जो भारतीय जनता पार्टी अस्सी के दशक में
लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हिन्दुत्व की लहरों पर सवार थी और ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा लगा रही थी, उसे सन 1996 में
अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनी सरकार बनने के बाद पता लगा कि वह अकेली पड़ चुकी
है। राजनीतिक दृष्टि से अछूत की श्रेणी में आ गई है। इसके बाद उसने अपने तीखे
तेवरों पर ब्रेक लगाया और दोस्तों की तलाश शुरू की। जब सन 1998 में गिरधर गमंग के
एक वोट से हारी तो उसने फ्लोर मैनेजमेंट पर ध्यान देना शुरू किया। असहिष्णुता के
सवाल पर घेरे में आई पार्टी के लिए आज के दौर की राजनीति में भी कुछ सबक छिपे हैं,
बशर्ते वह सीख ले।
सन 1999 से 2004 तक भाजपा ने गठबंधन
राजनीति को अपेक्षा कृत संतुलित तरीके परिभाषित किया। गठबंधन के सहयोगियों के साथ समन्वय
समिति की अवधारणा उसी दौर की देन है। तब और अब में अंतर आया है। सन 2014 में
पार्टी को उम्मीद से बेहतर बहुमत मिला है। उसके हौसले बढ़े हैं, पर नेतृत्व की
सामूहिकता का क्षरण भी हुआ है। पार्टी के भीतर एक बड़ा तबका असंतुष्ट है। यह बात
बिहार चुनाव के फौरन बाद कुछ वरिष्ठ नेताओं के बयान से जाहिर भी हो गई। इन सारी
बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण है पार्टी का जनाधार। पार्टी के सामने अपनी विचारधारा
को लेकर अंतर्द्वंद्व है।
हिन्दुत्व से लुका-छिपी
सन 1991 के चुनाव में पार्टी हिन्दुत्व
की लहर पर सवार थी, पर 2014 के चुनाव में हिन्दुत्व कोई मसला नहीं था। उसके
घोषणापत्र के आखिरी सफों पर कहीं लिखा गया था, "भाजपा
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए संविधान के भीतर सभी संभावनाएं तलाशने के
अपने रुख को दोहराती है।" यह घोषणापत्र देर से जारी किया गया था। मतदान का
दौर शुरू हो जाने के बाद। नरेन्द्र मोदी की इच्छा के अनुसार इसका रुख हिन्दुत्व से
हटाकर विकास की ओर मोड़ा गया था। घोषणा
पत्र समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने तब कहा था, "पार्टी ने हिंदुत्व के बारे में कुछ नहीं कहा
है। हिंदुत्व हमारे लिए चुनावी मुद्दा नहीं है।"
लोकसभा चुनाव के दौरान प्रवीण तोगड़िया
और गिरिराज किशोर सिंह के बयानों से नरेन्द्र मोदी ने कन्नी काटने की कोशिश जरूर
की, पर कभी उसकी भर्त्सना नहीं की। आरोप यह है कि मोदी जी खुद भले ही हिन्दुत्व का
नाम न लें, पर अपने उन साथियों पर लगाम लगाने की कोशिश भी नहीं करते जो जहरीले
बयान देते हैं। मोदी सरकार के पहले छह महीने आसानी से बीते, पर पिछले साल शीत सत्र
से सहमे-सहमे विपक्ष को एक होने का मौका मिला, जो इस साल के शीत सत्र में पूरी तरह
मुखर होकर सामने आया है।
सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार
पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री पर दबाव
है कि देश के सामाजिक ताने-बाने को टूटने से बचाएं। पिछले महीने ग्रेट ब्रिटेन की
यात्रा के दौरान ने लंदन के वैम्बले स्टेडियम में उन्होंने कहा था कि भारत की
विविधता ही इसकी मजबूती और गौरव है। विविधता भारत की विशेषता है। उन्होंने कहा था
कि विभिन्न धर्मों, सौ से अधिक भाषाओं और डेढ़ हजार से
अधिक बोलियों के बावजूद भारतीय ने साबित किया है कि एक साथ कैसे रहा जाता है।
उन्होंने प्रतिष्ठित पत्रिका इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित एक लेख में भी भारत की बहुलता
का जिक्र किया था।
अब उन्होंने लोकसभा और राज्यसभा के दो
भाषणों में इस भावना पर और ज्यादा जोर देने की कोशिश की है। उन्होंने कहा, अगर
समाज में किसी के साथ अत्याचार होता है तो यह हमारे लिए कलंक है। देश में समभाव और
ममभाव दोनों ही होना चाहिए।
सवालों की अनदेखी
प्रधानमंत्री का यह सद्भाव उपदेशात्मक
और आदर्शों से ओत-प्रोत लगता है। साथ ही विपक्ष के भावी प्रहारों की पेशबंदी भी। उन्होंने
अपने वक्तव्य में नेहरू के योगदान का उल्लेख भी किया। पर उन्होंने किसी भी उस बात
का जवाब नहीं दिया, जिनके आधार पर कहा जा रहा है कि देश में असहनशीलता बढ़ी है। इसलिए
यह नहीं मान लेना चाहिए कि असहिष्णुता का मामला निपट गया। इससे यह जरूर जाहिर होता
है कि सरकार दबाव में है। प्रधानमंत्री को कहना पड़ा, तू-तू, मैं-मैं से देश नहीं चलता। मिलकर साथ-साथ चलता है। उन्हें यह भी कहना
पड़ा कि किसी को अपनी देशभक्ति साबित करने की जरूरत नहीं है।
संसद में असहिष्णुता पर विमर्श का एक
दौर पूरा जरूर हो गया है, पर यह मसला अभी खत्म नहीं हुआ है। अब राज्यसभा में यह
मसला उठेगा। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के एक नोटिस को स्वीकार कर लिया गया है। बिहार
के चुनाव में मिली सफलता से विपक्ष का उत्साह बढ़ा हुआ है। लेखकों, कलाकारों आदि
की सम्मान वापसी के कारण सरकार पहले से दबाव में है। लोकसभा में राहुल गांधी ने उन
सवालों को उठाया है, जिनका जबाव प्रधानमंत्री ने अपने बयान में नहीं दिया। संसदीय
कर्म के लिहाज से यह सत्र सकारात्मक रूप से चल रहा है, पर राजनीतिक रूप से सरकार
के सामने कई तरह की चुनौतियाँ हैं।
गलती पर गलती
सोलहवीं लोकसभा में हंगामों का
श्रीगणेश इस साल मॉनसून सत्र से नहीं पिछले साल के शीत सत्र से हुआ था और मसला
असहिष्णुता का ही था। पिछले साल शीत सत्र के पहले केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन
ज्योति के एक बयान से विपक्ष को तिनके जैसा सहारा मिला था। प्रधानमंत्री पर दबाव
पड़ा और उन्होंने राज्यसभा में जाकर खेद व्यक्त किया। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘साध्वी अनुभव में नई हैं और उन्होंने इस मामले में माफ़ी मांग ली है।
मैंने भाजपा संसदीय दल में इस मुद्दे को उठाते हुए सांसदों को ऐसे बयानों से बचने
की हिदायत दी है।’
मोदी के सामने पार्टी के भीतर दो
चुनौतियाँ हैं। पहली है उनके मौन-विरोधी, जो
पार्टी के भीतर हैं। संघ परिवार के साथ संगति बैठाना दूसरी चुनौती है। माना जाता
है कि यह पार्टी की सोची समझी योजना है। एक ओर उसके नेता जहरीले बयान देते हैं और
दूसरी तरफ माफ़ी माँग लेते हैं। पिछले साल राज्यसभा में मोदी ने कहा था, ‘‘मैंने बहुत कठोरता से इस प्रकार की भाषा को नामंजूर किया है। चुनाव
की गर्मा-गर्मी में भी हमें ऐसी भाषा से बचने की कोशिश करनी चाहिए।’’
विकास या तू-तू मैं-मैं
पिछले साल उत्तर प्रदेश के उप चुनावों
में ‘लव जेहाद’ और योगी आदित्यनाथ की रणनीति के फेल हुई थी। छह दिसम्बर को बाबरी
मस्जिद विध्वंस की 23वीं वर्षगांठ है। इस मौके पर उठा कोई भी विवाद देश के माहौल को
बिगाड़ेगा। आर्थिक दृष्टि से विकासमान देश का ध्यान इन मसलों में उलझे यह अच्छी
बात नहीं है। पिछले डेढ़ साल से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेता टीवी
चैनलों की बहसों में ही आमने-सामने होते रहे हैं। उन बहसों में तू-तू मैं-मैं
ज्यादा है, तत्व कम।
संसद के इस सत्र में पहले दो दिन ‘संविधान दिवस’ के बहाने दोनों पक्षों को ज्यादा बड़े
प्रश्नों को लेकर एक-दूसरे का सामना करने का मौका मिला। लोकसभा में असहिष्णुता को
लेकर चर्चा भी हुई। इस बीच लगता है कि बैकरूम बातचीत भी चली है। प्रधानमंत्री ने
सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से रूबरू मुलाकात की। एक बड़ा सवाल जीएसटी बिल और
उदारीकरण से जुड़े दूसरे विधेयकों का भी है। राज्यसभा में बेहतर स्थिति होने का
फायदा कांग्रेस उठाना चाहेगी। साथ ही उसे संसदीय विमर्श में बेहतर स्पेस मिलेगा।
अभी तो बहस शुरू हुई है
जिस पार्टी ने लोकसभा चुनाव में
कांग्रेस का मान-मर्दन किया उसे पुनर्जीवित करने में भी उसने ही मदद की। उसने खुद
पर इतना दबाव बना लिया है कि कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ाना पड़ा है। देश की एकता के
लिहाज से भी यह ठीक है। संसद के इस सत्र में अभी तक की चर्चा सकारात्मक है,
क्योंकि प्रधानमंत्री ने संविधान की सर्वोच्चता और भारतीय समाज की बहुलता को
स्वीकार किया है। पर असहिष्णुता पर बहस पूरी नहीं हुई है। प्रधानमंत्री के वक्तव्य
में आदर्श और उपदेश तो है, पर अनेक सवालों के जवाब नहीं हैं। दादरी में मोहम्मद
अखलाक की हत्या और उसके बाद कुछ मंत्रियों और सांसदों के बयानों से माहौल बिगड़ा
था। माहौल अभी खराब ही है।
असहिष्णुता की चर्चा जब भी होगी उसके
छींटे कांग्रेस पर भी पड़ेंगे। कश्मीरी पंडितों और सन 1984 के सिख विरोधी दंगों की
बातें भी उठेंगी। मौजूदा बहस में कहा जा रहा है कि सन 1984 में राज-व्यवस्था ने
इतनी कमजोरी नहीं दिखाई होती तो सन 2002 में गुजरात की स्थिति दूसरी होती। बहरहाल राज-व्यवस्था,
धर्म-निरपेक्षता और सहिष्णुता के सवालों
पर खुले दिलो-दिमाग से विचार-विमर्श की सम्भावना अब भी बनी हुई है। साथ ही प्रधानमंत्री
के ऐसे वक्तव्य की जरूरत भी है, जिसमें उन सारे सवालों का जवाब हो जो इस बीच उठाए
गए हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सम्मान वापस करने वाले लेखकों और कलाकारों से
मिलने की इच्छा व्यक्त की है। क्यों नहीं प्रधानमंत्री ऐसा कदम उठाएं?
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के एक
नोटिस को राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने स्वीकार कर लिया है। येचुरी के
अनुसार उन्होंने देश में बढ़ रही असहिष्णुता व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर
एक पंक्ति का एक प्रस्ताव दिया है। देखना होगा कि क्या कांग्रेस इस प्रस्ताव को पास
कराने में मदद करेगी? क्या यह प्रस्ताव सरकार की निंदा के
रूप में इस्तेमाल होगा? अगले दो-तीन रोज में चीजें और साफ
होंगी।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
सामयिक आलेख ...सारगर्भित चिंतन | बहुत बहुत आभार प्रमोद जी
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