भारत के राष्ट्रीय आंदोलन
के सिलसिले में चौरी चौरा का नाम अक्सर सुनाई पड़ता है, जब महात्मा गांधी ने
आंदोलन के हिंसक हो जाने के बाद उसे वापस ले लिया था। हिंसा से आहत गांधी ने सविनय
अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर दिया, जो बारदोली से शुरू होने वाला था। गांधी की
राजनीति दीर्घकालीन थी। उसमें साधन और साध्य की एकता को साबित करने की इच्छा थी। लगता
है कि अरविंद केजरीवाल को किसी बात की जल्दी है। उनके दो दिन के आंदोलन के दौरान
एक बात साफ दिखाई पड़ी कि वे जितना करते हैं उससे ज्यादा दिखाते हैं। केंद्र सरकार
की भी किरकिरी हो रही थी, इसलिए ‘आप’ को नाक बचाने का मौका दिया। और केजरीवाल ने शुक्रिया के
अंदाज में इसे ‘महान विजय’ घोषित कर दिया।
दिल्ली में ‘आप’ जिस फंदे में दो दिन फँसी, वह केंद्र सरकार का फेंका हुआ
था। केंद्र सरकार चाहती तो टकराव को टाल सकती थी। अंततः टाला भी, पर ‘आप’ को एक्सपोज़ करने के बाद। छवि बिगड़ते देख ‘आप’ ने भी हाथ खींच
लिए। रात में सड़क पर सोना और वहीं बैठकर सरकारी फाइलों को निपटाना इस छवि को
बनाने की एक्सरसाइज़ थी, आंदोलन की मजबूरी नहीं। इसके कारण दिल्ली के रिक्शे, ऑटो
वालों और झुग्गियों के निवासियों का विश्वास उनके प्रति मजबूत हुआ, पर मध्य वर्ग
के एक हिस्से का टूटा भी है। राजनेता अरसे से ऐसे नाटक करते रहे हैं, ‘आप’ ने भी किया।
‘आप’ के अंतर्विरोधों
को समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसकी तार्किक परिणति क्या है? शुरू में लगता था कि पार्टी
बचकानेपन की शिकार है। अब लगता है कि यह भावनाओं के दोहन की इंतहा पर जा पहुँची
है। पार्टी के नियंता प्रतीकों के सहारे जनाकांक्षाओं को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल
करना चाहते हैं। फिर भी इस मोड़ पर उसे पूरी तरह खारिज करके विलेन की तरह पेश करना
ठीक नहीं। हाँ उनके दिल और दिमाग उतने साफ-सरल नहीं जितने नजर आते हैं। इस पार्टी
ने कांग्रेस और भाजपा समेत सभी दलों की बखिया जिस तरह उधेड़ी उसका श्रेय उससे छीना
नहीं जा सकता। पर यह खुद वोटरों को लुभाने वाले फॉर्मूलों से मुक्त संगठन भी नहीं
है। हाल में योगेंद्र यादव ने एक इंटरव्यू में कहा कि हमारे देश में पार्टियाँ
हैं, जिनके पास नेता है, पर अच्छे समर्थक नहीं हैं। हमारी पार्टी स्थानीय स्तर पर
जनता के स्वाभाविक नेताओं की तलाश में है, जो जनता के मूल्यों-मानदंडों से जुड़े
हों। तो क्या यह उन लोगों की मनोकामनाओं को पूरा करने वाली पार्टी है, जो
मुख्यधारा के दलों में नेता नहीं बन सके?
देश में पोलिटिकल रिक्रूटमेंट सहज विकसित नहीं
है। राजनीति में घुसना आसान हो भी तो आगे बढ़ना आसान नहीं है। आंदोलन एक रास्ता
है। जेपी आंदोलन ने नए नेता दिए। असम और तेलंगाना आंदोलन ने दिए। स्वतंत्रता के
बाद छात्र संघों के रास्ते नए लोग राजनीति में आते रहे, पर व्यावसायिक शिक्षा के
आगमन के बाद से विश्वविद्यालयों में छात्र संघों की गतिविधियाँ कम हुईं है। शिक्षा
का प्रसार हुआ है, स्थानीय स्तर पर राजनीति को लेकर चेतना बढ़ी है। प्रशासनिक व्यवस्था
में पारदर्शिता लाने के कानून बनने से सामाजिक हस्तक्षेप भी बढ़ा है। सोशल मीडिया
के कारण सूचना का प्रदान-प्रदान तेज हुआ है। ऐसे में ‘आप’ एक नया विकल्प है। उसके
साथ जुड़ने वालों की जबर्दस्त बाढ़ है। योगेंद्र यादव कहते हैं कि बाढ़ के साथ
कचरा भी आता है। फिल्टरिंग की चुनौती है। पर उससे बड़ी चुनौती है राजनीतिक-आर्थिक
कार्यक्रम की। 26 नवंबर 2012 को पार्टी बनी। पिछले साल जनवरी में पार्टी ने
तीन ब्रेन स्टॉर्मिंग सत्रों में कार्यक्रमों के बाबत विचार किया। कुछ कमेटियाँ
बनाईं। कुछ निष्कर्ष निकाले। उन्हें दस्तावेज का रूप दिया जा रहा है। इस दौरान ‘स्वराज’ नाम से जो दस्तावेज बनाया
गया है, वह इतना व्यापक और स्पष्ट नहीं कि उसे विचारधारा कहा जा सके।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी को अप्रत्याशित
सफलता मिलने के बाद जल्दी से जल्दी विस्तार करने की मनोकामना हावी हो गई। यह सफलता
गले का फंदा भी बन सकती है। बिन्नी फैक्टर पहला उदाहरण है। पार्टी कहती है कि हम
किसी खास विचारधारा से बँधे नहीं हैं। पर झुग्गी में रहने वालों और सॉफ्टवेयर
इंजीनियरों के मसले एक जैसे नहीं हैं। सबको को साथ लेकर चलने का एक्सरसाइज़
कांग्रेस और भाजपा भी कर रहीं हैं। उनके पास बेहतर होमवर्क है। दिल्ली में ‘आप’ के समांतर शिक्षकों का
धरना भी चल रहा है। उनका नारा है, ‘आम आदमी यहाँ है, केजरीवाल कहां है।’ ऐसे कुछ और आंदोलन शुरू
होंगे। ‘आप’ ने वाजिब सवालों को उठाया है, पर उनके व्यावहारिक जवाब भी उसे ही देने होंगे।
क्या यह ‘बहारे अरब’ के नाम से मगरिब से उठे जम्हूरी-तूफान के थपेड़े हैं, जो हमारी सीमाओं में प्रवेश कर गए हैं? ऐसा भी नहीं। मिस्र सहित
तमाम अरब देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं का अभाव है। हमारे पास तीसरी दुनिया का
सबसे विकसित लोकतंत्र है। जिस लोकतंत्र ने ‘आप’ को मौका दिया है, वह उसे हाशिए पर भी फेंक सकता है। दिल्ली
विधानसभा-चुनाव ने भारतीय जन-मन चौंकाया था। लोगों को लगा कि यह ईमानदार राजनीति
है। बेहतर हो कि ‘आप’ दिल्ली में अपने प्रयोगों को सफल बनाकर दिखाए। पर इसके लिए
उसे टकराव के साथ-साथ व्यवस्था के भीतर बने रास्तों का इस्तेमाल भी करना चाहिए।
‘आप’ के घोषणापत्र में
लिखा है, 'हम सत्ता के केंद्रों को ध्वस्त करके राजनीतिक सत्ता सीधे
जनता के हाथों में देने जा रहे हैं।' सत्ता के केंद्रों को ध्वस्त करने के माने व्यवस्थाओं को
ध्वस्त करना नहीं है। पार्टी ने दिल्ली
में सरकार बनाने के पहले जनता से राय ली थी। क्या इस आंदोलन को चलाने या वापस लेने
के लिए भी जनता से राय ली गई? जनता से राय लेना
और उसे भड़काना दो अलग-अलग बातें हैं। अच्छी राजनीति वह है जो रास्ता बताए। दिल्ली-आंदोलन
ने कई संदेहों को जन्म दिया है। उन्हें दूर करने की
जिम्मेदारी ‘आप’ की है।
achcha likha hai pramode ji
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