जी-20 के शिखर-सम्मेलन में भारत को मिली सफलताओं से भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर कुछ संभावनाएं पैदा हुई हैं। पिछले साल अप्रेल में बेंगलुरु में आयोजित तीन दिन के सेमीकॉन इंडिया कॉन्फ्रेंस-2022 के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, भारत आने वाले समय में सेमीकंडक्टर का हब बनेगा। प्रधानमंत्री ने उन कुछ कारणों को गिनाया जिनकी वजह से भारत सेमीकंडक्टर और टेक्नोलॉजी के लिए एक आकर्षक मुकाम होगा। बुनियादी डिजिटल ढांचे का निर्माण और अगली टेक-क्रांति का रास्ता भारत तैयार कर रहा है। 5जी, आईओटी और क्लीन एनर्जी-टेक का विस्तार हो रहा है। हमारे पास दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ने वाला स्टार्टअप इको-सिस्टम है। 21वीं सदी की जरूरतों के लिए हम युवा-कौशल प्रशिक्षण में भारी निवेश कर रहे हैं। हमारे पास दुनिया के 20 फीसदी सेमीकंडक्टर डिजाइन इंजीनियरों का असाधारण टेलेंट पूल है। दुनिया की शीर्ष 25 कंपनियों के सेमीकंडक्टर डिजाइन सेंटर हमारे यहाँ हैं। जब सारी दुनिया महामारी से लड़ रही थी, भारत न केवल लोगों के, बल्कि अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को सुधार रहा था और उसने विनिर्माण के अपने इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी बदलाव किए हैं।
आसन्न बदलाव
सवा साल पहले कही गई उस बात पर काफी लोगों ने ध्यान नहीं दिया, पर इस विषय पर नज़र रखने वालों ने उसके पहले देख लिया था कि ग्लोबल सप्लाई-चेन में बदलाव आने वाला है। इसके पीछे एक वजह चीन की बढ़ती आक्रामकता है। पिछले तीन दशकों में पश्चिमी देशों ने चीन में भारी निवेश और तकनीकी हस्तांतरण करके उसे वैश्विक सप्लाई-चेन का हब तो बना दिया, पर उसके भू-राजनीतिक निहितार्थ पर ध्यान नहीं दिया। चीन ने सबको आँखें दिखानी शुरू कर दी हैं। सप्लाई चेन का मतलब है कि चीन का वैश्विक-कारखाने के रूप में तब्दील हो जाना। यह केवल उत्पादन तक सीमित नहीं होती, बल्कि इसमें उत्पादन के विभिन्न चरण शामिल होते हैं। मसलन डिजाइन, असेंबली, मार्केटिंग, प्रोडक्शन और सर्विसिंग वगैरह। ये उत्पाद दूसरे उत्पादों के लिए सहायक होते हैं। मसलन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का विकास इस चेन पर निर्भर करता है। इससे दुनिया को सस्ता माल मिलेगा और इन कार्यों पर लगी पूँजी पर बेहतर मुनाफा।
ग्लोबल सप्लाई-चेन
दुनिया की सप्लाई-चेन चीन के गुआंगदोंग,
अमेरिका के ओरेगन, भारत के मुंबई, दक्षिण
अफ्रीका के डरबन, अमीरात के दुबई, फ्रांस
के रेन से लेकर चिली के पुंटा एरेनास जैसे शहरों से होकर गुजरने वाले विमानों,
ईमेलों, कंटेनर पोतों, रेलगाड़ियों,
पाइपलाइनों और ट्रकों पर सवार होकर चलती है। एयरबस, बोइंग, एपल, सैमसंग,
माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, ऑरेकल,
वीज़ा और मास्टरकार्ड ने अपने बहुराष्ट्रीय ऑपरेशनों की मदद से
दुनिया को जोड़ रखा है। एक देश से उठकर कच्चा माल दूसरे देश में जाता है, जहाँ वह प्रोडक्ट के रूप में तैयार होकर किसी तीसरे देश में जाता है।
पिछले छह वर्षों से वैश्विक-तंत्र में तनाव बढ़ रहा है। अमेरिका और चीन के बीच
आयात-निर्यात शुल्कों के टकराव के साथ इसकी शुरुआत हुई थी।
रूपांतरण शुरू
एपल ने कुछ प्रोडक्ट्स का उत्पादन चीन से हटाकर
वियतनाम में शुरू कर दिया है। पिछले साल मई के महीने में सैमसंग, स्टेलैंटिस और ह्यूंडे ने अमेरिका की इलेक्ट्रिक कार फैक्टरियों में
8 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की। तीन दशक पहले जो बाजार चीन-केंद्रित था, वह दूसरी जगहों की तलाश में है। पश्चिमी निवेशक अब ‘चाइना प्लस वन’ नीति पर काम कर रहे हैं। उन्होंने चीन
को पूरा तरह त्यागा नहीं है, पर विकल्प खोज लिए हैं। इन विकल्पों में भारत भी है,
बल्कि सबसे बड़ा विकल्प है। पिछले साल भारत ने यूएई के साथ व्यापक आर्थिक-सहयोग का
समझौता किया था। इधर खबरें हैं कि खाड़ी के देशों के साथ भी समझौते पर बात चल रही
है। फिर भारत-ऑस्ट्रेलिया मुक्त-व्यापार पर शुरुआती समझौता हुआ। इस साल के अंत तक
यह समझौता पूरा हो जाएगा। यूके-भारत और ईयू-भारत समझौतों पर भी बात चल रही है। भारत
सरकार ने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के जरिए अगले पाँच वर्षों में 1.4
ट्रिलियन डॉलर के निवेश का कार्यक्रम बनाया है। लक्ष्य है ऊर्जा, परिवहन और शहरी
विकास का इंफ्रास्ट्रक्चर और इसके साथ डिजिटल कनेक्टिविटी और स्मार्ट सिटीज़।
शिपिंग और पोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए 25 अरब डॉलर के निवेश की योजना
है।
चीन का वर्चस्व
ग्लोबल सप्लाई-चेन की अवधारणा पिछले 100 साल
में ही विकसित हुई है। खासतौर से 80 के दशक में अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के साथ
इसका विस्तार हुआ है। इसमें वस्त्र, परिधान, खाद्य-प्रसंस्करण और अन्य उपभोक्ता
सामग्री से लेकर ऑटोमोबाइल्स, विमान, मशीनरी, इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मास्युटिकल्स
उद्योग तक शामिल हैं। चीन में उपलब्ध सस्ते-लेबर के कारण वह उत्पादन का केंद्र
बना। उसका यह वर्चस्व अब टूट रहा है, पर उसमें समय लगेगा। इस साल जून में
प्रधानमंत्री की अमेरिका-यात्रा के दौरान यह स्पष्ट हो गया था कि भारत-अमेरिका
रिश्तों के केंद्र में सप्लाई-चेन का विचार है। ‘भारत-पश्चिम एशिया आर्थिक कॉरिडोर’ की घोषणा से यह बात और स्पष्ट हो गई है।
भारत-अमेरिका रिश्ते
यूरोप और अमेरिका के लिए सप्लाई-चेन का भारत
बेहतर ठिकाना तो साबित होगा ही, साथ ही इससे पश्चिम एशिया के पेट्रोलियम-कारोबार
से निकल कर बाहर आ रही पूँजी को भी निवेश का एक बेहतर स्थान मिलेगा। पश्चिमी देशों
ने चीन का विकल्प कई कारणों से खोजना शुरू किया था। एक तो चीन में भी कामगारों के
वेतन बढ़ रहे थे। दूसरे उत्पादन में कई तरह के अवरोध पैदा होने लगे। चीन सरकार ने
विदेशी-कंपनियों को नियंत्रित करना शुरू कर दिया था। कोविड-19 के दौरान ये अवरोध
बहुत ज्यादा हो गए। चीन ने हांगकांग में अपना राजनीतिक-शिकंजा कसना शुरू कर दिया। इन
वजहों से 2022 के बाद से चीन और हांगकांग से होने वाले निर्यात में क्रमशः 15 और
27 फीसदी की कमी आ गई है। यह सप्लाई इंटरमीडिएट गुड्स की थी। यानी कि इन वस्तुओं
या उपकरणों के सहारे अमेरिका और जापान जैसे देशों में दूसरे उपकरण बनते हैं। उनका
उत्पादन भी प्रभावित हुआ। इसी दौरान अमेरिका और चीन के बीच व्यापार-युद्ध भी शुरू
हो गया।
बाजी पलटी
अमेरिका के दबाव में दिसंबर 2020 में हुआ
यूरोपियन यूनियन और चीन का कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) खटाई
में पड़ गया। ईयू देश अपने लिए बाजार खोज रहे हैं। उन्हें चीन का बाजार खुलता नजर
आता था। चीन को उम्मीद थी कि उसकी बाजार की ताकत के कारण ईयू और अमेरिका में
चीन-विरोध को लेकर सहमति नहीं बनेगी। पर अब यूरोप भी चीन से दूर चला गया है। हाल
में ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने चीन पर काबू पाने से जुड़े विकल्पों में
ऑल्टरनेटिव एशियन सप्लाई-चेन, संक्षेप में ‘ऑल्टेशिया’ का
नाम लिया है। इकोनॉमिस्ट के अनुसार फौरन कोई एक देश चीन का विकल्प नहीं बन सकता,
पर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 14 देशों के समूह की सामूहिक-क्षमता चीन
के बराबर है। ये देश हैं जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान,
फिलीपींस, ब्रूनेई, मलेशिया,
इंडोनेशिया, वियतनाम, लाओस,
कंबोडिया, थाईलैंड, सिंगापुर,
बांग्लादेश और भारत। इस क्षमता में कुशल कामगार, संसाधन, लॉजिस्टिक्स और परिवहन सुविधाएं शामिल
हैं।
बदलता वक्त
इन 14 देशों ने सितंबर 2022 तक उसके पिछले एक
साल में 634 अरब डॉलर की सामग्री अमेरिका को भेजी थी। इसके मुकाबले चीन का अमेरिका
को निर्यात केवल 614 अरब डॉलर का ही था, पर
इलेक्ट्रॉनिक्स के निर्यात में ये 14 देश भी कुल मिलाकर चीन के बराबर नहीं हैं।
अलबत्ता यह कारोबार अब चीन से निकलकर दूसरे देशों में जा रहा है। ताइवान की
फॉक्सकॉन, पेगाट्रॉन और विस्ट्रॉन ने, जो एपल के गैजेट्स को असेंबल करती हैं, भारत
में काफी निवेश किया है। पिछले साल दुनिया में एपल के 20 आईफोन में से एक भारतीय
फोन था, जो 2025 तक चार में एक हो जाएगा। गूगल ने हाल
में अपने पिक्सेल स्मार्टफोन का उत्पादन चीन से हटाकर वियतनाम में लगाया है। बांग्लादेश
और श्रीलंका भी भारत के सहायक हो सकते हैं, जो सिले-सिलाए परिधानों के निर्यात में
सफल हैं। फूड-प्रोसेसिंग, टेक्सटाइल और परिधान, ऑटोमोबाइल्स, फार्मास्युटिकल्स,
स्वास्थ्य सेवाएं और यहाँ तक कि शिक्षा जैसी सेवाएं भी लाइन में हैं।
विकल्पों की तलाश
सप्लाई-चेन को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की
भी कीमत होती है। नई जगहों की तलाश करने, कर्मचारियों की भरती, उन्हें प्रशिक्षण
देने, नई मशीनरी या शिफ्ट करने की लागत होती है। चीन से एकमुश्त हटना न तो आसान है
और न रातोंरात संभव। शुरुआत दक्षिण
पूर्व एशिया के वियतनाम और थाईलैंड जैसे देशों से हुई है। अब संकेत हैं कि भारत को
बड़ा हब बनाया जा सकता है। यह फैसला देश की भौगोलिक-स्थिति, उसके इंफ्रास्ट्रक्चर,
आर्थिक-सामर्थ्य और नीतियों पर भी निर्भर करता है। भारत में हाल में आईफोन तथा
दूसरे मोबाइल फोनों के उत्पादन में वृद्धि होने तथा सेमीकंडक्टर उद्योग के लिए बढ़
रही गतिविधियों से यह संकेत मिला है। देश में ऑटोमोबाइल्स, फार्मास्युटिकल्स
सेक्टर पहले से व्यवस्थित है। अब इलेक्ट्रॉनिक्स का भी विस्तार हो रहा है।
भारतीय विकल्प
विश्व व्यापार संगठन के अनुसार भारत दुनिया में
इंटरमीडिएट गुड्स यानी ऐसी सामग्री का, जो दूसरे उत्पादों के निर्माण में सहायक
होती है, आयात करने वाले देशों में पाँचवें स्थान पर है। वह वैश्विक बाजार में
उपलब्ध कुल सामग्री का करीब 5 फीसदी अपने यहाँ मँगाता है और 1.5 प्रतिशत ऐसी
सामग्री का निर्यात करता है। भारत की तुलना में चीन 23.4, अमेरिका 16.2, जर्मनी
9.4 और हांगकांग 6 प्रतिशत ऐसी सामग्री मँगाते हैं। अब भारत का लक्ष्य ऐसी सामग्री
के निर्यात को जल्द से जल्द दुगना-चौगुना करने का है। भारत पहले से ही सेवा के
क्षेत्र में अग्रणी है। सूचना-संचार प्रौद्योगिकी, बैक ऑफिस कार्यों, वित्तीय
सेवाओं और लॉजिस्टिक्स वगैरह में तेजी आ रही है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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