प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 से 25 जून तक अमेरिका और मिस्र की यात्रा पर जा रहे हैं. यह यात्रा अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है, और उसके व्यापक राजनयिक निहितार्थ हैं. यह तीसरा मौका है, जब भारत के किसी नेता को अमेरिका की आधिकारिक-यात्रा यानी ‘स्टेट-विज़िट’ पर बुलाया गया है.
इस यात्रा को अलग-अलग नज़रियों से देखा जा रहा
है. सबसे ज्यादा विवेचन सामरिक-संबंधों को लेकर किया जा रहा है. अमेरिका कुछ ऐसी
सैन्य-तकनीकें भारत को देने पर सहमत हुआ है, जो वह किसी को देता नहीं है. कोई देश
अपनी उच्चस्तरीय रक्षा तकनीक किसी को देता नहीं है. अमेरिका ने भी ऐसी तकनीक किसी
को दी नहीं है, पर बात केवल इतनी नहीं है. यात्रा के दौरान कारोबारी रिश्तों से
जुड़ी घोषणाएं भी हो सकती हैं.
सहयोग की नई ऊँचाई
इक्कीसवीं सदी के पिछले 23 वर्षों में भारत-अमेरिका
रिश्तों में क्रमबद्धता है. उसी श्रृंखला में यह यात्रा रिश्तों को एक नई
ऊँचाई पर ले जाएगी. आमतौर पर माना जा रहा है कि अमेरिका को चीन के बरक्स संतुलन
बनाने के लिए भारत की जरूरत है. दूसरी तरफ भारत को भी बदलती वैश्विक-परिस्थितियों में
अमेरिकी तकनीक, पूँजी और राजनयिक-समर्थन की जरूरत है.
प्रधानमंत्री की यात्रा के कुछ दिन पहले
अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन भारत आए थे. अनुमान है कि उनके साथ बातचीत के बाद
काफी सौदों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है. इसी साल जनवरी में भारत के रक्षा
सलाहकार अजित डोभाल और अमेरिकी रक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने इनीशिएटिव फॉर
क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (आईसेट) को लॉन्च किया था. तकनीकी सहयोग के
लिहाज से यह बेहद महत्वपूर्ण पहल है.
भारत की रक्षा खरीद परिषद ने गत 15 जून को जनरल
एटॉमिक्स से 30 प्रिडेटर ड्रोन खरीद के सौदे को स्वीकृति दे दी. इन 30 में से 14
नौसेना को मिलेंगे. हिंद महासागर में भारत की बढ़ती भूमिका के मद्देनज़र यह खरीद
काफी महत्वपूर्ण है. नौसेना ने 2020 में दो एमक्यू-9ए ड्रोन पट्टे पर लिए थे,
जिन्होंने पिछले साल तक 10 हजार घंटों की उड़ानें भर ली थीं.
मोदी की यात्रा के दौरान संभावित सामरिक-सौदों
के अनुमान भारत की रक्षा-खरीद परिषद के फैसलों से लगाए जा सकते हैं. कुछ सौदों का
अनुमान लगाया नहीं जा सकता, क्योंकि उनके साथ गोपनीयता की शर्तें होती हैं.
अलबत्ता लड़ाकू जेट विमानों के लिए जनरल इलेक्ट्रिक इंजनों के भारत में निर्माण का
समझौता उल्लेखनीय होगा.
भारत को विमानवाहक पोतों पर तैनात करने के लिए
लड़ाकू विमानों की जरूरत है, जो रूसी मिग-29के की जगह लेंगे. इसके लिए फ्रांसीसी
राफेल और अमेरिका के एफ/ए-18 सुपर हॉर्नेट के परीक्षण हो चुके हैं. देखना होगा कि दोनों में
से कौन से विमान का चयन होता है.
भारत के लड़ाकू विमान कार्यक्रम में एक बाधा स्वदेशी
हाई थ्रस्ट जेट इंजन कावेरी के विकास में आए अवरोधों ने पैदा की है. जीई के इंजन
को तेजस मार्क-2 में लगाया जाएगा और दो इंजन वाले पाँचवीं पीढ़ी के विमान एडवांस
मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एम्का) में भी जीई के इंजनों का इस्तेमाल होगा.
सबसे बड़ी जरूरत रक्षा उद्योग में आत्मनिर्भरता
से जुड़ी है. इस दौरान भारत अपने कावेरी इंजन का उत्तरोत्तर विकास करेगा. इसके साथ
ही फ्रांस के सैफ्रान और ब्रिटेन के रॉल्स रॉयस के साथ भी जेट इंजन विकास की बातें
चल रही हैं.
पश्चिमी देश अब इस बात को महसूस कर रहे हैं कि भारत की रूस पर निर्भरता इसलिए भी बढ़ी, क्योंकि हमने उसकी उपेक्षा की. ताजा खबर है कि भारत और जर्मनी के बीच छह पनडुब्बियों के निर्माण का समझौता होने जा रहा है. हाल में भारत के दौरे पर आए जर्मन रक्षामंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने डॉयचे वेले (जर्मन रेडियो) को दिए इंटरव्यू में कहा कि भारत का रूसी हथियारों पर निर्भर रहना जर्मनी के हित में नहीं है.
बुनियादी समझौते
अमेरिका अपने रक्षा सहयोगियों के साथ चार
बुनियादी समझौते करता है. पहला जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिटरी इनफॉर्मेशन एग्रीमेंट
(जीएसओएमआईए), जो दोनों देशों के बीच सन 2002 में हो गया था. इसके बाद 2016 में
लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (लेमोआ) हुआ. फिर 2018 में कोमकासा
पर दस्तखत हुए. अक्तूबर 2020 में चौथा समझौता बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन
एग्रीमेंट (बेका) हुआ.
इन समझौतों की भूमिका जुलाई 2005 में सामरिक
सहयोग की घोषणा से जुड़ी है, जिसकी एक परिणति 2008 के नाभिकीय समझौते के रूप में
हुई. 2005 का सामरिक सहयोग का समझौता दस साल के लिए था, जिसे 2015 में दस साल के
लिए बढ़ा दिया गया था. इसमें 2012 में हुई तकनीकी सहयोग की पहल डिफेंस टेक्नोलॉजी
एंड ट्रेड इनीशिएटिव (डीटीटीआई) शामिल है.
2016 में अमेरिका ने भारत को मेजर डिफेंस
पार्टनर (एमडीपी) घोषित किया. 2018 में भारत की संस्था इनोवेशन फॉर डिफेंस
एक्सेलेंस (आईडेक्स) और अमेरिका की डिफेंस इनोवेशन यूनिट के बीच तकनीकी सहयोग का
समझौता हुआ.
एटमी धमाकों के बाद
दोनों देशों के रिश्तों के संदर्भ में बीसवीं
और इक्कीसवीं सदी का संधिकाल तीन महत्वपूर्ण कारणों से याद रखा जाएगा. पहला, भारत
का नाभिकीय परीक्षण, दूसरा करगिल प्रकरण और तीसरे भारत और
अमेरिका के बीच लंबी वार्ताएं. सबसे मुश्किल काम था नाभिकीय परीक्षण के बाद भारत
को वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में वापस लाना.
अमेरिका और जापान के साथ हमारे रिश्ते बहुत
खराब हो गए थे, जिसके कारण न केवल उच्चस्तरीय तकनीक
में हम पिछड़ गए, बल्कि आर्थिक प्रतिबंधों के कारण
परेशानियाँ खड़ी हो गई थीं. नाभिकीय परीक्षण करके भारत ने निर्भीक विदेश-नीति की
दिशा में सबसे बड़ा कदम अवश्य उठाया था, पर उस कदम के जोखिम भी बहुत बड़े थे.
ऐसे नाजुक मौके में तूफान में फँसी नैया को
किनारे लाने का एक विकल्प था कि अमेरिका के साथ रिश्तों को सुधारा जाए. पर इसमें
दिलचस्पी अमेरिका की भी होनी चाहिए. बहरहाल वह एक दूसरी कहानी है. आज जापान और
अमेरिका भारत के महत्वपूर्ण मित्र देशों के रूप में उभरे हैं.
नई सहस्राब्दी में जसवंत सिंह और अमेरिकी
उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबॉट के बीच दो साल में 14 बार मुलाक़ातें हुईं. बात
केवल भारतीय हितों की ही नहीं है. इसमें अमेरिका की दिलचस्पी भी है. इसकी वजह है
चीन की बढ़ती आक्रामकता. भारत को भी चीन से खतरा है.
वैचारिक-विसंगतियाँ
भारत को लेकर अमेरिकी राजनीति में दो प्रकार के
विचार हमेशा रहे हैं. एक यह कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं भारत की पहचान हैं,
और दोनों देशों की मैत्री का सबसे बड़ा आधार यही है. दूसरे, भारत ने सोवियत संघ का
साथ देकर अमेरिकी हितों के विपरीत काम किया है. तीसरे, हिंदू-राष्ट्रवाद का विरोध.
अमेरिकी मीडिया में इस बात पर सहमति है कि राष्ट्रीय-हित अमेरिका को भारत के करीब
ले जा रहे हैं, मूल्य और सिद्धांत नहीं.
स्वतंत्रता के पहले अमेरिका नेता भारत की आजादी
का समर्थन करते थे, पर 1942 के ‘भारत-छोड़ो आंदोलन’ को
उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में चल रहे तानाशाही के खिलाफ ब्रिटिश-अमेरिकी अभियान के
विरुद्ध कार्य माना. भारत की निर्गुट-नीति को भी अमेरिका ने नापसंद किया.
इसके बावजूद 1958 में तत्कालीन सीनेटर जॉन एफ
कैनेडी ने (जो बाद में राष्ट्रपति बने), भारत की आर्थिक सहायता का प्रस्ताव इस
आधार पर रखा कि एक नया देश लोकतांत्रिक आधार पर बढ़ रहा है, हमें उसका समर्थन करना
चाहिए. कैनेडी और आइज़नहावर दोनों भारत के लोकतांत्रिक-भविष्य को लेकर बेहद
उत्साहित थे.
साठ के दशक में, जब भारत में जबर्दस्त
खाद्य-संकट पैदा हो गया, अमेरिका ने पीएल-480 के तहत सहायता की. पर 1971 में
भारत-रूस रक्षा-संधि को अमेरिका में नापसंद किया गया. तत्कालीन अमेरिकी
विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर के अनुसार वह बम का धमाका था.
1971 की लड़ाई
बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अमेरिकी भूमिका और
हिंद महासागर में सातवाँ बेड़ा भेजने की घटनाएं उन अंतर्विरोधों को रेखांकित करती
हैं, जो दोनों देशों के बीच पैदा हो गए थे. उसी दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान की
सहायता से चीन से संपर्क बढ़ाया. उसके बाद चीन को न केवल संयुक्त राष्ट्र की
सदस्यता मिली, बल्कि माओ के बाद की चीनी-अर्थव्यवस्था के पुनरुत्थान में अमेरिकी
पूँजी-निवेश ने बड़ी भूमिका निभाई.
अमेरिकी सहायता से पनपा चीन आज उसे ही चुनौती
दे रहा है, जिसे रोकने के लिए अमेरिका को भारत की जरूरत है. भारत चाहता है कि संरा
सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता उसे मिले. इसके लिए अमेरिका का समर्थन सबसे
ज्यादा महत्वपूर्ण है. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने का
वचन भी दिया है.
अमेरिकी कुढ़न
अमेरिकी मीडिया में इस बात का उल्लेख बार-बार होता
है कि आज भी संरा में भारत अमेरिका का खुलकर समर्थन नहीं करता. 2014 से 2019 के
बीच संरा महासभा में हुए मतदानों में भारत के केवल 20 फीसदी वोट ही अमेरिका के
समर्थन में पड़े. इतना ही नहीं अमेरिका के वैश्विक-समझौतों से भारत दूर रहता है.
वह किसी भी अमेरिकी व्यापारिक-समझौते में शामिल नहीं हुआ है. यूक्रेन-युद्ध के बाद
ये अंतर्विरोध बढ़े हैं.
अमेरिकी नीति में भी झोल है. कश्मीर समस्या को उलझाने
में सबसे बड़ी भूमिका ब्रिटेन और अमेरिका की है. बहरहाल आज भारत न तो रूस का उतना
गहरा मित्र है, जितना कभी होता था. पर वह उतना गहरा
शत्रु कभी नहीं बन पाएगा, जितना अमेरिका चाहता है.
भारत और रूस के रिश्तों के पीछे एक बड़ा कारण
रक्षा-तकनीक है. भारतीय सेनाओं के पास जो उपकरण हैं, उनमें
सबसे ज्यादा रूस से प्राप्त हुए हैं. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को
ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान
होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला. उन्होंने
सैनिक तानाशाही को सहयोगी बनाया. दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं
देता था.
स्वतंत्र विदेश-नीति
रक्षा-तकनीक के अलावा कश्मीर के मामले में
महत्वपूर्ण मौकों पर रूस ने संरा सुरक्षा परिषद में ऐसे प्रस्तावों को वीटो किया,
जो भारत के खिलाफ जाते थे. कश्मीर के मसले पर पश्चिमी देशों के
मुकाबले रूस का रुख भारत के पक्ष में था. यह बात दोस्ती को मजबूत करती चली गई.
आज की परिस्थिति में भारत अपनी स्वतंत्र
विदेश-नीति पर चलने का प्रयास कर रहा है. हम अमेरिका के अच्छे दोस्त बनना
चाहते हैं, पिछलग्गू नहीं. पश्चिमी देशों के मीडिया में मोदी सरकार के प्रति जो
वितृष्णा व्यक्त की जा रही है, वह भी आत्यंतिक है. वे भारत की आंतरिक राजनीति में
मोदी-विरोधी तत्वों से प्रेरित और प्रभावित हैं.
अमेरिका ने चीन के उदय को सहन किया, तो भारत को
क्यों नहीं? भारतीय व्यवस्था चीन से कहीं बेहतर है. भारत
में वोट के सहारे सत्ता-परिवर्तन होता है. चुनाव-संचालन की एक मजबूत-व्यवस्था है.
ऐसी न्याय-प्रणाली है, जो प्रशासनिक-निरंकुशता पर नियंत्रण बनाकर रखती है.
गोदी-मीडिया के आरोपों के बावजूद ऐसा मीडिया है, जो सरकार की आलोचना कर सकता है.
अर्थव्यवस्था
अर्थव्यवस्था
का विस्तार भारत की आंतरिक राजनीति को भी बदलेगा. हमारी समस्या बड़ी संख्या
में अकुशल कामगार हैं, जिन्हें रोजगार देने के लिए ऐसी आर्थिक गतिविधियों की जरूरत
है, जिनमें मानवीय श्रम की भूमिका हो. अर्थव्यवस्था का विस्तार सर्विस सेक्टर में
हो रहा है, जिसमें कुशल कामगारों की जरूरत है.
भारतीय सेवाओं का निर्यात बहुत तेजी से हो रहा
है. केवल कॉल-सेंटर ही नहीं, भारतीय डेटा-साइंटिस्ट, कंप्यूटर साइंटिस्ट,
स्वास्थ्य-कर्मी और चिकित्सकों जैसे कुशल कर्मियों की फौज देश में तैयार हो रही
है. यही लोग उस इंडियन डायस्पोरा में शामिल हैं, जो विदेश में भारत के झंडे गाड़
रहे हैं.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-06-2023) को "गगन में छा गये बादल" (चर्चा अंक 4669) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'