आज़ादी के सपने-07
आज़ादी के बाद से भारत को एकता और अखंडता की
बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. एक नव-स्वतंत्र देश के लिए इनसे निबटना
बेहद मुश्किल काम था. पिछले 76 साल में भारतीय सेना को एक के बाद मुश्किल अभियानों
का सामना करना पड़ा है. उसने चार बड़ी लड़ाइयाँ पाकिस्तान के साथ और एक बड़ी लडाई
चीन के साथ लड़ी हैं. पिछले तीन दशक से वह जम्मू-कश्मीर में एक छद्म-युद्ध का
सामना कर रही है.
सीमा पर लड़े गए युद्धों के मुकाबले देश के
भीतर लड़े गए युद्ध और भी मुश्किल हैं. शुरुआती वर्षों में पूर्वोत्तर के
अलगाववादी आंदोलनों ने हमारी ऊर्जा को उलझाए रखा. सत्तर के दशक से नक्सलपंथी
आंदोलन ने देश के कई हिस्सों को घेर लिया, जो आज भी जारी है. अस्सी के दशक में
पाकिस्तानी शह पर खालिस्तानी आंदोलन शुरू हुआ, जिसे बार-बार भड़काने की कोशिशें
हुईं.
धमाके और हिंसा
कश्मीर में सीधे 1947 और 1965 की घुसपैठों में
नाकाम होने के बाद पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के मुजाहिदीन की मदद से नब्बे के दशक
में एक और हिंसक आंदोलन खड़ा किया. उस आंदोलन के अलावा देश के मुंबई, दिल्ली,
अहमदाबाद, वाराणसी और कोयंबत्तूर जैसे अनेक शहरों में बम धमाके हुए. दिल्ली में
लाल किले और संसद भवन पर हमले किए गए.
इन हिंसक गतिविधियों के पीछे भारतीय
राष्ट्र-राज्य की एकता और हमारे मनोबल को तोड़ने का इरादा था. ऐसी कोशिशें आज भी
जारी हैं. अब इसमें सायबर हमले भी शामिल हो गए हैं. यह ‘हाइब्रिड वॉर’
है. इससे लड़ने और राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए नई टेक्नोलॉजी और
रणनीतियों की जरूरत है.
कश्मीर-युद्ध
कश्मीर के पहले युद्ध में उतरने के कुछ ही समय
में भारतीय सेना ने कश्मीर के दो-तिहाई हिस्से पर अपना नियंत्रण कर लिया. युद्ध
विराम 1 अक्तूबर, 1949 को हुआ. यह मामला संयुक्त राष्ट्र
में गया, जिसकी एक अलग कहानी है. अलबत्ता इस लड़ाई ने भविष्य की कुछ लड़ाइयों और
भारतीय राष्ट्र-राज्य की आंतरिक-सुरक्षा से जुड़ी बहुत सी समस्याओं और युद्धों को
जन्म दिया.
इस लड़ाई को जीतने के बाद 1962 में भारत ने दूसरा युद्ध चीन के साथ लड़ा. चीनी सेना ने 20 अक्टूबर, 1962 को लद्दाख और अन्य इलाकों में हमले शुरू कर दिए. इस युद्ध का अंत 20 नवंबर, 1962 को चीन की ओर से युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ.
सन 1962 के बाद भारत ने अपनी सुरक्षा पर ध्यान
देना शुरू किया. सेना का तेज विस्तार हुआ. खासतौर से हिमालयी सीमा की सुरक्षा के
लिहाज से, पर असली खतरा पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान ने पैदा किया. अमेरिका से हासिल
किए गए चमकदार पैटन टैंकों और सैबर जेटों तथा दूसरे हथियारों से एड़ी से चोटी तक लैस
पाकिस्तान को लगता था कि चीन से युद्ध के बाद भारत का मनोबल टूट चुका है. अब हम
उसे दबा लेंगे.
ऑपरेशन जिब्राल्टर
सन 1965 के अप्रैल-मई में पहले उसने कच्छ के रन
में हमला बोला. फिर अगस्त में कश्मीर में ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ शुरू किया. पाकिस्तानी
सेना के करीब 30 हजार जवान स्थानीय लोगों की वेशभूषा में कश्मीर में घुसपैठिए बनकर
घुस आए. सितंबर में अखनूर-जम्मू इलाके में
ऑपरेशन ‘ग्रैंड स्लैम’ छेड़ा. उस युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को मात दी,
पर पाकिस्तानी इरादे खत्म नहीं हुए थे. कुल 22 दिन तक चली लड़ाई के
बाद रूसी हस्तक्षेप से युद्ध विराम हुआ.
हमारी सेना के दो ‘ऑपरेशन विजय’ और एक ‘विजय
दिवस’ प्रसिद्ध है. एक 1961 के गोवा अभियान और दूसरे 1999 के करगिल अभियान को
‘ऑपरेशन विजय’ के रूप में याद किया जाता है. 19 दिसम्बर 1961 का ‘ऑपरेशन विजय’
गोवा अभियान की सफलता की याद दिलाता है.
भारतीय सेना की गौरव-गाथा से जुड़ा एक ऐसा दिन
भी है, जिसे केवल भारत ही नहीं हमारा पड़ोसी
बांग्लादेश भी ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाता है. इसे 16 दिसम्बर को 1971 के युद्ध
में पाकिस्तान पर भारत की जीत के कारण मनाया जाता है. भारतीय सेना के सामने
पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों के आत्मसमर्पण के बाद वह
युद्ध समाप्त हुआ और बांग्लादेश के नाम से एक नए देश का जन्म हुआ.
बांग्लादेश-युद्ध
1971 में पाकिस्तान और भारत के बीच हुए तीसरे
युद्ध के बाद पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए. भारत की तीनों सेनाओं ने मिलकर
जबरदस्त युद्ध कौशल का परिचय दिया. पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों को आत्मसमर्पण करना
पड़ा. दोनों देशों के बीच 2 जुलाई, 1972 को हुए शिमला समझौते के बाद इन युद्ध
बंदियों को सकुशल पाकिस्तान भेजा गया.
बार-बार पिटाई के बाद भी पाकिस्तान का
भारत-द्वेष खत्म नहीं हुआ. 1999 में हुआ कारगिल का युद्ध उसके छल-छद्मों की याद
दिलाता है. 3 मई से 26 जुलाई 1999 तक चले इस युद्ध में भी भारतीय सेना ने
पाकिस्तानी इरादों पर पानी फेरा. श्रीनगर से 215 किलोमीटर दूर कारगिल की पर्वतीय
चोटियों पर पाकिस्तान ने गुपचुप तरीके से कब्जा कर लिया.
3 मई, 1999 को पहली
बार हमें कारगिल में पाकिस्तानी कब्जे की खबरें मिलीं और 26 जुलाई को पाकिस्तानी
सेना आखिरी चोटी से अपना कब्जा छोड़कर वापस लौट गई. करीब 50 दिन की जबर्दस्त लड़ाई
के बाद भारतीय सेना ने इन चोटियों पर कब्जा जमाए बैठी पाकिस्तानी सेना को एक के
बाद एक पीछे हटने को मजबूर कर दिया. इसके साथ ‘ऑपरेशन विजय’
पूरा हुआ।
चीन-पाक गठजोड़
पाकिस्तान और चीन के जिस आर्थिक गलियारे सीपैक
की चर्चा इन दिनों है, उसकी परिकल्पना 1950 के दशक में ही कर ली गई थी. पाकिस्तान
में राजनीतिक अस्थिरता और चीन के बहुत सबल नहीं होने के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त
नहीं किया जा सका. अलबत्ता 1962 की लड़ाई के एक साल बाद ही पाकिस्तान ने कश्मीर में
शक्सगम घाटी की 5,189 किमी जमीन चीन को सौंप दी. इसका मतलब यह था कि हमारे सामने
अब एक नहीं, दो शत्रुओं से एकसाथ सामना करने की चुनौती है. पृष्ठभूमि तो 1962 का
लड़ाई में तैयार हो ही गई थी। 1965 का हमला उस रणनीति का पहला प्रयोग था.
पाकिस्तान ने चीन को जो जमीन सौंपी, उसपर से
होकर चीन के शिनजियांग स्वायत्त क्षेत्र के काशगर शहर से लेकर पाकिस्तान के
एबटाबाद तक एक सड़क बनाई गई, जिसे कराकोरम राजमार्ग कहा जाता है. चीन
ने 1970 के दशक में कराकोरम हाइवे बनाया. सत्तर के दशक में परमाणु-उपकरण दिए. कश्मीर
अब सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच का मसला नहीं है. चीन इसमें तीसरी पार्टी है.
और इसीलिए 2019 में उसने 370 के मसले को सुरक्षा परिषद में उठाने की कोशिश की.
करगिल कमेटी
करगिल-युद्ध के बाद भारत सरकार ने अपनी सुरक्षा
पर फिर से विचार करना शुरू किया. रक्षा विशेषज्ञ के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में
बनी करगिल समीक्षा समिति ने व्यापक बदलाव के सुझाव दिए. इनमें सेना के संरचनात्मक
बदलाव, भर्ती की नई प्रक्रिया, रणनीति और सरकार तथा सेना के बीच संपर्कों की नई
व्यवस्था से जुड़े सुझाव भी थे.
इन्हीं सुझावों में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के पद
के सृजन का भी प्रस्ताव था. इस पद के सृजन की अनुशंसा के बाद बने मंत्रिसमूह ने
2001 में सलाह दी कि सीडीएस का गठन किया जाए. इसके बाद नरेश चंद्रा समिति (2012)
और लेफ्टिनेंट जनरल डीबी शेकतकर कमेटी (2016) ने भी इसी आशय की सलाह दी.
2017 में रक्षा से संबद्ध कैबिनेट कमेटी
(सीसीएस) ने सीडीएस की नियुक्ति के संदर्भ में विमर्श की प्रक्रिया शुरू की. करगिल
समीक्षा समिति की सिफारिशों को मानते हुए पहले कदम के रूप में इंटीग्रेटेड डिफेंस
स्टाफ (आईडीएस) का गठन 23 नवंबर, 2001 को कर भी दिया गया. लंबे
विचार-विमर्श के बाद 31 दिसंबर, 2019 को जनरल बिपिन रावत को देश का
पहला सीडीएस नियुक्त किया गया.
नई रणनीति
सशस्त्र बलों में भर्ती की अग्निवीर योजना भी
करगिल कमेटी की सिफारिशों की परिणति है. कारगिल समीक्षा समिति की प्रमुख सिफारिशों
में से एक थी, सैनिकों की औसत आयु को कम करना. समिति ने सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों और केंद्रीय पुलिस बलों के लिए एक एकीकृत जनशक्ति
नीति की भी सिफारिश की थी.
समिति ने कहा था, देश
के सामने आने वाले छद्म युद्ध और बड़े पैमाने पर आतंकवाद की नई स्थिति को ध्यान
में रखते हुए अर्ध-सैन्य बलों की भूमिका और कार्यों को पुनर्गठित किया जाना चाहिए,
खासकर कमान एवं नियंत्रण तथा नेतृत्व के संदर्भ में. थिएटर कमांड के
रूप ने नई सैनिक-संरचना भी उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है.
कारगिल के बाद मुम्बई, पठानकोट,
उड़ी और फिर पुलवामा जैसे कांडों के बाद पहली बार भारत ने 26 फरवरी,
2019 को बालाकोट में सीधी कार्रवाई की. यह नीतिगत बदलाव भी था. भारत ने अब
रक्षात्मक के बजाय आक्रामक रणनीति अपनाने का फैसला किया है. अब एक नई रेखा खिंच गई
है. भारत अब कश्मीर के तथाकथित लश्करों, जैशों और
हिज्बों के खिलाफ सीधे कार्रवाई करेगा.
चीनी आक्रामकता
पिछले कुछ वर्षों में चीन ने भी अपनी
गतिविधियाँ बढ़ाई हैं, जिसकी परिणति हमने 2020 में गलवान-युद्ध के रूप में देखी. पर
इसकी शुरुआत 1962 में ही गई थी. चीनी आक्रामकता केवल हिमालय तक सीमित नहीं है.
उसका विस्तार हिंद महासागर में हो रहा है.
चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर, और बांग्लादेश के
चटगाँव के अलावा श्रीलंका के हंबनटोटा में अपनी नौसेना के लिए सुविधाएं प्राप्त कर
ली हैं. हाल में खबर है कि वह कोलंबो के पास भी कोई पोर्ट तैयार कर रहा है. चीन ने
पूर्वी अफ्रीका के जिबूती में एक अड्डा हासिल कर लिया है, जहाँ चीनी सेना स्थायी
रूप से तैनात कर दी गई है.
हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी पोत और
पनडुब्बियाँ लगातार चक्कर लगा रही हैं. पिछले साल अगस्त के इन्हीं दिनों में चीन
के सैटेलाइट ट्रैकिंग पोत युआन वांग-5 के हंबनटोटा में लंगर डालने को लेकर विवाद
चला था. अंततः चीनी-हठधर्मी सफल हुई और उसके पोत ने 16 अगस्त, 2022 को हंबनटोटा
बंदरगाह पर लंगर डाले. इन दिनों उसी श्रेणी का एक और पोत श्रीलंका से होकर गया है.
जनता की सहायक
भारतीय सेना की एक और भूमिका की ओर हम कम ध्यान
दे पाते हैं. यह है राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में उसका योगदान. 1947 के बाद
से राष्ट्र-निर्माण में सेना की भूमिका अद्वितीय रही है. जूनागढ़ (1947), हैदराबाद (1948) गोवा (1961) और सिक्किम (1975) को भारतीय संघ के साथ
जोड़ने के अभियान सेना की मदद से ही पूरे हो पाए.
मालदीव और श्रीलंका की सरकारों के निमंत्रण पर
वह मदद के लिए गई. उसने इराक़ (2003), लेबनॉन (2006),
मिस्र, लीबिया और यमन (2011), यूक्रेन और सीरिया-इराक़ (2014) और यमन (2015), 2020-22 कोरोना-काल
में और इस साल सूडान में फँसे भारतीयों को निकालने में मदद की.
बाढ़ राहत के लिए सेना को बुलाया जाता है. उसने
लातुर और धारचूला में आए भूकम्पों और केदारनाथ और कुमाऊँ की पहाड़ियों में भूस्खलन
के दौरान जमीन के नीचे दबे लोगों के शवों को बाहर निकाला. दिसम्बर 2004 में आई
दक्षिण पूर्व एशिया की सुनामी के दौरान वह दृढ़ संकल्प के साथ राहत कार्य में शामिल
हुई.
उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में आए समुद्री तूफानों
के दौरान सैनिकों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर राहत और बचाव कार्यों में
भागीदारी की. हड़तालों के दौरान जरूरी सेवाओं को बनाए रखने के लिए सेना की मदद ली
जाती है. सीमावर्ती इलाकों में सेना के डॉक्टर चिकित्सा का काम भी करते हैं. देश
के सुदूर इलाकों में सेना ही भारत की ध्वज वाहक होती है.
दुनिया के सबसे ऊँचे रणक्षेत्र सियाचिन
ग्लेशियर की साल्तोरो रिजलाइन पर पिछले 39 साल से हमारी सेना ने अपने पैर जमा रखे
हैं और दुश्मन को एक मौका नहीं दिया है. उत्तर में हिमालय के बर्फीले और तेज
तूफानों से घिरे पर्वतों से लेकर पूर्वोत्तर के उमस भरे गर्म जंगलों और पश्चिम में
थार के तपते रेगिस्तान में कहीं भी उसने अपनी सतर्कता में कमी नहीं आने दी.
अगले अंक में पढ़ें: इक्कीसवीं सदी में विदेश-नीति की बदलती दिशा
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