समाजवादी पार्टी ने अपना रजत जयंती समारोह मना लिया और यूपी
में बिहार जैसा महागठबंधन बनाने की सम्भावनाओं को भी जगा दिया, पर उसकी घरेलू कलह कालीन के नीचे दबी पड़ी है। जैसे ही मौका मिलेगा बाहर निकल आएगी। पार्टी साफ़
तौर पर दो हिस्सों में बंट चुकी है। पार्टी सुप्रीमो ने एक को पार्टी दी है और
दूसरे को सरकार। पार्टी अलग जा रही है और सरकार अलग। मुलायम सिंह असहाय खड़े दोनों
को देख रहे हैं। बावजूद बातों के अभी यह मान लेना गलत होगा कि उत्तर प्रदेश
में महागठबंधन बनने वाला है। धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि तलवार अब अखिलेश के हाथ में
है।
अखिलेश लगातार दबाव बना रहे हैं। पारिवारिक कलह को सुलझाने
के चक्कर में राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने जब चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश का हाथ
पकड़ कर मिलाने की कोशिश की तो अखिलेश ने झुक कर झट चाचा के पैर छू लिए। मुख्यमंत्री
के रूप में अपनी कैबिनेट से चाचा शिवपाल सिंह यादव सहित चार मंत्रियों को बर्खास्त
कर चुके अखिलेश यादव के हाथ में गायत्री प्रजापति ने तलवार थमाई तो उन्होंने कहा, हमें
तलवार देते हो भेंट में और उधर कहते हो कि मैं तलवार ना चलाऊं। ऐसा कैसे हो सकता
है? उनके अकेले इस वाक्य
ने सारी कहानी बयान कर दी।
सपा की इस लड़ाई को भाजपा और बसपा के नेता बड़े गौर से देख
रहे हैं। मायावती बार-बार सपा समर्थकों से कह रहीं हैं कि अपना वोट बर्बाद न होने
दें। सपा अब खत्म है। उधर शनिवार को भाजपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश से संकेत दिया
है कि जैसे लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने निर्णायक भूमिका अदा की थी,
वैसा ही फिर से होने वाला है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सहारनपुर में परिवर्तन
यात्रा को झंडी दिखाने के बाद कहा कि प्रदेश में भाजपा सरकार की नींव पड़ गई है, वह भी पूर्ण बहुमत के साथ। सपा और बसपा ने यूपी
का विकास रोका है। भाजपा शासित राज्यों में किसानों को 24 घंटे बिजली मिल रही है,
जबकि यूपी में जंगलराज है। उन्होंने अखिलेश पर तंज किया, आप कहते थे कि मुख्तार
पार्टी में नहीं आएगा, लेकिन आज अतीक, अफजाल सब भरे पड़े हैं।
पहले खबर थी कि अखिलेश रजत जयंती समारोह में शामिल नहीं
होंगे। बहरहाल वे मान गए, पर वे बुजुर्ग नेताओं पर वार करने से चूक नहीं रहे हैं। सपा
के घमासान के संदर्भ में उन्होंने कहा कि राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘लोगों को मेरी बात समझ आएगी लेकिन मेरे मरने के बाद।’ अखिलेश का कहना है कि इसी बात को दूसरे रूप में कहता हूं कि लोगों को समझ में
आएगा लेकिन सपा का नुकसान हो जाने के बाद।
सपा के इस जलसे में लगभग सभी समाजवादी और चरणसिंहवादी नेता
मुलायम सिंह यादव को गठजोड़ की कमान देने पर सहमत नजर आए। यह सहमति उत्तर प्रदेश
के विधानसभा चुनाव के से ज्यादा 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में ज्यादा
महत्वपूर्ण है। हालांकि इस मौके पर किसी गठबंधन की औपचारिक घोषणा नहीं हुई, लेकिन समारोह में मौजूद राष्ट्रीय लोकदल
(रालोद) अध्यक्ष अजित सिंह, जनता दल यूनाइटेड
(जदयू) के वरिष्ठ नेता शरद यादव, राष्ट्रीय जनता
दल (राजद) मुखिया लालू प्रसाद यादव और जनता दल सेक्युलर के प्रमुख एच. डी. देवेगौडा
ने एक सुर में मुलायम को गठबंधन की कमान देने की बात कही।
मुलायम सिंह ने भी कहा कि उन्होंने इन नेताओं को इसलिए, बुलाया है क्योंकि पहले सभी साथ थे और अब
उन्हें लगता है कि सभी को फिर एकजुट होना चाहिए। जल्द ही सभी मिल-बैठकर और बातचीत
करेंगे। मुख्य अतिथि एचडी देवेगौडा का कहना था कि साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ने के
मामले में सपा 'लैंडमार्क पार्टी' है। इस बात को ज्यादातर नेता समझते हैं कि
मुसलमान वोट मुलायम के साथ है।
महागठबंधनी बातों के बावजूद यह सम्मेलन चाचा-भतीजे की
राजनीति के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण था। शिवपाल सिंह यादव का दर्द उनके भाषण
में साफ नजर आया। उन्होंने कहा, मैं मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहता हूँ। मैं अखिलेश
यादव जी और पूरे समाजवादियों से कहना चाहता हूं कि कितना हमसे त्याग लोगे, कितना त्याग लेना चाहोगे। अगर खून मांगोगे तो
खून भी दे देंगे। मुख्यमंत्री मुझे नहीं बनना है। कितना भी मेरा अपमान कर लें, कितनी बार भी मुझे बर्खास्त कर लेना। मैंने पार्टी
के लिए संघर्ष किया है, जोखिम लिया है।
अखिलेश ने बुजुर्गों को अर्दब में ले लिया है। वे ऐसी बातें
कह रहे हैं, जिनसे पिता और चाचा दोनों की परेशानी बढ़े, पर उन्हें पार्टी से
निकालने की हिम्मत किसी में नहीं है। इसकी वजह है बहुसंख्यक विधायकों का उनके साथ
होना। अखिलेश को यदि अगले चुनाव के टिकट तय करने का अधिकार मिल गया तो उनके सबसे
ताकतवर नेता के रूप में उभरने में देर नहीं लगेगी। सवाल सत्ता में आने का नहीं है।
यदि पार्टी विपक्ष में भी बैठी तब भी उसका नेता कौन होगा, लड़ाई इस बात की है।
अखिलेश का प्लान बी भी तैयार लगता है। शायद अंदरखाने उनका सम्पर्क कांग्रेस, जेडीयू, रालोद वगैरह से है।
प्रश्न यह है कि यह परिकल्पना क्या उस महागठबंधन की परिकल्पना से अलग है, जिसकी
बातें रजत जयंती समारोह में हो रही थीं? अभी पत्ते खुले नहीं हैं।
अखिलेश ने अपनी छवि ईमानदार, सरल और विकासोन्मुखी नेता की
बनाई है। साथ ही उन्होंने यह साबित करने की कोशिश भी की है कि वे अपने पिता और
चाचा के सामने साढ़े चार साल तक मजबूर थे। मुलायम सिंह के साथ सजातीय और मुसलिम
वोट है, पर उत्तर प्रदेश का आम मतदाता किसके साथ है यह अभी स्पष्ट नहीं है। सवाल यह भी है कि पार्टी क्या अंततः टूटेगी? क्या पार्टी अखिलेश को हटाने का फैसला करेगी? उससे बड़ा सवाल है कि मुलायम उन्हें अपना
उत्तराधिकारी क्यों नहीं बनाना चाहते? क्या वे अपने दूसरे पुत्र को उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं? क्या वे शिवपाल को उत्तराधिकारी
मान लेंगे? जबतक ऐसी बातें साफ
नहीं होंगी तबतक सवाल उठते रहेंगे।
पवन प्रवाह में प्रकाशित
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