ली में प्रदूषण रोकने के लिए सम और विषम संख्या की कारों का फॉर्मूला एक माने में बेहद सफल नजर आता है, भले ही वह अपने मूल उद्देश्य में विफल रहा हो। अब तक की जानकारी के अनुसार कारों पर पाबंदी की इस योजना से प्रदूषण को रोकने में किसी प्रकार की नाटकीय सफलता नहीं मिली है। बेशक कुछ प्रदूषण कम हुआ है, पर वह इतना कम नहीं हुआ कि इसे स्थायी समाधान मान लें। पर इस अभियान को जिस किस्म की सफलता मिली है, वह जरूर अविश्वसनीय है। इसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश की जनता के भीतर अपनी समस्याओं के समाधान को लेकर जबर्दस्त ललक है। वह बड़े फैसले खुद नहीं कर सकती। उसके लिए उसे सरकारों का मुँह देखना पड़ता है, पर जब उसे किसी फैसले का महत्व समझ में आ जाता है तब वह उसे सफल बनाने में पीछे नहीं रहती।
हाल के वर्षों में भारत ने पोलियो उन्मूलन के कार्यक्रम को जितनी सफलता से लागू किया शायद प्रदूषण के खिलाफ कार्यक्रम उससे भी ज्यादा तेजी से सफल हो सकता है। दूसरे दिल्ली की सड़कों पर प्रदूषण भले ही कुछ खास कम न हुआ हो, पर अचानक ट्रैफिक की रफ्तार बढ़ गई। जिन सड़कों से होकर गंतव्य तक जाने में पर दो-दो घंटे लगते थे, उनसे होकर गुजरने में अब सिर्फ आधा घंटा लग रहा है। जामों की संख्या कम होने से भी प्रदूषण के स्तर पर फर्क तो पड़ेगा ही।
इस अभियान को सफल बनाने में दिल्ली की जनता का पूरा सहयोग मिला। इसका एक दौर अब पूरे एनसीआर के लिए भी होना चाहिए। शायद तब प्रदूषण पर भी इसका बेहतर असर देखने को मिल सकेगा। दिल्ली का इस प्रयोग को पूरा होने के बाद इसके विश्लेषण की जरूरत होगी। जरूरत यह देखने की भी होगी कि सरकार की सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था कैसी थी। महीने के पहले दो दिन की सफलता के बाद अंदेशा था कि सोमवार को इस अभियान की असली परीक्षा होगी, पर सोमवार को भी किसी प्रकार की अराजकता नहीं हुई। इस अभियान में जहाँ जनता की भागीदारी अच्छी थी वहीं स्कूलों ने जरूरी मदद नहीं की। सोमवार को सड़कों पर कुल 7143 बसें चलीं। दिल्ली के 408 स्कूलों ने 1799 बसें देने का वादा किया था, लेकिन 125 स्कूलों की 366 बसें ही सड़क पर उतरीं। 283 स्कूल 1433 बसें देने का वादा करके मुकर गए।
प्रदूषण का सामान्य स्तर 100 माइक्रोन तक माना जाता है लेकिन सोमवार को आनन्द विहार में 677, सिविल लाइंस में 390, पंजाबी बाग में 385, मंदिर मार्ग में 465 और आरके पुरम में 514 माइक्रोन मापा गया। इस अभियान का संचालन करते समय तमाम नई जानकारियाँ सामने आई हैं। एक जानकारी यह है कि दिल्ली के 200 पेट्रोल पम्पों पर लगी प्रदूषण मापने की मशीनों में से 60 फीसदी मशीनें, कैलिब्रेशन नहीं हो पाने के कारण खुद बीमार हैं। सामान्यतः लोग-बाग़ खुद प्रदूषण सर्टिफिकेट तब लेते हैं, जब उन्हें लगता है कि ट्रैफिक पुलिस कोई अभियान चला रही है। सामान्य जन की बेरुखी के पीछे सरकारी मशीनरी की बेरुखी का बड़ा हाथ है। दिल्ली की ही नहीं पूरे देश की ट्रैफिक पुलिस की दिलचस्पी ट्रकों और व्यावसायिक वाहनों से वसूली करने में ज्यादा रहती है। उन्हें आप जितनी मुस्तैदी से ट्रकों से वसूली करते देखेंगे उतनी मुस्तैदी से प्रदूषण कानूनों को लागू कराते नहीं पाएंगे। बावजूद इसके दिल्ली के ऑड-ईवन अभियान में पुलिस ने काफी मुस्तैदी से काम किया।
मतलब यह कि जब हम सार्वजनिक हित के अभियान को बड़े रूप में प्रचारित करके चलाते हैं तब पूरा देश उसके समर्थन में आ जाता है। इस भावना का फायदा उठाया जाना चाहिए। दिल्ली में कारों की संख्या देश के बड़े महानगरों की कारों की कुल संख्या से भी ज्यादा है। यह तादाद बढ़ती ही जाएगी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि उत्तर भारत में ज्यादातर बड़े शहरों की आर्थिक गतिविधियों का ठीक से विस्तार नहीं हो पाया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा और पंजाब से काफी आबादी काम-काज की तलाश में दिल्ली आ रही है। कहीं से कम और कहीं से ज्यादा। केन्द्र सरकार की स्मार्ट सिटी की योजना में इलाके की आर्थिक गतिविधियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इन इलाकों के शहरीकरण के साथ-साथ सड़क बनाने के मानक भी कठोरता के साथ लागू होने चाहिए।
प्रदूषण का एक बड़ा कारण सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की अनुपस्थिति है। कुछ बड़े शहरों में मेट्रो परियोजना शुरू हो रही है, पर उसकी गति देश के विस्तार के अनुपात में काफी कम है। दूसरे हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक कारों को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। कुछ साल पहले जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने 2020 तक जर्मन सड़कों पर दस लाख इलेक्ट्रिक कारों का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया था। इलेक्ट्रिक कार के मामले में चीन दुनिया में सबसे बड़ा बाजार बन गया है। चाइना एसोसिएशन ऑफ ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर्स के अनुसार 2015 में इलेक्ट्रिक कारों की बिक्री का आंकड़ा 2.20 लाख से 2.50 लाख तक पहुंच जाएगा। अमेरिका में यह संख्या 1.80 लाख है। यानी अमेरिका को पीछे छोड़ चीन दुनिया का सबसे बड़ा इलेक्ट्रिक कार बाजार बन जाएगा। हाल के वर्षों में चीन में इलेक्ट्रिक कारों की बिक्री 290 फीसदी बढ़ी है। चीन ने 2020 तक सड़कों पर 50 लाख इलेक्ट्रिक कार लाने और 45 लाख चार्जिंग स्टेशन बनाने की योजना बनाई है।
हाल में महाराष्ट्र सरकार ने घोषणा की है कि बिजली से चलने वाली कारों पर टैक्स नहीं लगेगा। राज्य सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों पर वैट, रोड-टैक्स, रजिस्ट्रेशन जैसे चार्ज नहीं लगाएंगी। पिछले साल भारत सरकार ने अप्रैल में लांच हुई स्कीम “फेम” के लिए शहरों के नाम तय कर दिए हैं। इन शहरों में इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों की खरीदारी के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जा रहा है। भारी उद्योग मंत्रालय ने अप्रैल 2015 में स्कीम फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक ह्वीकल्स (फेम) को लांच किया है। स्कीम के जरिए ग्राहक को कम कीमत पर हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहन देने का प्रावधान है। फेम इंडिया स्कीम स्मार्ट सिटी, राज्यों की राजधानी और दूसरे शहरों में लागू की जाएगी। साथ ही इन शहरों में इलेक्ट्रिक वाहनों और हाइब्रिड वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए चार्जिंग स्टेशन से लेकर दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किए जाएंगे।
दिल्ली पर आफत आती है तब मीडिया की नजर में वह राष्ट्रीय समस्या बन जाती है। इस बहाने राष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति बनाने का मौका मिलता है। दिल्ली में ‘ऑड-ईवन’ अभियान का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि वायु प्रदूषण सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बना है। इस विमर्श के साथ बात इस बात पर भी होनी चाहिए कि हम ऑटोमोबाइल की इस जकड़बंदी के बाहर क्यों नहीं सोचते। हाल के वर्षों में अपनी गाड़ी की चाहत इतनी तेजी से बढ़ी ह कि हमने परिवहन के वैकल्पिक सवालों पर विचार करना बंद कर दिया है। हम इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे हैं कि एक कार सड़क पर जो जगह घेर रही है, वह दूसरे नागरिकों की स्वतंत्रता में बाधक है। खासतौर से पैदल या साइकिल पर चलने वालों के लिए। होना यह चाहिए कि यदि आप कार रखना ही चाहते हैं तो उसकी भारी कीमत चुकाएं। जिस तरह सिंगापुर में कार लेने के पहले उसके परमिट की जरूरत होती है वैसी व्यवस्था पर भी हमें विचार करने की जरूरत है।
महानगरों में साइकिल ट्रैक लगभग समाप्त हो चुके हैं। उनपर अब भारी वाहन दौड़ रहे हैं। यह प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य दोनों के लिहाज से खतरनाक है। एक माने में यह कार संस्कृति हमारा जीवन हराम कर रही है। हम कार पर आश्रित इसलिए हैं क्योंकि शहर के भीतर दूर की यात्रा के लिए सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं है। तब हम उस दिशा में ही क्यों विचार नहीं करते? हमने कार पूल की योजनाएं बनाई हैं। कई जगह वे सफल भी हैं। उसके और बेहतर विकल्प भी सोचे जा सकते हैं। पर इसके पहले हमें फुटपाथ, साइकिल ट्रैक, ट्राम और मोनो रेल परियोजनाओं पर विचार करना चाहिए। दूसरी ओर बैंकों, सरकारी दफ्तरों और अन्य संस्थाओं के काम करने के तरीकों में भी बदलाव होना चाहिए, ताकि जनता को कम से कम भागना पड़े। दफ्तरों और स्कूलों के समय में भी बदलाव के बारे में सोचना चाहिए। प्रदूषण हम सबके सामने खतरे खड़े कर रहा है। साथ ही हमें मौका दे रहा है कि मिलकर समाधान खोजें। कुछ सोचते क्यों नहीं? खुले दिमाग से सोचिए।
हाल के वर्षों में भारत ने पोलियो उन्मूलन के कार्यक्रम को जितनी सफलता से लागू किया शायद प्रदूषण के खिलाफ कार्यक्रम उससे भी ज्यादा तेजी से सफल हो सकता है। दूसरे दिल्ली की सड़कों पर प्रदूषण भले ही कुछ खास कम न हुआ हो, पर अचानक ट्रैफिक की रफ्तार बढ़ गई। जिन सड़कों से होकर गंतव्य तक जाने में पर दो-दो घंटे लगते थे, उनसे होकर गुजरने में अब सिर्फ आधा घंटा लग रहा है। जामों की संख्या कम होने से भी प्रदूषण के स्तर पर फर्क तो पड़ेगा ही।
इस अभियान को सफल बनाने में दिल्ली की जनता का पूरा सहयोग मिला। इसका एक दौर अब पूरे एनसीआर के लिए भी होना चाहिए। शायद तब प्रदूषण पर भी इसका बेहतर असर देखने को मिल सकेगा। दिल्ली का इस प्रयोग को पूरा होने के बाद इसके विश्लेषण की जरूरत होगी। जरूरत यह देखने की भी होगी कि सरकार की सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था कैसी थी। महीने के पहले दो दिन की सफलता के बाद अंदेशा था कि सोमवार को इस अभियान की असली परीक्षा होगी, पर सोमवार को भी किसी प्रकार की अराजकता नहीं हुई। इस अभियान में जहाँ जनता की भागीदारी अच्छी थी वहीं स्कूलों ने जरूरी मदद नहीं की। सोमवार को सड़कों पर कुल 7143 बसें चलीं। दिल्ली के 408 स्कूलों ने 1799 बसें देने का वादा किया था, लेकिन 125 स्कूलों की 366 बसें ही सड़क पर उतरीं। 283 स्कूल 1433 बसें देने का वादा करके मुकर गए।
प्रदूषण का सामान्य स्तर 100 माइक्रोन तक माना जाता है लेकिन सोमवार को आनन्द विहार में 677, सिविल लाइंस में 390, पंजाबी बाग में 385, मंदिर मार्ग में 465 और आरके पुरम में 514 माइक्रोन मापा गया। इस अभियान का संचालन करते समय तमाम नई जानकारियाँ सामने आई हैं। एक जानकारी यह है कि दिल्ली के 200 पेट्रोल पम्पों पर लगी प्रदूषण मापने की मशीनों में से 60 फीसदी मशीनें, कैलिब्रेशन नहीं हो पाने के कारण खुद बीमार हैं। सामान्यतः लोग-बाग़ खुद प्रदूषण सर्टिफिकेट तब लेते हैं, जब उन्हें लगता है कि ट्रैफिक पुलिस कोई अभियान चला रही है। सामान्य जन की बेरुखी के पीछे सरकारी मशीनरी की बेरुखी का बड़ा हाथ है। दिल्ली की ही नहीं पूरे देश की ट्रैफिक पुलिस की दिलचस्पी ट्रकों और व्यावसायिक वाहनों से वसूली करने में ज्यादा रहती है। उन्हें आप जितनी मुस्तैदी से ट्रकों से वसूली करते देखेंगे उतनी मुस्तैदी से प्रदूषण कानूनों को लागू कराते नहीं पाएंगे। बावजूद इसके दिल्ली के ऑड-ईवन अभियान में पुलिस ने काफी मुस्तैदी से काम किया।
मतलब यह कि जब हम सार्वजनिक हित के अभियान को बड़े रूप में प्रचारित करके चलाते हैं तब पूरा देश उसके समर्थन में आ जाता है। इस भावना का फायदा उठाया जाना चाहिए। दिल्ली में कारों की संख्या देश के बड़े महानगरों की कारों की कुल संख्या से भी ज्यादा है। यह तादाद बढ़ती ही जाएगी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि उत्तर भारत में ज्यादातर बड़े शहरों की आर्थिक गतिविधियों का ठीक से विस्तार नहीं हो पाया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा और पंजाब से काफी आबादी काम-काज की तलाश में दिल्ली आ रही है। कहीं से कम और कहीं से ज्यादा। केन्द्र सरकार की स्मार्ट सिटी की योजना में इलाके की आर्थिक गतिविधियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इन इलाकों के शहरीकरण के साथ-साथ सड़क बनाने के मानक भी कठोरता के साथ लागू होने चाहिए।
प्रदूषण का एक बड़ा कारण सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की अनुपस्थिति है। कुछ बड़े शहरों में मेट्रो परियोजना शुरू हो रही है, पर उसकी गति देश के विस्तार के अनुपात में काफी कम है। दूसरे हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक कारों को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। कुछ साल पहले जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने 2020 तक जर्मन सड़कों पर दस लाख इलेक्ट्रिक कारों का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया था। इलेक्ट्रिक कार के मामले में चीन दुनिया में सबसे बड़ा बाजार बन गया है। चाइना एसोसिएशन ऑफ ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर्स के अनुसार 2015 में इलेक्ट्रिक कारों की बिक्री का आंकड़ा 2.20 लाख से 2.50 लाख तक पहुंच जाएगा। अमेरिका में यह संख्या 1.80 लाख है। यानी अमेरिका को पीछे छोड़ चीन दुनिया का सबसे बड़ा इलेक्ट्रिक कार बाजार बन जाएगा। हाल के वर्षों में चीन में इलेक्ट्रिक कारों की बिक्री 290 फीसदी बढ़ी है। चीन ने 2020 तक सड़कों पर 50 लाख इलेक्ट्रिक कार लाने और 45 लाख चार्जिंग स्टेशन बनाने की योजना बनाई है।
हाल में महाराष्ट्र सरकार ने घोषणा की है कि बिजली से चलने वाली कारों पर टैक्स नहीं लगेगा। राज्य सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों पर वैट, रोड-टैक्स, रजिस्ट्रेशन जैसे चार्ज नहीं लगाएंगी। पिछले साल भारत सरकार ने अप्रैल में लांच हुई स्कीम “फेम” के लिए शहरों के नाम तय कर दिए हैं। इन शहरों में इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों की खरीदारी के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जा रहा है। भारी उद्योग मंत्रालय ने अप्रैल 2015 में स्कीम फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक ह्वीकल्स (फेम) को लांच किया है। स्कीम के जरिए ग्राहक को कम कीमत पर हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहन देने का प्रावधान है। फेम इंडिया स्कीम स्मार्ट सिटी, राज्यों की राजधानी और दूसरे शहरों में लागू की जाएगी। साथ ही इन शहरों में इलेक्ट्रिक वाहनों और हाइब्रिड वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए चार्जिंग स्टेशन से लेकर दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किए जाएंगे।
दिल्ली पर आफत आती है तब मीडिया की नजर में वह राष्ट्रीय समस्या बन जाती है। इस बहाने राष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति बनाने का मौका मिलता है। दिल्ली में ‘ऑड-ईवन’ अभियान का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि वायु प्रदूषण सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बना है। इस विमर्श के साथ बात इस बात पर भी होनी चाहिए कि हम ऑटोमोबाइल की इस जकड़बंदी के बाहर क्यों नहीं सोचते। हाल के वर्षों में अपनी गाड़ी की चाहत इतनी तेजी से बढ़ी ह कि हमने परिवहन के वैकल्पिक सवालों पर विचार करना बंद कर दिया है। हम इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे हैं कि एक कार सड़क पर जो जगह घेर रही है, वह दूसरे नागरिकों की स्वतंत्रता में बाधक है। खासतौर से पैदल या साइकिल पर चलने वालों के लिए। होना यह चाहिए कि यदि आप कार रखना ही चाहते हैं तो उसकी भारी कीमत चुकाएं। जिस तरह सिंगापुर में कार लेने के पहले उसके परमिट की जरूरत होती है वैसी व्यवस्था पर भी हमें विचार करने की जरूरत है।
महानगरों में साइकिल ट्रैक लगभग समाप्त हो चुके हैं। उनपर अब भारी वाहन दौड़ रहे हैं। यह प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य दोनों के लिहाज से खतरनाक है। एक माने में यह कार संस्कृति हमारा जीवन हराम कर रही है। हम कार पर आश्रित इसलिए हैं क्योंकि शहर के भीतर दूर की यात्रा के लिए सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं है। तब हम उस दिशा में ही क्यों विचार नहीं करते? हमने कार पूल की योजनाएं बनाई हैं। कई जगह वे सफल भी हैं। उसके और बेहतर विकल्प भी सोचे जा सकते हैं। पर इसके पहले हमें फुटपाथ, साइकिल ट्रैक, ट्राम और मोनो रेल परियोजनाओं पर विचार करना चाहिए। दूसरी ओर बैंकों, सरकारी दफ्तरों और अन्य संस्थाओं के काम करने के तरीकों में भी बदलाव होना चाहिए, ताकि जनता को कम से कम भागना पड़े। दफ्तरों और स्कूलों के समय में भी बदलाव के बारे में सोचना चाहिए। प्रदूषण हम सबके सामने खतरे खड़े कर रहा है। साथ ही हमें मौका दे रहा है कि मिलकर समाधान खोजें। कुछ सोचते क्यों नहीं? खुले दिमाग से सोचिए।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (08.01.2016) को " क्या हो जीने का लक्ष्य" (चर्चा -2215) पर लिंक की गयी है कृपया पधारे। वहाँ आपका स्वागत है, सादर।
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (08.01.2016) को " क्या हो जीने का लक्ष्य" (चर्चा -2215) पर लिंक की गयी है कृपया पधारे। वहाँ आपका स्वागत है, सादर।
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