हमास के अचानक हमले ने इसराइल समेत सारी दुनिया को हैरत में डाल दिया है. यह हमला, जिस समय और जितने सुनियोजित तरीके से हुआ है, उससे कुछ सवाल खड़े हुए हैं. साफ है कि हमले का उद्देश्य राजनीतिक है, सामरिक नहीं. इरादा अमेरिकी मध्यस्थता में सऊदी अरब और इसराइल के बीच संभावित करार में खलल डालना है. यह बात चीनी मीडिया ने भी मानी है. भारत के नज़रिए से यह पश्चिम एशिया कॉरिडोर के खेल को बिगाड़ने के इरादे से हुआ है.
जिस समय पश्चिम एशिया में सऊदी अरब और इसराइल
के बीच समझौते की बातें हो रही हैं, यह हमला उसी वक्त होने का मतलब साफ है. यह योजना
केवल हमास ने बनाई होगी, इसे लेकर संदेह है. हमला यह मानकर हुआ है कि इसकी वजह से शांति-प्रक्रिया
और भारत-अरब कॉरिडोर पर आगे बात रुक जाएगी. बहरहाल अब इसराइल और हमास दोनों के अगले कदम बहुत महत्वपूर्ण होंगे.
हमास की भूमिका
इसराइल का कहना है कि हम हमास के नेतृत्व को नेस्तनाबूद कर देंगे, पर यह काम आसान नहीं है. साबित यह हो रहा है कि फलस्तीन के सवाल को ज्यादा देर तक अधर में रखने से अशांति बनी रहेगी. उसका निपटारा होना चाहिए. यह सवाल जरूर है कि फलस्तीनियों का प्रतिनिधि कौन है? कौन उनकी तरफ से बात करेगा? फतह, हमास या कोई और? इस हमले का एक उद्देश्य यह साबित करना भी है कि हमास ही वास्तविक प्रतिनिधि है. कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि हमास चाहता है कि इसराइल उससे बात करे.
इस हमले की योजना केवल हमास तक सीमित नहीं लगती. इसके
पीछे कोई और है. कौन है, इस सवाल का जवाब फौरन देना कठिन है. समय आने पर वह मिल
जाएगा. अमेरिकी अखबारी वॉल स्ट्रीट जर्नल ने हमास और हिज़्बुल्ला के सूत्रों के
हवाले से खबर दी है कि ईरानी सेना के अधिकारी पिछले अगस्त से इस हमले की योजना
तैयार कर रहे थे. पर अमेरिकी सेना के सूत्रों का कहना है कि हमारे पास ऐसी कोई
जानकारी नहीं है.
हमले की शुरुआत हमास ने की थी, पर अब
हिज़्बुल्ला के शामिल होने की खबरें हैं. हमास ने बड़ी संख्या में नागरिकों और
सैनिकों को बंधक बना लिया है, जो लेन-देन और मोल-भाव में
काम आएंगे.
तीस साल पहले ओस्लो समझौते के बाद शुरू हुआ
फलस्तीनी अथॉरिटी का प्रयोग विफल हो गया है. आम फलस्तीनी के मन में अल-फतह और हमास
दोनों के प्रति नाराज़गी बढ़ रही है. कोई वैकल्पिक नेतृत्व उभरता हुआ दिखाई नहीं
पड़ रहा है. समझौता होने की नौबत आए भी तो कौन किससे समझौता करेगा? सवाल यह भी है कि हम जिस ‘टू स्टेट समाधान’ की बात कर रहे हैं, क्या वह हमास को स्वीकार है? ‘टू स्टेट’ यदि समाधान है, तो
अरब देशों ने 1948 में तभी उसे क्यों नहीं मान लिया, जब संयुक्त राष्ट्र ने
प्रस्ताव पास किया था?
जोखिम क्यों उठाया
जवाबी इसराइली कार्रवाई से हमास का भारी नुकसान
होगा, फिर भी उसने यह जोखिम उठाया. यह ‘सेना के स्तर’ का हमला है, मामूली आतंकी छापामारी नहीं. यह काम काफी तैयारी से
किया गया है. उसने हमला ही नहीं किया, बल्कि क्रूर-हिंसा की वीडियोग्राफी की और उन्हें
सोशल मीडिया पर अपलोड किया.
इन बातों से हमास न तो इसराइल को बेदखल करेगा
और न लंबे समय तक सीधी लड़ाई को झेल पाएगा. उसकी छापामारी जारी रहेगी. इसराइली
सेना भी सीमित अभियान ही चला सकती है. अंतरराष्ट्रीय
समुदाय उसे बड़े स्तर पर दमन की अनुमति देगा नहीं. संरा
महासचिव ने कहा है कि इसराइल ने गज़ा पट्टी की
नागरिक सुविधाओं को बंद करने की जो धमकी दी है, वह दुखदायी है. फिलहाल जवाबी हवाई हमलों से नागरिकों के हो रहे भारी
नुकसान की जिम्मेदारी हमास के मत्थे जरूर मढ़ी जाएगी.
हमास साबित करना चाहता है कि हम
शांतिपूर्ण-बातचीत के जरिए जीत नहीं सकते. हमें हिंसक लड़ाई लड़नी होगी. बर्बरता
और क्रूरता बाकी दुनिया को गलत लगती होगी, उसके समर्थकों को नहीं. इससे उनका
उत्साह बढ़ता है. हालांकि 2021 में हुई 11 दिन की लड़ाई से उसका भारी नुकसान हुआ
था, पर युद्धविराम के बाद ऐसा जश्न मना था, जैसे उसकी जीत हुई हो.
बावजूद इसके हमास ने उस लड़ाई के बाद अपने रुख
को नरम बना लिया था और दूसरे गुटों को भी वह हिंसा से बचने की सलाह देता था,
क्योंकि इसराइली कार्रवाई से फलस्तीनी नागरिकों की तकलीफें काफी बढ़ जाती है. दूसरी
तरफ इसराइल ने भी हजारों फलस्तीनियों को हर रोज़ सीमा के शहरों में आकर काम करने
का मौका दिया. इससे दोनों तरफ का भरोसा बढ़ रहा था.
अंदरूनी स्पर्धा
हमास का उद्देश्य महमूद अब्बास के फतह गुट की
तुलना में फलस्तीनियों के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाना भी है. महमूद अब्बास बातचीत
से समाधान चाहते हैं. गज़ा पट्टी में हमास का प्रभाव है और वह 2005 में इस इलाके में
हुए चुनाव में फतह गुट को हराकर काबिज़ हुआ था. उसके बाद चुनाव हुए ही नहीं. हुए
भी तो हमास ही जीतेगा.
क़रीब 25
मील लंबी और 6 मील चौड़ी गज़ा पट्टी में करीब 22 लाख लोग रहते हैं. यह दुनिया की सबसे घनी आबादी है. इसके आकाश और
समुद्री तट पर इसराइल का नियंत्रण है, पर प्रशासन हमास का है. दूसरी ओर जॉर्डन नदी
के पश्चिमी तट पर महमूद अब्बास के फलस्तीन-प्राधिकरण का शासन है. पश्चिमी देश उसे
ही मान्यता देते हैं.
परेशान फलस्तीनी
इस इलाके में 2005 के बाद से चुनाव हुए नहीं,
इसलिए कहना मुश्किल है कि जनता किसे पसंद करती है. गज़ा में रहने वाले करीब 20,000
दिहाड़ी कामगार इसराइली इलाकों में आते हैं. उनके सहारे गज़ा पट्टी में नकद धनराशि
और रोज़मर्रा का सामान भी पहुँचता है. उनका आना-जाना अब रुक जाएगा.
इसराइल ने गज़ा की बिजली, पानी और जरूरी
वस्तुओं की सप्लाई रोकने की घोषणा भी की है. पर यह नहीं मान लेना चाहिए कि ऐसी
बातों से हमास अलोकप्रिय होगा. माना जाता है
कि गुरबत में भी आम फलस्तीनी के मन में लड़ाई का जज़्बा है.
फलस्तीनी गज़ा पट्टी और जॉर्डन नदी के पश्चिमी
किनारे के अलावा इसराइल की मुख्य भूमि पर भी रहते हैं. उनकी हालत कहीं बेहतर है. 2019 में इसराइल में रहने वाले
फलस्तीनियों की औसत आय 36,500 डॉलर थी, जो पश्चिमी किनारे वालों की तुलना में आठ
गुना और गज़ा पट्टी वालों से 30 गुना ज्यादा थी. सवाल
यह भी है कि मुस्लिम देशों का रुख इस मामले में क्या होगा. वे इसराइल की निंदा
करेंगे, पर वे इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते हैं?
बड़ी योजना?
ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला अली खामनेई के
सलाहकार रहीम सफवी ने हमास के हमले का समर्थन किया है. उन्होंने कहा, हम फलस्तीनी लड़ाकों को बधाई देते हैं. यरूशलम और फलस्तीन की आजादी
तक हम फलस्तीनी लड़ाकों के साथ हैं. हिज़्बुल्ला ने लड़ाई में शामिल होने का इरादा
भी व्यक्त कर दिया है.
मुस्लिम देश, खासतौर से अरब संशय में हैं.
तुर्की, सऊदी अरब और मिस्र आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ाना चाहते हैं, पर अमन पर पानी
फिर रहा है. यूएई ने तो हमले पर काफी कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है. क्या
इसके पीछे रूस और चीन हैं, जो यूक्रेन से ध्यान हटाकर पश्चिमी देशों को दूसरे मोर्चे
पर उलझाना चाहते हैं? उन्होंने ईरान का सहारा लिया है? इन सवालों का फिलहाल कोई जवाब नहीं है.
टाइमिंग का महत्व
टकराव ऐन उस मौके पर हुआ है, जब लग रहा था कि पश्चिम एशिया में स्थायी शांति के आसार हैं. अरब
देशों का इसराइल के प्रति कठोर रुख बदलने लगा है. चार देशों ने इसराइल को मान्यता
दे दी है और संभावना इस बात की है कि सऊदी अरब भी उसे स्वीकार कर लेगा. इस हिंसा
से उस प्रक्रिया को धक्का लगेगा. उन अरब देशों को भी दिक्कत होगी, जिन्होंने हाल में इसराइल से रिश्ते बनाए हैं.
अल-फतह और हमास के बीच की प्रतिद्वंद्विता भी
इसके पीछे है. हमास सुन्नी मुसलमानों का संगठन है, पर
उसे ईरान का समर्थन हासिल है. उसके पास जो हथियार हैं, उनमें
काफी ईरान से मिले हैं. उसने गज़ा पट्टी में महमूद अब्बास के फतह को पस्त कर दिया
है, जिससे इसराइल से समझौता मुश्किल हो गया है.
हमास का रुख
हमास मूलतः उग्रवादी संगठन है, पर 2005 के बाद से उसने गज़ा पट्टी के इलाके में राजनीतिक प्रक्रिया
में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. वह फलस्तीनी अथॉरिटी के चुनावों में शामिल होने लगा.
गज़ा में फतह को चुनाव में हराकर उसने प्रशासन अपने अधीन कर लिया है. अब फतह गुट
का पश्चिमी तट पर नियंत्रण है और गज़ा पट्टी पर हमास का. अंतरराष्ट्रीय समुदाय
पश्चिमी तट के इलाके की अल फतह नियंत्रित फलस्तीनी अथॉरिटी को ही मान्यता देता है.
हमास की स्थापना सन 1987 में हुई थी. मूलतः
इसका चार्टर इसराइल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता, साथ
ही इस इलाके में शांति-स्थापना के प्रयासों को वक्त की बरबादी और बेहूदगी मानता था.
पर सन 2017 में उसने अपने चार्टर में कुछ बदलाव किया है.
अब उसका चार्टर कहता है कि हमारी लड़ाई
यहूदियों से नहीं, बल्कि ज़ियनवादियों के फलस्तीन पर
कब्जे के विरुद्ध है. इसकी पेशकश है कि यदि इसराइल 1967 में किए गए कब्जे से पीछे
हट जाए, तो हम शांति-समझौता कर सकते हैं.
पृष्ठभूमि
इसराइल की स्थापना के लिए 1948 में संरा ने एक
प्रस्ताव तैयार किया था. पर इसे अरब देशों ने स्वीकार नहीं किया, पर इसराइल ने अपनी घोषणा कर दी. घोषणा होते ही लड़ाई छिड़ गई थी.
संघर्ष विराम होने तक इसराइल का काफी इलाके पर नियंत्रण हो चुका था.
जॉर्डन के क़ब्ज़े वाली ज़मीन को वेस्ट बैंक (जॉर्डन
नदी का पश्चिमी किनारा) और मिस्र के क़ब्ज़े वाली जगह को गज़ा के नाम से जाना गया.
यरूशलम को पश्चिम में इसराइल और पूर्व को जॉर्डन के बीच बाँट दिया गया.
1967 में अगला युद्ध लड़ा गया, जिसमें इसराइल ने पूर्वी यरूशलम और वेस्ट बैंक पर भी क़ब्ज़ा कर लिया.
यही नहीं इसराइल ने सीरिया के गोलान हाइट्स, गज़ा
और मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के अधिकतर हिस्सों पर भी क़ब्ज़ा जमा लिया.
इसराइल दावा करता है कि पूरा यरूशलम उसकी
राजधानी है जबकि फ़लस्तीनी पूर्वी यरूशलम को भविष्य के फ़लस्तीनी राष्ट्र की
राजधानी मानते हैं. अमेरिका उन चंद देशों में से एक है जो पूरे शहर पर इसराइल के
दावे को मानता है. संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में यरूशलम को अंतरराष्ट्रीय नगर
के रूप में अलग रखने की व्यवस्था थी.
गज़ा की चौकसी
इसराइल और मिस्र गज़ा की सीमा का कड़ाई से
नियंत्रण करते हैं ताकि हमास तक हथियार न पहुँचें. गज़ा और वेस्ट बैंक में रहने
वाले फ़लस्तीनियों का कहना है कि वे इसराइली कार्रवाइयों और पाबंदियों से पीड़ित
हैं. वहीं, इसराइल कहता है कि वह फ़लस्तीनियों की हिंसा से
ख़ुद को बचा रहा है.
डोनाल्ड ट्रंप जब राष्ट्रपति थे तब अमेरिका ने
एक शांति समझौता तैयार किया था और ट्रंप ने इसराइल प्रधानमंत्री बिन्यामिन
नेतन्याहू के साथ इसे 'सदी का सौदा' बताया
था. फ़लस्तीनियों ने इसे एकतरफ़ा कहकर ख़ारिज कर दिया था.
इस समय जो बाइडन शांति-समझौते का श्रेय लेना
चाहते हैं, ताकि अगले साल होने वाले चुनाव में वे अपनी उपलब्धि गिना सकें. फिलहाल
उनकी कोशिश होगी कि लड़ाई पश्चिमी किनारे न पहुँचे. विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ने
वेस्ट बैंक में 'शांति और स्थिरता' की अपील की है. उन्होंने महमूद अब्बास से भी बात की है.
ओस्लो समझौता
1993 में इसराइल और फलस्तीनी मुक्ति संगठन
(पीएलओ) ने ओस्लो में फलस्तीनी राष्ट्र अथॉरिटी के अधीन गज़ा और पश्चिमी किनारे पर
स्वशासन की स्थापना का समझौता किया था. उद्देश्य था कि स्वतंत्र फलस्तीन का रास्ता
खुलेगा और पाँच साल में इसरायली कब्जा खत्म हो जाएगा.
ओस्लो समझौते के तीस साल बाद भी ऐसा नहीं हो
पाया है. इस दौरान इसराइल ने 2005 में गज़ा से अपनी सेना वापस बुला ली, पर जॉर्डन
के पश्चिम में अपनी बस्तियाँ बनाकर करीब पाँच लाख लोगों को बसा लिया.
हमास बनाम फतह
इस दौरान हमास ने फलस्तीनी अथॉरिटी के चुनावों
में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और 2005 में चुनाव जीतकर गज़ा पट्टी में अलग प्रशासन
की स्थापना कर ली. अब वस्तुतः वह एक अलग देश की तरह काम कर रहा है, जिसका शासन
हमास के हाथों में है.
हमास के बढ़ते प्रभाव के कारण फलस्तीनी अथॉरिटी
को पश्चिमी देशों से मिल रही सहायता भी रुक गई. अमेरिकी संसद ने फलस्तीनी अथॉरिटी
को आतंकवाद का केंद्र मानना शुरू कर दिया है. उधर हमास 87 वर्षीय महमूद अब्बास के नेतृत्व को चुनौती दे रहा है.
उन्होंने दुबारा चुनाव नहीं कराए और पिछले 29 साल से फलस्तीनी अथॉरिटी के अध्यक्ष
या राष्ट्रपति के रूप में काम कर रहे हैं.
फलस्तीनियों को कहीं से भी रास्ता नज़र नहीं आ
रह है, इसलिए उनके भीतर नाराज़गी बढ़ती जा रही है, जो हिंसा के रूप में प्रकट हो
रही है. महमूद अब्बास ने 2007 में अपनी संसद को स्थगित किया और 2018 में उसे भंग
कर दिया. हाल में एक सर्वे से पता लगा है कि 77 फीसदी फलस्तीनी चाहते हैं कि महमूद
अब्बास इस्तीफा दे दें.
आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित आलेख का अद्यतन संस्करण
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