पाकिस्तान के रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ ने रविवार को कहा कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान दोहा में उच्च स्तरीय वार्ता के बाद तत्काल संघर्ष विराम पर सहमत हो गए हैं. दोनों ने आगे चर्चा के लिए 25 अक्तूबर को इस्तानबूल में फिर से मिलने की उम्मीद भी ज़ाहिर की है.
क़तर के प्रयास के दोनों देशों के बीच हुई इस वार्ता
से मसले सुलझेंगे या नहीं, कहना मुश्किल है, पर टकराव ने बड़ी शक्ल ले ली है. यह टकराव
सीधी पारंपरिक लड़ाई नहीं होगा. तालिबान खुले मैदान में नहीं लड़ता.
चार साल पहले अगस्त 2021 में, जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया था, तब बहुत कम
लोग इस बात की कल्पना कर सकते थे कि दोनों दोस्त, आगे जाकर दुश्मन
जैसा व्यवहार करने लगेंगे.
पाकिस्तान अपनी ही बोई फसल काट रहा है. भारत से ‘अज़ली दुश्मनी’ रखने के अंतर्विरोध उसके इस संकट के पीछे हैं. एक तरफ टीटीपी सीमा पार से हमलों और आत्मघाती विस्फोटों के साथ जवाबी कार्रवाई कर रहा है, वहीं पाकिस्तान आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता से घिरा है. उसके लिए यह अच्छा संकेत नहीं है.
पाकिस्तानी प्रशासन आग से खेलने का शौकीन है. हिंसा और आतंकवाद उसकी विचारधारा के अनिवार्य अंग बन चुके हैं. यह रणनीति केवल कश्मीरी मसले को सुलगाए रखने तक सीमित नहीं है. पिछले तीन-चार दशकों में दुनिया के किसी भी कोने में हुई आतंकी गतिविधि में कहीं न कहीं पाकिस्तानी हाथ होता है.
उन्मादी राजनीति
ग्यारह साल पहले 16 दिसम्बर 2014 को जब पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर आतंकवादी हमले में करीब डेढ़ सौ बच्चों की मौत हुई थी, तब शायद वहाँ के नागरिकों को पहला झटका लगा था. खूनी विचारधारा ने उनके बच्चों की जान लेनी शुरू कर दी थी.
इस हत्याकांड के बाद पाकिस्तान के राजनेताओं की प्रतिक्रियाएं रोचक थीं. अवामी नेशनल पार्टी के रहनुमा ग़ुलाम अहमद बिलौर ने कहा, ये ना यहूदियों और ना ही हिंदुओं ने, बल्कि हमारे मुसलमान अफ़राद ने किया.
पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनेटर फ़रहत उल्ला बाबर ने बीबीसी उर्दू से कहा, इस बात का हमें बरमला एतराफ़ करना पड़ेगा कि पाकिस्तान का सब से बड़ा दुश्मन सरहद के उस पार नहीं, सरहद के अंदर है. आप ही के मज़हब की पैरवी करता है, आप ही के ख़ुदा और रसूल का नाम लेता है, आप ही तरह है, हम सब की तरह है और वो हमारे अंदर है.
उन्होंने कहा, शिद्दतपसंदों का नज़रिया और बयानिया बदकिस्मती से रियासत की सतह पर सही तरीक़े से चैलेंज नहीं हुआ. शिद्दतपसंदों ने पाकिस्तानी सियासत में दाख़िल होने के रास्ते बना लिए हैं. पाकिस्तान में समझदार और शांतिप्रिय लोग भी हैं, पर राजनीतिक कारणों से उन्मादी विचार हावी रहते हैं.
तीन मोर्चे
पाकिस्तान तीन देशों-भारत, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान-के साथ अंतरराष्ट्रीय
सीमा साझा करता है. इसके अलावा, पीओके में चीन के साथ भी
इसकी 438 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है.
पाकिस्तान की भारत के साथ 3,323 किलोमीटर लंबी
सीमा है और अफगानिस्तान के साथ 2,430 किलोमीटर लंबी सीमा है. यदि भारत के साथ
पाकिस्तान का पूर्वी मोर्चा और अफगानिस्तान के साथ पश्चिमी मोर्चा दोनों सक्रिय
हैं, तो इसका मतलब होगा कि 5,753 किलोमीटर लंबी सक्रिय सीमा
रेखा होगी.
इसके अतिरिक्त, बलोचिस्तान
लिबरेशन आर्मी (बीएलए) से लगातार खतरों के कारण पाकिस्तान को ईरान के साथ अपनी 959
किलोमीटर लंबी सीमा की भी सुरक्षा करने की आवश्यकता है. इस प्रकार लगभग 8,000 किलोमीटर लंबी सीमा की रक्षा करना एक अत्यंत कठिन कार्य है.
पाकिस्तान ने अपनी अधिकांश सेना (लगभग 70-80%)
को नियंत्रण रेखा (एलओसी) और भारत के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तैनात किया है,
जिससे पश्चिमी मोर्चे पर संसाधनों की कमी है.
इस उपेक्षा का मूल कारण ‘रणनीतिक गहराई’ का सिद्धांत है, जिसे 1980 के दशक में जनरल
जिया-उल-हक के शासनकाल में औपचारिक रूप दिया गया था, जिसके
अनुसार अफगानिस्तान मजबूत मोर्चा नहीं, बल्कि भारत के खिलाफ
एक बफर/बैकबैक है.
मई में भारत के साथ हुए संक्षिप्त युद्ध के बाद,
पाकिस्तान ने वित्त वर्ष 2025-26 में अपने रक्षा बजट को बढ़ाकर
11.67 अरब अमेरिकी डॉलर कर दिया है.
पाकिस्तान का रक्षा पूंजीगत व्यय लड़ाकू विमानों
और वायु रक्षा पर केंद्रित है, जो पूर्वी मोर्चे पर
इस्लामाबाद के फोकस को रेखांकित करता है, क्योंकि तालिबान के
पास कोई वायु सेना नहीं है. इसी प्रकार, परमाणु शस्त्रागार
बनाए रखने पर पाकिस्तान का खर्च विशेष रूप से भारत पर केंद्रित है।
बगराम एयरबेस
इस बीच, अमेरिकी
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भी अफ़ग़ानिस्तान के मसलों में हस्तक्षेप करने का
संकेत दिया है. उन्होंने बार-बार बगराम एयरबेस पर फिर से कब्जा करने की इच्छा जताई
है. इसमें उन्हें पाकिस्तान की मदद मिलेगी.
पाकिस्तान अपनी वायुसेना का सहारा ले रहा है.
इसी रणनीति का सहारा अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना ने लिया था. पर उसे सफलता
नहीं मिली. बहरहाल दोनों देशों के बीच पिछले दस-बारह दिन में टकराव में तेजी आई
है.
व्यावहारिक स्थिति यह है कि अफ़ग़ानिस्तान के ज्यादातर
हिस्सों पर पाकिस्तान आसानी से हवाई हमले कर सकता है, जबकि तालिबान
की ताकत तोपखाने तक सीमित है. पर वह पाकिस्तान के भीतर टीटीपी के लड़ाकों का
इस्तेमाल करके छापामार शैली का इस्तेमाल कर सकता है.
पाकिस्तानी धमकियाँ
पाकिस्तानी वायुसेना ने 9 अक्तूबर को अफ़ग़ानिस्तान
में दो-तीन जगहों पर हवाई हमले किए. उसी रोज़ तालिबान के विदेशमंत्री अमीर ख़ान
मुत्तकी भारत आए थे. अनुमान लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान की ओर से वह तालिबान के
नाम संदेश था.
हालाँकि पाकिस्तान कह रहा है कि तालिबान की
ताज़ा गतिविधियाँ भारत से प्रेरित हैं, पर घटनाक्रम बता रहा है कि
पाकिस्तान ने मुत्तकी की भारत-यात्रा पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए 9
अक्तूबर का दिन ही चुना. यानी पहल पाकिस्तान की तरफ से हुई.
पाकिस्तान की ओर से रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ उग्र
बयान जारी कर रहे हैं. हाल में उन्होंने सोशल मीडिया पर कहा कि काबुल के साथ संबंध
अब पहले जैसे नहीं रहेंगे. अब शांति के लिए कोई अपील नहीं होगी; कोई भी प्रतिनिधिमंडल काबुल नहीं जाएगा. आतंकवाद का स्रोत जहाँ भी है,
उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
बहरहाल दोहा में बात करने भी वही गए. आसिफ ने अफ़ग़ानिस्तान
पर भारत की गोद में बैठकर पाकिस्तान के खिलाफ साज़िश रचने का आरोप लगाते हुए कहा
कि इस्लामाबाद अब पहले की तरह काबुल के साथ संबंध नहीं रख सकता. 'पाकिस्तानी ज़मीन पर मौजूद सभी अफगानों को अपने वतन वापस जाना होगा.
क्रिकेट-मैच रद्द
शुक्रवार 17 अक्तूबर की रात कंधार के स्पिन
बोल्डक ज़िले में पाकिस्तान के हवाई हमलों में तीन अफ़ग़ानिस्तानी क्रिकेटरों सहित
40 लोग मारे गए. ये हवाई हमले रिहायशी इलाकों में हुए.
इन हमलों के बाद अफ़ग़ानिस्तान ने पाकिस्तान के
साथ होने वाली आगामी त्रिकोणीय टी-20 सीरीज़ से हटने की घोषणा की है. नवंबर में
होने वाली इस सीरीज़ में तीसरी टीम श्रीलंका है. अब अफ़ग़ानिस्तान की जगह
ज़िम्बाब्वे की टीम आएगी.
इसके पहले अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा
पर रविवार 12 अक्तूबर को दोनों देशों की सेनाओं के बीच रात भर घातक झड़प हुई.
दोनों पक्षों के बीच भारी गोलीबारी हुई, जो पिछले कई वर्षों
में हिंसा में सबसे बड़ी घटना थी.
क़तर-सऊदी हस्तक्षेप
टकराव की शिद्दत को देखते हुए क़तर और सऊदी अरब
ने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की, जिसके कारण आधी
रात को लड़ाई रुक गई. दोनों देशों की सेनाओं के बीच सीमा पर पहले भी टकराव होता
रहा है, पर अब उसकी शिद्दत ज्यादा है.
पाकिस्तान ने बार-बार तालिबान सरकार पर
तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, को पनाह देने का आरोप लगाया है. उसने
भारत पर टीटीपी का समर्थन करने का आरोप लगाया है.
पाकिस्तानी सेना और स्वतंत्र तथा संयुक्त
राष्ट्र विशेषज्ञों के अनुसार, टीटीपी नेतृत्व को अफ़ग़ान
सरकार से वित्तीय सहायता मिलती है. तालिबान इस बात से इनकार करता है.
सुधार के प्रयास
दोनों सरकारों ने हाल में अपने संबंधों को
सुधारने की कोशिश भी की है. दोनों देशों के शीर्ष राजनयिकों ने अगस्त में अपने
चीनी नेताओं से मुलाकात की थी, लेकिन पाकिस्तान ने तालिबान
को अफ़ग़ानिस्तान के वैध शासक के रूप में मान्यता नहीं दी है.
पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान
का सबसे बड़ा निर्यात साझेदार है, और यह उन लाखों अफ़ग़ानों
की मेज़बानी करता है जो पिछले दशकों में असुरक्षा और बेरोज़गारी के कारण भागकर आए
हैं. हाल के महीनों में, पाकिस्तान सरकार ने इन अफ़ग़ानों के
निष्कासन के आदेश दिए हैं, जिसके कारण हज़ारों अफ़ग़ान वापस
अफ़ग़ानिस्तान लौट आए हैं.
9 अक्तूबर की रात को, काबुल
और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के अन्य हिस्सों पर हुए हवाई हमलों के तुरंत बाद, सोशल मीडिया पर अटकलें लगाई गईं कि टीटीपी के प्रमुख नूर वली महसूद को
निशाना बनाया गया है.
बाद में जानकारी सामने आई कि महसूद बच गया है. तालिबान
के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने जोर देकर कहा कि टीटीपी अमीर न तो काबुल में थे
और न ही अफ़ग़ानिस्तान में.
पाकिस्तान की रचना
तालिबान, पाकिस्तान की ही रचना हैं. नब्बे के
दशक में अपने जन्म के बाद से वे पाकिस्तान के सहयोगी बने हुए हैं. पाकिस्तान ने
1996 में तालिबान शासन को तेजी से मान्यता दी थी. वही तालिबान अब डूरंड रेखा को
मान्यता देने से इनकार करते हैं और टीटीपी को शरण देते हैं.
2021 में तालिबान के काबुल पर कब्जे के दो दिन
बाद टीटीपी के अमीर मुफ्ती नूर वली महसूद ने इस्लामी अमीरात के प्रति निष्ठा की
शपथ ली. पाकिस्तान में टीटीपी की गतिविधियाँ तब से बढ़ती जा रही है. जवाब में,
पाकिस्तान ने व्यापार को प्रतिबंधित करके, और पिछले
दो वर्षों में हजारों अफ़ग़ान शरणार्थियों को निष्कासित किया है.
तालिबान और टीटीपी
टीटीपी को समझने के पहले तालिबान को समझना होगा. ‘तालिबान’ शब्द का अर्थ है छात्र. अफ़ग़ान और पाकिस्तानी मदरसों या धार्मिक स्कूलों
में इस्लाम की शिक्षा लेने वालों से 1990 के दशक में यह बना था.
1994 तक, तालिबान दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान में अपनी पैठ बना
चुका था. उसका पहला कदम कुरान की शिक्षाओं और न्यायशास्त्र की सख्त व्याख्याओं को
लागू करना था. इसका सबसे बड़ा असर स्त्रियों, राजनीतिक विरोधियों और धार्मिक
अल्पसंख्यकों पर पड़ा.
टीटीपी 2007
में विभिन्न गुटों के गठबंधन से बना था. इसका मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान में सख्त
व्याख्या वाले इस्लामी शरिया कानून को लागू करना है. खासतौर से पश्तून कबायली इलाकों,
जैसे पूर्व फेडरली एडमिनिस्ट्रेटेड ट्राइबल एरियाज (फाटा) और खैबर पख्तूनख्वा
प्रांत, में पाकिस्तान सरकार के असर को खत्म करना.
इस्लामी
अमीरात
यह समूह पाकिस्तान
में इस्लामी अमीरात स्थापित करना और पाकिस्तानी सरकार को उखाड़ फेंकना ज़रूरी
मानता है. उसके अनुसार पाकिस्तान की स्थापना के मूल उद्देश्य को पूरा करने के लिए वर्तमान
गैर-इस्लामी संविधान को खत्म करना होगा.
वह अफगान
तालिबान को अपना रोल मॉडल मानता है और उनके नेता को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार
करता है. वह खुद को पश्तून जनजातियों का रक्षक बताता है और पश्तून राष्ट्रवादी
तत्वों को बढ़ावा देता है,
हालांकि उसका मुख्य फोकस
जिहादी है.
टीटीपी के पहले
नेता बैतुल्लाह महसूद की मृत्यु 5 अगस्त 2009 को हुई और उनके उत्तराधिकारी
हकीमुल्लाह महसूद की मृत्यु 1 नवंबर 2013 को हुई. नवंबर 2013 में टीटीपी के केंद्रीय शूरा ने
मुल्ला फजलुल्लाह को समूह का समग्र नेता नियुक्त किया.
फजलुल्लाह
कट्टर पश्चिम-विरोधी और इस्लामाबाद-विरोधी था. वह कठोर रणनीति का समर्थन करता था, जिसका प्रमाण नवंबर 2012 में शिक्षा अधिकार
कार्यकर्ता मलाला युसुफज़ई की हत्या के प्रयास से मिलता है.
महसूद-नेतृत्व
2018 में टीटीपी का तत्कालीन अमीर, मुल्ला फजलुल्लाह अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया था. उसके बाद महसूद को
उनका उत्तराधिकारी बनाया गया. फजलुल्लाह, एकमात्र गैर-महसूद टीटीपी प्रमुख था. 2014
के आर्मी पब्लिक स्कूल नरसंहार के बाद इस समूह को काफी आलोचना का सामना करना पड़ा
था.
महसूद के अधीन टीटीपी ने पाकिस्तानी सुरक्षा
बलों को भारी नुकसान पहुँचाया है. पिछले चार वर्षों में, पाकिस्तान
ने अफ़ग़ान तालिबान अधिकारियों से कई बार टीटीपी पर लगाम लगाने का आग्रह किया है.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि टीटीपी ने सीमा पार अपनी हिंसा को बढ़ाना जारी
रखा.
पाकिस्तानी कार्रवाई
पाकिस्तान ने पिछले दो वर्षों में पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान
में टीटीपी के गढ़ों को निशाना बनाकर हमले किए हैं. व्यापार प्रतिबंध भी लगाए और
देश में रहने वाले दस लाख से अधिक अफ़ग़ान शरणार्थियों को निर्वासित करना शुरू कर
दिया, इस उम्मीद में कि तालिबान दबाव में आ जाएगा.
सितंबर 2023 से अब तक लगभग 8,15,000 अफ़ग़ानों
को पाकिस्तान से निकाला जा चुका है. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 30 लाख लोग अब
भी वहाँ हैं. दोनों देशों के बीच व्यापार में भारी गिरावट आई है. फिर भी, तालिबान टस से मस नहीं हुए हैं.
भारत-तालिबान संपर्क
इस साल तालिबान ने पहलगाम कांड की भर्त्सना करके
भारत को एक संदेश दिया. ऑपरेशन सिंदूर के फौरन बाद 16 मई को विदेशमंत्री एस जयशंकर
ने मुत्तकी से टेलीफोन पर बात की और पहलगाम हमले पर उनके समर्थन और संवेदना के लिए
धन्यवाद दिया.
माना जा रहा है कि भारत ने ‘दुश्मन के
दुश्मन’ के करीब जाने की रणनीति अपनाई है, पर कारण केवल यही
नहीं है. तेजी से अस्थिर होते पड़ोस में, भारत कम से कम तालिबान
से किसी भी खतरे को बेअसर करना चाहता है.
दूसरा उद्देश्य मध्य एशिया से संपर्क और व्यापार
का है. ज़मीनी रास्ता बंद हैं. पाकिस्तान पारगमन की अनुमति नहीं देता और अमेरिका
ने ईरान के चाबहार बंदरगाह पर परियोजनाओं के लिए प्रतिबंध फिर से लगा दिए हैं,
जिसे भारत वैकल्पिक मार्ग के रूप में विकसित कर रहा था.
2001 से 2021 के दौरान भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के
पिछले प्रशासन के साथ दोस्ती बनाई थी. द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने के लिए भारत ने हवाई
गलियारा भी बनाया और वहाँ बुनियादी ढाँचे की कई परियोजनाओं पर काम किया.
यह भी ध्यान रखना होगा कि अतीत में तालिबान के पाकिस्तानी
सेना के साथ घनिष्ठ संबंध रहे हैं. काबुल और कंधार में तालिबान नेतृत्व के बीच
मतभेद भी हैं.
तालिबानी रणनीति
पिछले महीने तालिबान ने काबुल में ईरानी
विदेशमंत्री की मेज़बानी की. ऐसा 2017 के बाद पहली बार हुआ. जनवरी में भारत के
विदेश सचिव की दुबई में तालिबान विदेशमंत्री से मुलाकात से भी पाकिस्तान बेचैन हुआ.
अब मुत्तकी की भारत-यात्रा ने जले में नमक छिड़का
है. पाकिस्तान को लगता है कि इस उभरती दोस्ती के पीछे उसकी पूर्वी और पश्चिमी
दोनों सीमाओं पर शत्रुतापूर्ण एजेंडा है.
पाकिस्तान के पिछले सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा
ने सुझाव दिया था कि पाकिस्तान को चाहिए कि कश्मीर समस्या को लंबे समय तक के लिए
ठंडे बस्ते में डाले और भारत के साथ रिश्ते बनाए. पाकिस्तानी सुरक्षा के लिए यह बेहतर
कदम होगा.
उस समय इमरान खान प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने इस
दिशा में कदम बढ़ा भी दिए थे, पर उन्हें ‘यू-टर्न’ लेना पड़ा. 2015 में तत्कालीन
प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने भारत से बातचीत की पहल की थी, पर वे न केवल बाद में
चुनाव हारे, बल्कि उन्हें जेल में भी डाल दिया गया. इसके पीछे पाकिस्तानी ‘डीप स्टेट’ का हाथ बताया गया.
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