Monday, September 30, 2013

लालू के फैसले के बाद क्या बिहार करवट लेगा?

 सोमवार, 30 सितंबर, 2013 को 09:38 IST तक के समाचार
लालू प्रसाद यादव की आरजेडी पार्टी
पिछले शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में राहुल गांधी की हैरतभरी घोषणा ने केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए ही असमंजस पैदा नहीं किया, बल्कि उत्तर भारत के महत्वपूर्ण प्रदेश बिहार की राजनीति में उलटफेर के हालात भी पैदा कर दिए हैं.
पिछले एक साल से आरजेडी नेता लालू यादव ने जगह-जगह रैलियाँ करके प्रदेश की राजनीति में न सिर्फ अपनी वापसी के हालात पैदा कर लिए हैं, बल्कि एनडीए से टूटे जेडीयू का राजनीतिक गणित भी बिगाड़ दिया है.
मई में पटना की परिवर्तन रैली और जून में महाराजगंज के लोकसभा चुनाव में प्रभुनाथ सिंह को विजय दिलाकर लालू ने नीतीश कुमार के लिए परेशानी पैदा कर दी थी.
उस वक़्त लालू प्रसाद ने कहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में बिहार की सभी 40 सीटों पर आरजेडी की जीत का रास्ता तैयार हो गया है. वह अतिरेक ज़रूर था, पर ग़ैर-वाजिब नहीं. फिलहाल व्यक्तिगत रूप से लालू और संगठन के रूप में उनकी पार्टी की परीक्षा है.

अध्यादेश का क्या होगा?

दाग़ी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने वाला अध्यादेश अधर में है और अब लगता नहीं कि सरकार इस पर राष्ट्रपति के दस्तख़त कराने पर ज़ोर देगी. अगले हफ़्ते इसके पक्ष में फैसला हुआ भी, तो शायद लालू यादव के लिए देर हो चुकी होगी.
लालू यादव
लालू यादव राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं.
अगले हफ़्ते कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद से जुड़े मामले में भी सज़ा सुनाई जाएगी. बहरहाल उनके मामले का राजनीतिक निहितार्थ उतना गहरा नहीं है, जितना लालू यादव के मामले का है.
राहुल गांधी के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने का जितना मुखर स्वागत नीतीश कुमार ने किया है, वह ध्यान खींचता है. क्या नीतीश कुमार को इसका कोई दूरगामी परिणाम नज़र आ रहा है?
लालू यादव राजनीतिक विस्मृति में गर्त में गए तो तीन-चार महत्वपूर्ण सवाल सामने आएंगे. बिहार में आरजेडी एक महत्वपूर्ण ताक़त है. 2010 के विधानसभा के चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी.

Sunday, September 29, 2013

सुरक्षा तंत्र के छिद्रों को तो बंद कीजिए

इधर जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच नोकझोंक की खबरें गर्म थीं कि जम्मू में फौजी कैम्प पर आतंकी हमले की खबरें सुनाई पड़ीं। इसके दो रोज पहले पेशावर और केन्या के एक मॉल से खूंरेजी की खबरें सुनाई पड़ीं। इन सारी बातों का रिश्ता नहीं है, पर ध्यान से देखें तो है। इन सबके केन्द्र में पाकिस्तान का जेहादी ताना-बाना और हमारी सुरक्षा व्यवस्था के सवाल हैं। इसमें दो राय नहीं कि जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच तनातनी किसी बड़े सैद्धांतिक कारण से नहीं थी। यह शुद्ध रूप से सेना के भीतर की गुटबाजी की देन थी। इस मामले को ज्यादा बढ़ावा मिलने के पहले ही खत्म कराने की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व की थी। ऐसा हो नहीं पाया। धीरे-धीरे विवाद ऐसी शक्ल लेता जा रहा है जो देश के हित में नहीं है। जनरल सिंह के इस वक्तव्य को लेकर काफी चर्चा है कि सेना कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए धन का इस्तेमाल करती थी। इस वक्तव्य पर गौर करें तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं थी जो हमारे लिए असमंजस पैदा करे।

Thursday, September 26, 2013

सुरक्षा के गले में राजनीति का फंदा

जनरल वीके सिंह को लेकर विवाद आने वाले समय में बड़ी शक्ल लेगा. जाने-अनजाने राजनीति ने रक्षा व्यवस्था को अपने घेरे में ले लिया है, जिसके दुष्परिणाम भी होंगे. हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है और इसे विवादों से बाहर रखने की परम्परा है. फिर भी यह विवाद के घेरे में आ रही है तो जिम्मेदार कौन है? क्या हम सीबीआई या किसी दूसरी जाँच एजेंसी की मदद से ऐसे मामलों की जाँच करा सकते हैं? हाल में इशरत जहाँ मामले को लेकर खुफिया एजेंसियों और जाँच एजेंसियों की टकराहट सामने आई है, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं. यह सब क्या व्यवस्था को साफ करने में मदद करेगा या हालात और बिगड़ेंगे? जनरल वीके सिंह का मामला सन 2004 के बाद दिल्ली में बनी यूपीए सरकार के साथ शुरू हुआ है. उसके पहले एनडीए के शासन में रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और नौसेनाध्यक्ष विष्णु भागवत के बीच भी विवाद हुआ था, जिसकी परिणति विष्णु भागवत की बर्खास्तगी में हुई थी. वर्तमान विवाद सन 2005 में जनरल जेजे सिंह की थल सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के बाद शुरू हुआ. इसका प्रस्थान बिन्दु वही नियुक्ति है और इसके पीछे सेना के भीतर बैठी गुटबाजी है.

Wednesday, September 25, 2013

भाजपा का नमो नमः


देश की राजनीति का रथ अचानक गहरे ढाल पर उतर गया है, जिसे अब घाटी की सतह का इंतजार है जहाँ से चुनाव की चढ़ाई शुरू होगी। संसद के सत्र में जरूरी विधेयकों को पास कराने में सफल सरकार ने घायल पड़ी अर्थव्यवस्था की मरहम-पट्टी शुरू कर दी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को लेकर लम्बे अरसे से चले आ रहे असमंजस को खत्म कर दिया है। देखने को यह बचा है कि अब लालकृष्ण आडवाणी करते क्या हैं। मुजफ्फरनगर के दंगों के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माहौल बिगड़ चुका है। कुछ लोग इसे भी चुनाव की तैयारी का हिस्सा मान रहे हैं। बहरहाल चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। आयोग की टीम ने उन सभी पाँच राज्यों का दौरा शुरू कर दिया है, जहां साल के अंत में चुनाव होने हैं।

Sunday, September 22, 2013

तीन सर्वेक्षण तेरह तरह के नतीजे

 शनिवार, 21 सितंबर, 2013 को 11:41 IST तक के समाचार
आगामी विधानसभा चुनावों में चार राज्यों की तस्वीर क्या होगी इसे लेकर क़यास शुरू हो गए हैं.
इन क़यासों को हवा दे रहे हैं चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण जिनपर भले ही यक़ीन कम लोगों को हो पर वे चर्चा के विषय बनते हैं.
हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों में होने हैं लेकिन सर्वेक्षण करने वालों ने सारा ध्यान चार राज्यों पर केंद्रित कर रखा है.
हाल में जो सर्वेक्षण सामने आए हैं वे क्लिक करेंकांग्रेस के ह्रास और भारतीय जनता पार्टी के उदय की एक धुंधली सी तस्वीर पेश कर रहे हैं.
सर्वेक्षणों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ़ के बारे में कमोबेश साफ़ लेकिन दिल्ली के बारे में भ्रामक तस्वीर बनाई है.
इसकी एक वजह आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की उपस्थिति है जो एक राजनीतिक समूह है. उसकी ताक़त और चुनाव को प्रभावित करने के सामर्थ्य के बारे में क़यास इस भ्रम को और भी बढ़ा रहे हैं.
तीन सर्वेक्षण तीन तरह के नतीजे दे रहे हैं जिनसे इनकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा होते हैं. सर्वेक्षणों के बुनियादी अनुमानों में इतना भारी अंतर है कि संदेह के कारण बढ़ जाते हैं.
दिल्ली का महत्व
दिल्ली भारत के मध्य वर्ग का प्रतिनिधि शहर है. यहाँ पर होने वाली राजनीतिक हार या जीत के व्यावहारिक रूप से कोई माने नहीं हों पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है. यहाँ से उठने वाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं.
हाल में दिल्ली गैंगरेप के ख़िलाफ़ और उसके पहले अन्ना हज़ारे के आंदोलन की ज़मीन देश-व्यापी नहीं थी पर दिल्ली में होने के कारण उसका स्वरूप राष्ट्रीय बन गया. इसकी एक वजह वह क्लिक करेंख़बरिया मीडिया है, जो दिल्ली में निवास करता है.
भाजपा का लोगो
हाल ही में भाजपा ने दिल्ली में अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की.
दिल्ली की इसी प्रतीकात्मक महत्ता के कारण यहाँ के नतीजे महत्वपूर्ण होते हैं भले ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघों के हों या दिल्ली विधानसभा के.
हाल में भाजपा के मंच पर प्रधानमंत्री के प्रत्याशी का नाम घोषित करने की प्रक्रिया पर जो ड्रामा शुरू हुआ था उसका असर दिखाई पड़ने लगा है और इसमें भी पहल दिल्ली की है.
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ ही उनकी रैलियों का कार्यक्रम बन रहा है.