भारत-उदय-06
भारत की आर्थिक-प्रगति और वैश्विक-मंचों पर उसकी भूमिका को देखते हुए यह कहा जाने लगा है कि भारत आज नहीं तो कल ‘सुपर-पावर’ होगा. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि वह अगले दशक में और कुछ मानते हैं कि 2025 तक ‘सुपर-पावर’ की श्रेणी में आ जाएगा. कुछ मानते हैं कि वह ‘सुपर-पावर’ है.
पहला सवाल यही होना चाहिए कि ‘सुपर-पावर’ से आपका मतलब क्या है? सच यह है कि किसी भी देश का सम्मान केवल उसके उदात्त आदर्शों के कारण नहीं होता. उसके दो तत्व बेहद महत्वपूर्ण होते हैं. एक, राष्ट्रीय हितों की पूर्ति और दूसरा राष्ट्रीय-शक्ति. कमजोर देश अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा नहीं कर सकते. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रसिद्ध अध्येताओं में एक हैंस जोकिम मॉर्गेनथाऊ ने इसीलिए राष्ट्रीय शक्ति को यथार्थ से जोड़ने का सुझाव दिया था.
शक्ति का अर्थ
ताकत या शक्ति को भी परिभाषित करना सरल नहीं है.
ऑस्ट्रेलिया का थिंक टैंक लोवी इंस्टीट्यूट वैश्विक पावर-इंडेक्स तैयार करता है,
जिसमें भारत का स्थान चौथा है. इस इंडेक्स के मुताबिक अमेरिका, चीन और जापान के
बाद दुनिया का चौथा सबसे शक्तिशाली देश है.
इसी तरह ग्लोबल फायरपावर डॉट कॉम सैनिक शक्ति
के आधार पर रैंक तय करता है. इसके नवीनतम आकलन के अनुसार अमेरिका, रूस और चीन के
बाद भारत का रैंक चौथा है. इस लिहाज से देखें, तो भारत को ‘सुपर-पावर’ मान लेना चाहिए.
शक्ति के ये सूचकांक सैनिकों की संख्या, सेनाओं
के पास मौजूद उपकरणों मसलन लड़ाकू विमानों, युद्धपोतों, पनडुब्बियों और मिसाइलों
वगैरह के आधार पर तैयार किए जाते हैं. भारतीय सेनाएं कमोबेश तीसरे-चौथे नंबर पर
आती हैं. उसकी बहादुरी के किस्से दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं. पर आज केवल बहादुरी
का ज़माना नहीं है.
तकनीक की भूमिका
केवल सैनिकों की संख्या ही अब मायने नहीं रखती
है. आने वाले समय के युद्ध तकनीक के सहारे लड़े जाएंगे. थलसेना, नौसेना और
वायुसेना के अलावा सुरक्षा के दो नए आयाम हाल के वर्षों में जुड़े हैं. इनमें एक
है अंतरिक्ष और दूसरा सायबर सुरक्षा का.
इन सभी क्षेत्रों में महारत पाने के लिए
तकनीकी-औद्योगिक आधार की जरूरत है. भारतीय सेना इस समय अपनी नई रणनीति पर काम कर
रही है. अब हम थिएटर कमांड और इंडिपेंडेंट बैटल ग्रुप्स की अवधारणाओं पर काम कर
रहे है. इसमें सेनाओं की सभी शाखाएं एकीकृत कमांड में काम करेंगी. सैनिकों का
तकनीकी कौशल भी इसके लिए बढ़ाना होगा.
युद्ध अब केवल देश की सीमा पर ही नहीं लड़े
जाएंगे. वे अंतरिक्ष और सायबर स्पेस में भी लड़े जाएंगे. सारे योद्धा परंपरागत
फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे. बड़ी संख्या में लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे
बैठकर काम करेंगे.
अदृश्य-युद्ध
सायबर हमले सैनिकों की जान नहीं लेते, पर वे व्यवस्था को ध्वस्त करते हैं. मनुष्य समाज सिस्टम्स, यानी व्यवस्थाओं की बुनियाद पर टिका है. हमारा समूचा कार्य-संचालन
आर्थिक, व्यावसायिक, बैंकिंग,
शैक्षिक, ऊर्जा, परिवहन,
यातायात, न्यायिक, नागरिक-सुविधाओं
यहाँ तक की रक्षा-व्यवस्थाओं पर टिका है.
सायबर हमला इन व्यवस्थाओं को घायल करता है या
पूरी तरह ध्वस्त कर सकता है. इससे पूरा सामाजिक जीवन एकबारगी ध्वस्त हो सकता है.
सुरक्षा सेनाओं के तकनीकी सिस्टम पर हमला करके उसे पंगु किया जा सकता है. आमतौर पर
इसे भौतिक-युद्ध से फर्क ‘अदृश्य-युद्ध’ का अंग माना जाता है.
कुछ साल पहले नेटो ने घोषित किया था कि भविष्य
की लड़ाइयों का मैदान ‘सायबर स्पेस’ होगा. नेटो के सेक्रेटरी जनरल जेंस
स्टोल्टेनबर्ग ने अपने एक लेख में कहा कि एक मिनट के सायबर हमले से हमारी
अर्थव्यवस्थाओं को अरबों डॉलर का नुकसान हो सकता है.
सायबर स्पेस पर नियंत्रण हाथ से निकलने पर देश
की अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग सकता है. दूसरी तरफ अब ‘हाइब्रिड युद्ध’ का
समय है. आपके शत्रु आपके सिस्टम के भीतर प्रवेश करके आपको नुकसान पहुँचा सकते हैं.
यानी आपके मीडिया, राजनीति और न्याय-व्यवस्था में भी वे अपनी जगह बना सकते हैं.
आर्थिक-शक्ति
मोटे तौर पर पावर का मतलब है आर्थिक शक्ति. इसके
बगैर हम किसी दूसरी ताकत की उम्मीद नहीं कर सकते. टेक्नोलॉजी भी एक बड़ा कारक है.
इसके लिए औद्योगिक-शैक्षिक यानी ज्ञान के आधार की जरूरत होगी. भारत की
अर्थव्यवस्था तीन ट्रिलियन के पार जा चुकी है, पर हमारी प्रति व्यक्ति आय बहुत कम
है. हम स्पेस-पावर हैं, पर काफी बड़ी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर
रही है.
बहरहाल जो देश काफी हद तक अपने पैरों पर खड़ा हो और
वैश्विक-घटनाक्रम को प्रभावित करने की क्षमता रखता हो, उसे पावरफुल माना जा सकता
है. आईएमएफ का अनुमान है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2030 में दुनिया की तीसरी सबसे
बड़ी अर्थव्यवस्था होगी.
उस
समय तक भी हमारी गरीबी पूरी तरह खत्म नहीं हो जाएगी. आप पूछ सकते हैं कि किसी गरीब
देश को महाशक्ति कहलाने का हक होना चाहिए? इसमें हक की बात नहीं,
वास्तविकता की बात है. हमारी ताकत केवल सैनिक-अभियानों से ही परिभाषित नहीं होगी.
सामाजिक-शक्ति
यह
भी देखना होगा कि हमारी सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाओं का स्तर कैसा है. आपदाओं
के समय देश के भीतर और बाहर हमारी कार्य-कुशलता हमारी प्रभावोत्पादकता को तय
करेगी. इस मामले में भारत अपेक्षाकृत सफल साबित हुआ है.
स्वास्थ्य
से जुड़ी हमारी विशेषज्ञता विश्व-स्तरीय है, पर वह कतार में खड़े सबसे अंतिम
व्यक्ति तक पहुँचने का दावा नहीं कर सकती है. इस मामले में बड़े स्तर पर निवेश की
जरूरत है. साथ ही बड़े स्तर पर प्रशासनिक-सुधारों की जरूरत है, ताकि नागरिक-सेवाएं
भ्रष्टाचार-मुक्त और पारदर्शी तरीके से लोगों को उपलब्ध हों.
भारत
के मध्यवर्ग का आकार अपेक्षाकृत छोटा है और चीन जैसा विकास करने के लिए भारत को
शिक्षा के क्षेत्र में,
जीवन स्तर में, लैंगिक समानता और आर्थिक
सुधारों में भारी निवेश करने की ज़रूरत होगी.
औद्योगिक-आधार
हमारा
औद्योगिक-आधार बहुत विकसित नहीं, तो कमज़ोर भी नहीं है. हम रक्षा-तकनीक के मामले
में आयात पर निर्भर हैं, पर इस समय जो दिशा दिखाई पड़ रही है, उससे लगता है कि
2030 तक हम रक्षा-तकनीक में पूरी तरह आत्मनिर्भर ही नहीं होंगे, निर्यात भी कर रहे
होंगे.
भारत
ने सेना के आधुनिकीकरण के लिए 2023-24 में 1.6 लाख करोड़ रुपये का बजट तय किया है, जिसमें से 75
प्रतिशत घरेलू उद्योग के लिए आरक्षित है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के
अनुसार भारत ने मिलिट्री ड्रोन बनाने वाले घरेलू विनिर्माताओं को चीन में बने
कलपुर्जों के इस्तेमाल से रोक दिया है. सुरक्षा संबंधी चिंता के कारण हाल के
महीनों में ऐसा किया गया है.
भारत
इस समय अपनी सेना का आधुनिकीकरण कर रहा है, जिससे मानव रहित क्वाडकॉप्टर, लॉन्ग
एंड्युरेंस सिस्टम व अन्य प्लेटफॉर्मों का ज्यादा इस्तेमाल हो सके. भारत का उभरता
उद्योग सेना की जरूरतों को पूरी करना चाहता है.
रक्षा
व उद्योग के मुताबिक भारत की सुरक्षा से जुड़े विशेषज्ञ इस बात से चिंतित हैं कि
ड्रोन से कम्युनिकेशन में अगर चीन के बने कैमरों, रेडियो ट्रांसमिशन और ऑपरेटिंग
सॉफ्टवेयर जैसे कलपुर्जों का इस्तेमाल होगा, तो इससे खुफिया जानकारी एकत्र करने
में चूक हो सकती है.
लोकतांत्रिक-ताकत
हम
चीन को केवल आर्थिक और सामरिक कारणों से ‘सुपर-पावर’ मानते हैं. उसके
लोकतांत्रिक-आधारों को जाँचने के उपकरण हमारे पास नहीं हैं. हम भारत की
आंतरिक-लोकतांत्रिक संरचना का काफी हद तक अध्ययन कर सकते हैं. यह अध्ययन बेहतर ही
होता जाएगा.
2030
तक हमारी अर्थव्यवस्था जीडीपी के आधार पर दुनिया में तीसरे स्थान पर होगी और 2100
तक वह चीन के बाद दूसरे स्थान पर या पहले स्थान पर भी हो सकती है. 1991 में जब
हमारी आर्थिक-नीतियों में बदलाव हो रहा था, हमारी अर्थव्यवस्था का जीडीपी के आधार
पर दुनिया में 17वाँ स्थान था.
फिर
भी यह दावा नहीं किया जा सकता कि तकनीकी और सामाजिक-कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों
में हम अमेरिका या स्कैंडिनेवियाई देशों के करीब भी जा पाएंगे. बहरहाल काफी कुछ इस
बात पर निर्भर करेगा कि अगले दस-बीस साल में हमारी प्रगति कि दिशा में होगी.
चीन से तुलना
हमारी
पहली तुलना चीन से होगी. आज हमारी तुलना में चीन काफी आगे है, पर तस्वीर बदलने लगी
है. अर्थशास्त्र में 2001 के नोबल पुरस्कार विजेता और स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में
डीन माइकल स्पेंस का मानना है कि अब भारत के आगे बढ़ने का समय है. बीबीसी की एक
रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, भारत जल्द ही चीन की बराबरी कर लेगा. चीनी अर्थव्यवस्था
की रफ़्तार धीमी पड़ेगी लेकिन भारत की नहीं.
सॉफ़्ट पावर भी मुख्य भूमिका निभाता है. भारत का
बॉलीवुड फ़िल्म उद्योग दुनिया भर में भारत की छवि बनाने में बहुत प्रभावी है और नेटफ्लिक्स
पर इसका प्रदर्शन शानदार है, लेकिन तेज़ी से बढ़ते चीन के फ़िल्म उद्योग 'चाइनावुड'
ने हाल ही में हॉलीवुड को पीछे छोड़ दिया. पहली बार 2020 में उसने
बॉक्स ऑफ़िस पर दुनिया का रिकॉर्ड तोड़ दिया और 2021 में भी उसने दोबारा ऐसा किया.
डेमोग्राफिक डिविडेंड
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2064 तक भारत की आबादी
का बढ़ना जारी रहेगा और इसकी जनसंख्या मौजूदा 1.4 अरब से बढ़ कर 1.7 अरब हो जाएगी.
यह भारत को डेमोग्राफिक डिविडेंड देगा. कामगारों की आबादी के बढ़ने की वजह से तेज़
आर्थिक विकास के लिए डेमोग्राफिक डिविडेंड शब्दावली का इस्तेमाल होता है.
विश्वबैंक के अनुसार, काम करने की उम्र
(14-64 साल) वाले आधे भारतीय ही वास्तव में नौकरी कर रहे हैं या नौकरी की तलाश में
हैं. जहां तक महिलाओं की बात है तो यह आँकड़ा 25 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह 60 प्रतिशत और यूरोपीय संघ में 52 प्रतिशत है.
भारत की भौगोलिक-संरचना, उसका आकार और स्थिति भी उसे
महत्व प्रदान करती है. हमारे पास प्राकृतिक-संसाधनों की कमी नहीं है. हमारा
समुद्री तट करीब साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबा है, जिसके आर्थिक-दोहन का क्षेत्र
बहुत बड़ा है. मौसम और हमारी ज़मीन खेती के लिए बेहतरीन अवसर उपलब्ध कराती है.
आवाज़ द वॉयस में 6
सितंबर, 2023 को प्रकाशित
अगले अंक में पढ़ें इस श्रृंखला का सातवाँ
लेख:
क्यों जरूरी है सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता?
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