संसद के मॉनसून-सत्र में अपने प्रदर्शन को लेकर सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष संभव है संतुष्ट हों, पर संसदीय-कर्म की दृष्टि से मॉनसून सत्र बहुत सकारात्मक संदेश छोड़कर नहीं गया। सत्र शुरू होने के पहले लगता था कि मणिपुर का मुद्दा बहुत बड़ा है, बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई वगैरह पर भी सरकार को घेरने में विपक्ष सफल होगा। पर लगता नहीं कि इसमें सफलता मिल पाई। बल्कि लगता है कि मणिपुर को लेकर पैदा हुई तपन अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। राज्यसभा में 11 अगस्त को इस विषय पर चर्चा की बात कही गई थी, पर वह भी नहीं हुई। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने अपने समापन भाषण में कहा कि सदन में मणिपुर पर चर्चा की जा सकती थी।
विपक्ष ने मणिपुर पर चर्चा कराने के बजाय प्रधानमंत्री
के वक्तव्य पर जो अतिशय जोर दिया, उससे हासिल क्या हुआ? अविश्वास-प्रस्ताव
का जवाब देते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, विपक्ष का पसंदीदा नारा है, मोदी तेरी कब्र
खुदेगी। ये मुझे कोसते हैं, जो मेरे लिए वरदान है। 20 साल में क्या कुछ नहीं किया,
पर मेरा भला ही होता गया। मैं इसे भगवान का आशीर्वाद मानता हूं कि
ईश्वर ने विपक्ष को सुझाया और वे प्रस्ताव लेकर आए।
मोदी की बात का जो भी मतलब हो, पर यदि विपक्ष को अपने अविश्वास-प्रस्ताव के प्रदर्शन से संतोष है, तो अलग बात है। अन्यथा लगता है कि अतिशय मोदी-विरोध की रणनीति से मोदी को ही लाभ होगा। अविश्वास-प्रस्ताव पर बहस के दौरान राजनीति के तमाम गड़े मुर्दे उखाड़े गए और बहस का स्तर लगातार गिरता चला गया। । दोनों सदनों में शोर मणिपुर को लेकर शोर, पर बातें किन्हीं दूसरे विषयों की हुईं। आप खुद सोचिए इनका राजनीतिक लाभ किसे मिला?
अविश्वास प्रस्ताव के करीब दो घंटे लंबे जवाब
में जब प्रधानमंत्री मणिपुर-प्रसंग पर आए, तब तक विरोधी दल सदन से बहिर्गमन कर
चुके थे। प्रस्ताव पर मतदान की जरूरत भी नहीं पड़ी। विरोधी दलों की गैर-मौजूदगी
में वह ध्वनिमत से नामंजूर हो गया। कुछ बेहद महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में बगैर
किसी बहस के पास हो गए। इससे पता लगता है कि राजनीति की गंभीर मसलों में कितनी दिलचस्पी
है।
इतना ही नहीं, इस सत्र में राज्यसभा में आम
आदमी पार्टी के राघव चड्ढा, संजय सिंह और रिंकू सिंह और लोकसभा में कांग्रेस के
अधीर रंजन चौधरी का निलंबन हुआ। आम आदमी पार्टी के संजय सिंह का निलंबन केवल सत्र
के समापन तक का था, पर उसे बढ़ा दिया गया है। संभव है, इससे विरोधी दलों को ‘विक्टिम
कार्ड’ खेलने का मौका मिले, पर इससे ज्यादा और कुछ
नहीं मिलने वाला। अलबत्ता इस सत्र ने 2024 के लिए प्रचार के कुछ मुद्दे, मसले,
नारे और जुमले दे दिए हैं। यह भी स्पष्ट हुआ की विरोधी गठबंधन में बीजद, वाईएसआर कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल
के शामिल होने की संभावनाएं नहीं हैं।
विरोधी दल इस बात को
क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि संसद में शोरगुल से सामान्य नागरिक को एकाध बार
प्रभावित किया जा सकता है। वह चाहता है कि उसके मुद्दे अच्छी तरह उठाए जाएं। व्यवस्था
बेहतर बने। हैरत की बात है कि जिस सत्र में आधा समय बर्बाद हुआ हो, उसमें 22
विधेयक पास हो गए। इनमें से 10 विधेयक एक घंटे से भी कम समय की चर्चा के बाद पास
हो गए। नुकसान किसका हुआ?
मणिपुर को लेकर नरेंद्र मोदी ने जो कहा, उसमें
भी ऐसा कुछ नहीं था, जिससे विपक्ष को संतोष मिले। इन बातों को वे दो हफ्ते पहले भी
कह सकते थे, कहीं भी कह सकते थे। पर उन्होंने उसके पहले वह सब कह दिया, जो वे कहना
चाहते थे। इतना खुला मौका उन्हें अविश्वास-प्रस्ताव की बहस के बाद ही मिल सकता था।
यह मौका उन्हें विपक्ष ने दिया, और खामोशी से उनको सुना।
इस प्रस्ताव से कांग्रेस ने क्या हासिल किया? राहुल गांधी
के असमंजस की शुरुआत तभी हो गई थी, जब उन्होंने इस
बहस को लीड करने के बजाय बीच में बोलने का निश्चय किया। वे मणिपुर होकर भी आए थे,
इसलिए लगता था कि वे कुछ ऐसा बोलेंगे, जो पुख्ता होगा और जिससे सरकार की जड़ें हिल
जाएंगी। पर ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने बातों की शुरुआत अपनी ‘भारत-जोड़ो
यात्रा’ से की। उन्होंने कहा, भारत एक आवाज़ है।
उन्होंने अहंकार की पराजय का जिक्र किया। उन्होंने कहा, मैं दिमाग से नहीं दिल से
बोलूँगा। उन्होंने अपनी मणिपुर यात्रा के कुछ प्रसंग भी छेड़े, साथ ही कहा कि मोदी सरकार ने मणिपुर में ‘भारत माता’ की
हत्या की है। पर उनके भाषण में वह ऊष्मा नहीं थी, जिससे मणिपुर के लोगों का भरोसा
जागे। संभव है कि उनके समर्थकों का विश्वास अब भी कायम हो, पर ज्यादातर पर्यवेक्षक
मानते हैं कि उन्होंने एक अच्छे मौके को खो दिया।
कांग्रेस ने अविश्वास-प्रस्ताव के पीछे का कारण
मणिपुर हिंसा को बताया था, यह जानते हुए भी कि अविश्वास-प्रस्तावों में बहस का फलक
व्यापक होता है। बातें मणिपुर से बाहर चली जाएंगी। शशि थरूर और अधीर रंजन चौधरी
जैसे वरिष्ठ नेताओं का नाम बोलने वालों की सूची में भी नहीं था। इसका क्या मतलब
निकालें? बहस का आगाज़ राहुल गांधी से नहीं कराने के
पीछे के कारणों को लेकर कई तरह की अटकलें हैं। सबसे विश्वसनीय अनुमान यह लगता है
कि पार्टी 2024 के चुनाव को ‘मोदी बनाम राहुल’ के
रूप में लड़ना नहीं चाहती, जबकि बीजेपी चाहती है कि ‘मोदी बनाम राहुल’ हो। संभवतः राहुल की तैयारी भी नहीं था।
यह अनुमान था कि सुप्रीम कोर्ट से स्थगनादेश
होने के बाद राहुल गांधी की सदस्यता की बहाली होगी, पर वह इतनी तेज होगी, इसका
अनुमान नहीं था। बीजेपी की रणनीति अविश्वास-प्रस्ताव के बहाने विपक्ष पर उल्टा वार
करने और किसी तरह से प्रतिस्पर्धा को ‘राहुल बनाम मोदी’
बनाने की है। ऐसा करके वे ‘इंडिया’
में शामिल दलों के मन में परोक्ष रूप से डर भी पैदा करना चाहते हैं। शेष विरोधी दल
कांग्रेस के साथ इस उम्मीद में आए हैं कि ‘भारत-जोड़ो
यात्रा’ के कारण राहुल की छवि बेहतर हुई है और वे
उसके सहारे चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों ने करीब-करीब
दो-दो घंटे के भाषण दिए। अमित शाह ने क्रमबद्ध तरीके से सरकार की उपलब्धियों को
गिनाया, वहीं मोदी ने कांग्रेस पार्टी और नेहरू गांधी परिवार को निशाना बनाया। उनका
भाषण शुद्ध चुनावी भाषण था। उन्होंने कहा, मैंने 2018 में कहा था कि ये 2023 में
अविश्वास प्रस्ताव लेकर आएंगे। अविश्वास प्रस्ताव हमारी सरकार का नहीं, विपक्ष का टेस्ट है। 2028 में विपक्ष फिर से अविश्वास प्रस्ताव लेकर
आएगा।
इन बातों का कोई खास मतलब नहीं है, पर मतलब की
बातें किसने उठाईं? संसदीय बहस का इस तरह से होता क्रमिक-ह्रास
चिंता का विषय है। दोनों तरफ के शोरगुल से भविष्य की राजनीति को लेकर भरोसा टूट
रहा है। कृपया इस तरफ ध्यान दें।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित
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