हमारा हर दिन पर्व है। यह खास तरह की जीवन-शैली
है, जो परंपरागत भारतीय-संस्कृति की देन है। जैसा उत्सव-धर्मी भारत है, वैसा शायद
ही दूसरा देश होगा। इस जीवन-चक्र के साथ भारत का सांस्कृतिक-वैभव तो जुड़ा ही है,
साथ ही अर्थव्यवस्था और करोड़ों लोगों की आजीविका भी इसके साथ जुड़ी है। आधुनिक
जीवन और शहरीकरण के कारण इसके स्वरूप में बदलाव आया है, पर मूल-भावना अपनी जगह है।
यदि आप भारत और भारतीयता की परिभाषा समझना चाहते हैं, तो इस बात को समझना होगा कि
किस तरह से इन पर्वों और त्योहारों के इर्द-गिर्द हमारी राष्ट्रीय-एकता काम करती
है।
अद्भुत एकता
कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक कुछ खास तिथियों पर अलग-अलग रूप में मनाए जाने वाले पर्वों के साथ एक खास तरह की अद्भुत एकता काम करती है। चाहें वह नव संवत्सर, पोइला बैसाख, पोंगल, ओणम, होली हो या दीपावली और छठ। इस एकता की झलक आपको ईद, मुहर्रम और क्रिसमस के मौके पर भी दिखाई पड़ेगी। दीपावली के दौरान पाँच दिनों के पर्व मनाए जाते हैं। नवरात्र मनाने का सबका तरीका अलग-अलग है, पर भावना एक है। गुजरात में यह गरबा का पर्व है और बंगाल में दुर्गा पूजा का। उत्तर भारत में नवरात्र व्रत और रामलीलाओं का यह समय है। देवोत्थान एकादशी के साथ तमाम शुभ कार्य शुरू हो गए हैं।
दक्षिण भारत में इन दिनों घरों में बोम्मई गोलू
या नवरात्र गोलू सजाए गए हैं। यह एक रोचक परंपरा है। इस परिघटना को
दस्तकारी-संरक्षण, गृह-सज्जा, सांस्कृतिक एकता और सामुदायिक-सद्भाव की दृष्टि से
देखें। आप पाएंगे कि ऐसी परंपराएं उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम देश के हर कोने में
उपस्थित हैं। रोजगार, पढ़ाई, पर्यटन और दूसरे कारणों से देशभर में प्रवासन
जबर्दस्त तरीके से बढ़ा है। प्रवासी कामगार अपने साथ अपने इलाके की संस्कृति भी
लेकर चलते हैं। आपको चेन्नई, कोयंबत्तूर या बेंगलुरु में बिरहा और बिदेसिया गाते
बिहारी मजदूर मिलेंगे और नोएडा में पोंगल और ओणम मनाते दक्षिण भारतीय।
हाल के वर्षों में बंगाल की सार्वजनीन दुर्गा
पूजा उत्तर के लगभग सभी शहरों में होने लगी है। लखनऊ और गाजियाबाद जैसे शहरों में
उत्तराखंड की रामलीला तो न जाने कब से हो रही है। उत्तराखंड पारंपरिक उत्सव है-घी
संक्रांति। उत्तराखण्ड में इसे घ्यू संग्यान, घिया
संग्यान और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है। कुमाऊं के इलाके में इस दिन मक्खन
अथवा घी के साथ बेड़ू रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है।
उत्तराखंड के हरेला, घी संक्रांति और फूलदेई जैसे पर्वों में प्रकृति की भूमिका है।
पारंपरिक उद्यम
हमारे सभी त्योहार पारंपरिक उद्यमों से जुड़े
हैं, जो कृषि-समाज की विरासत है। पारंपरिक उद्यमों को तीन या चार मोटे वर्गों में
बाँट सकते है। पहला कृषि और उससे जुड़े उद्यम। दूसरे कारीगरी और दस्तकारी। और
तीसरे सेवा से जुड़े काम। खेती और उससे जुड़े कामों में पशुपालन, बागवानी और वन-संपदा के व्यावसायिक इस्तेमाल से जुड़े काम हैं। आटा
चक्की, कोल्हू और परंपरागत खाद्य प्रसंस्करण इनमें
शामिल है। इनके साथ बाँस, रस्सी, कॉयर
और जूट का काम भी जुड़ा है। हाल के वर्षों में फूलों की खेती और ऑर्गेनिक खेती
महत्वपूर्ण कारोबार के रूप में विकसित हुई है। यह परंपरागत खेती का सुधरा हुआ रूप
है। जड़ी-बूटियों की खेती भी व्यावसायिक खेती का परिष्कृत रूप है।
दस्तकारी और कारीगरी के परंपरागत शिल्प के साथ
हथकरघा उद्योग जुड़ा है जो रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हुआ करता था। इसके साथ रेशम,
कालीन, दरी और ऊनी शॉल का काम है। ठप्पे की
छपाई, रेशमी और सूती धागों को बाँधकर तरह-तरह चीजें
बनाने की पटुआ कला। जेवरात और रंगीन पत्थरों का काम, मीनाकारी,
पत्थर तराशने का काम, मिट्टी के बर्तन, खिलौने, ताँबे और पीतल के बर्तन यानी ठठेरों का
काम, चमड़े का काम, लकड़ी
के खिलौने और कारपेंटरी, परिधान निर्माण वगैरह।
विसंगतियाँ
अठारहवीं सदी के शायर नज़ीर अकबराबादी ने लिखा
है:- हर इक मकां में
जला फिर दिया दिवाली का/हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का। ये पंक्तियाँ बताती हैं कि दीवाली आम त्योहार नहीं था। यह हमारे सामाजिक दर्शन से जुड़ा पर्व था।
भारत का शायद यह सबसे शानदार त्योहार है, जो दरिद्रता के खिलाफ है। अंधेरे पर
उजाले, दुष्चरित्रता पर सच्चरित्रता, अज्ञान पर ज्ञान की और निराशा पर आशा की जीत। यह सामाजिक नजरिया है,
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ ‘अंधेरे से उजाले की ओर जाओ’ यह उपनिषद की
आज्ञा है। यह एक पर्व नहीं है। कई पर्वों का समुच्चय है। पर क्या हमारी दीवाली वही
है, जो इसका विचार और दर्शन है? आसपास देखें तो आप पाएंगे कि आज सबसे गहरा अँधेरा और सबसे ज्यादा
अंधेर है। आज आपको अपने समाज की सबसे ज्यादा मानसिक दरिद्रता दिखाई पड़ेगी। अविवेक,
अज्ञान और नादानी का महासागर आज पछाड़ें मार रहा है।
हमारे सारे त्योहार फसल, मौसम
और खेतिहर समाज के साथ जुड़े हैं। इन तीनों मामलों में बदलाव आ रहा है। धीरे-धीरे
हमारा समाज खेतिहर समाज से बदल कर औद्योगिक समाज में तब्दील हो रहा है। बदलाव अभी
पूरा नहीं है। जो हुआ है वह अधकचरा है। सोशल मीडिया पर एक संवेदनशील सज्जन ने लिखा,
जिंदगी के सफ़र में हमने दीवाली को रूप बदलते देखा है। ‘बचपन में
गाँव में दिवाली पर हम मशाल जलाते थे। छतों पर घी के दिए जलाए जाते थे जो तेज हवा
की वज़ह से थोड़ी देर में ही बुझ जाते थे। न पटाखे होते थे, न
मिठाई। उपहार लेने-देने की रिवाज़ नहीं था। दादाजी खील बाँटते थे। बाज़ार से एक
बोरा भर कर लाया जाता था। दिवाली के दिन सारे गाँव को आमंत्रित किया जाता और
दादाजी अपने हाथों से सबको खील बांटते।’
दोस्ती पर पीआर हावी
बदलते वक्त के साथ दिवाली भी बदली। बिजली की
लड़ियों ने दीपकों की जगह ले ली। मिठाई के साथ उपहारों का आदान प्रदान शुरू हुआ।
हम गिफ्ट की कीमत तय करने लगे हैं। जिसका जितना रसूख उसकी वैसी गिफ्ट। जो
सत्ताधारी या पावरफुल हैं, उनके गिफ्ट उतने ही भारी हैं। एक दिन
मिलने की औपचारिकता शुरू हुई। मैत्री-भाव की जगह पीआर यानी ‘पब्लिक रिलेशनिंग’ ने
ले ली। मिठाइयों की जगह ड्राई फ्रूट्स ने ले ली। दफ्ती के डिब्बों की जगह चाँदी की
मंजूषाओं में रखकर मेवे जाने लगे। पैसे के प्रदर्शन ने आत्मीयता की जगह ले ली। मन
की खुशी की जगह पटाखों की धमक ने घेर ली। जो जितना पैसे वाला उसके धमाके उतने भारी।
गाँव के मेलों और कस्बे के बाजारों का दौर खत्म
हुआ। अब ई-बाजार खुला है। जैसे-जैसे दीपावली करीब आ रही है, मीडिया में इस आशय की
खबरें बढ़ रही हैं कि उत्तर भारत के शहरों में प्रदूषण का स्तर कैसा रहेगा। देखना है
कि इस साल कहाँ तक जाएगा। सजे-धजे मॉल भीड़ से भरे हैं। मिठाई के डब्बे, शानदार गिफ्ट के पैकेट, लेजर लाइट्स और
सड़कों पर मीलों लम्बा ट्रैफिक जाम। त्योहार पूरी शिद्दत के साथ ज़मीन पर उतर आया
है। माहौल में रोशनी-रंगत और शोर है, पर मन में
अनजाना सा भय भी है।
माताओं को इंतजार होता है। दीवाली पर बेटा-बहू
घर आएंगे। अब ‘मेक माय ट्रिप’ उन्हें दीवाली हॉलिडे स्पेशल डिस्काउंट दे रहा है।
एयरलाइंस बुला रहीं हैं, आओ सिंगापुर में दीवाली मनाओ। घर में
क्या रखा है? वक्त बदला, त्योहार
बदले, हम भी बदल रहे हैं। देखिए आपके फोन पर वॉट्सएप
के कितने मैसेज पड़े हैं। उनसे रोशनी फूट रही है। सबका संदेश है, ‘हैप्पी दीवाली!’
हमारा दीपक
जिन्हें हम परंपरागत कौशल कहते हैं उनमें से
काफी के लिए बदलता आर्थिक परिदृश्य खतरे का संकेत लेकर आ रहा है। परंपरागत शिल्पों
के सामने भारत में ही नहीं सारी दुनिया में खतरा है, पर भारतीय समाज के लिए उसका
खास महत्व है। कुछ साल पहले की बात है। एक न्यूज़ चैनल पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन
के पास दीये बनाने वाले कुम्हारों और उनकी दिक्कतों पर आधारित खबर दिखाई जा रही
थी। दीये बनाने वाली महिला का कहना था कि दीयों की बिक्री घट रही है। मेरे पति कोई
और काम जानते भी नहीं हैं। अब कर भी क्या सकते हैं? क्या
हम इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि चीन का कोई उद्यमी भारतीय बाज़ार पर रिसर्च
करके मिट्टी के बर्तनों और दीयों का विकल्प तैयार करके लाए? इसके
लिए जिम्मेदार कौन है? चीन, हमारे
कुम्हार, हमारे उद्यमी या भारत सरकार? दीपक बनाने वाले दिल्ली के कुम्हार के हाथ की खाल मिट्टी का काम
करते-करते गल गई थी। दस्तकारों को वक्त के साथ खुद को ढालना नहीं सिखा पा रहे हैं?
या ऐसे हालात तैयार नहीं कर पा रहे हैं कि उनके हितों की रक्षा हो।
परंपरागत शिल्पों के साथ आज भी काफी बड़ी आबादी
की रोजी-रोटी जुड़ी है। उन्हें अपने काम के तरीके में थोड़ा बदलाव करके और उसकी
तकनीक को सुधारकर बेहतर बाजार तक लाने की जरूरत है। हमें विलाप नहीं, विकल्प चाहिए। भावुक होने से कुछ नहीं होता। ग्राहक को अच्छी रोशनी
की लड़ी मिलेगी तो वह भारतीय और चीनी का फर्क नहीं करेगा। थोड़ी सी सावधानी बरतें
तो इन उद्यमों के लिए वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण बजाय खतरा बनने के बेहतर मौके
तैयार पैदा कर सकते हैं।
किसी अनाम शायर की लाइनें याद आती है:- मिल के होती थी कभी ईद भी दीवाली भी/ अब ये
हालत है कि डर-डर के गले मिलते हैं।
हिंदी ट्रिब्यून के 22 अक्तूबर, 2023
के रविवारीय परिशिष्ट लहरें में प्रकाशित
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