सरकार ने चौबीस घंटे के भीतर राष्ट्रीय एनक्रिप्शन
(कूटलेखन) नीति का मसौदा वापस लेकर नया रिकॉर्ड कायम किया है। प्रस्तावित नीति की
सोशल मीडिया पर हुई आलोचना को देखते हुए सरकार ने फौरन अपने कदम खींच लिए।
प्रस्तावित दस्तावेज की भाषा को लेकर सरकार सांसत में आ गई थी। अंततः जिम्मेदारी
दस्तावेज तैयार करने वालों पर डाल दी गई। सरकार के लिए सांसत की बात इसलिए थी कि यह
मामला ठीक ऐसे मौके पर उठा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की सिलिकॉन वैली जाने
वाले हैं। वे फेसबुक के मुख्यालय से सीधे लोगों के सवालों के जवाब देंगे। बहरहाल दस्तावेज
को फौरन वापस लेने के सरकारी फैसले की तारीफ भी होनी चाहिए। इस बात को भी मान लिया जाना चाहिए कि एनक्रिप्शन नीति पर गहराई से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि वैश्विक सुरक्षा को देखते हुए इसे यों ही छोड़ा नहीं जा सकता।
इस नीति का उद्देश्य इंटरनेट पर
कूटभाषा में भेजे जाने वाले संदेशों पर निगरानी रखने का है। इनमें वॉट्सएप, फेसबुक जैसे संदेश भी आते हैं, जिन्हें कूटभाषा
के माध्यम से भेजा जाता है। सारी दुनिया में इन दिनों ऐसे संदेशों पर निगरानी
बढ़ाई जा रही है, क्योंकि सुरक्षा के लिहाज से यह जरूरी है। दुनियाभर की सुरक्षा
एजेंसियां आंतरिक सुरक्षा के लिए ऐसा करना चाहती हैं। दूसरी तरफ सायबर संसार में
निजता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कूटभाषा के मार्फत संदेशों का कायम रहना
जरूरी भी है। यह सायबर सुरक्षा की पहली सीढ़ी है। मान लिया कि सुरक्षा के लिए इन
संदेशों पर मर्यादित तरीके से नजर रखने की जरूरत भी होगी। तब उस मर्यादा रेखा को
खींचने की जिम्मेदारी सरकारों पर आएगी। इन संदेशों को रखने का और दिखाने का जिम्मा
सरकारें कंपनियों पर डालती हैं।
आमतौर पर संदेशों को एक खास कालावधि तक
सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी इंटरनेट सेवा प्रदाता या उस माध्यम के संचालकों की
होती है, जिसके मार्फत उसे भेजा जाता है। भारतीय नीति दस्तावेज से लगता था कि यह
जिम्मेदारी ग्राहक या उपभोक्ता पर डाल दी गई। इस तरह यह नीति जितना भला करती उससे
ज्यादा नुकसानदेह साबित होती। हालांकि पहले सरकार ने सफाई दी थी कि इसके तहत वॉट्सएप
और फेसबुक जैसे बड़े स्तर पर इस्तेमाल में आने वाले उत्पाद नहीं आएंगे, पर अंततः
नीति वापस ले ली गई है। लगता यह है कि इसकी शब्दावली में सुधार करके ही इसे दुबारा
लाया जाएगा।
संचार एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर
प्रसाद ने कहा है कि सरकार मसौदे पर नए सिरे से विचार करेगी। उनके अनुसार इस
संदर्भ में दो बातों का ध्यान रखा जाना है। पहला, कई
कंपनियां संदेश को कूट भाषा में बदलती हैं। दूसरा, सायबर
डोमेन में आम ग्राहकों के लिए वॉट्सएप और सोशल मीडिया, एसएमएस, ई-मेल जैसे माध्यम हैं। राष्ट्रीय कूटलेखन
नीति लाने का लक्ष्य संदेश को कूट भाषा में बदलने वाली संस्थाएं हैं। सरकार
राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाना चाहती है जिसके जरिए कूट
भाषा में भेजे जाने वाले संदेशों को जरूरत पड़ने पर पढ़ा जा सके। इसपर किसी को
आपत्ति नहीं है। दिक्कत केवल संदेशों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी को लेकर है।
आम नागरिक के लिए यह काफी मुश्किल काम है कि वह 90 दिन तक अपने संदेशों को सहेज कर
रखे।
सरकारी पहल की तीखी आलोचना हुई। लोगों
ने आशंका जाहिर की कि एनक्रिप्ट सूचनाओं तक सुरक्षा एजेंसियों की पहुंच होने से
सुरक्षा और निजता के साथ समझौता होगा। यह ज्यादा बड़ा सवाल है। फोन टैपिंग के
मामले में हम इस निजता के उल्लंघनों को देख चुके हैं। बहरहाल रविशंकर प्रसाद ने
कहा कि अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता के अधिकार का हम पूरा सम्मान करते हैं। साथ ही
हमें यह भी स्वीकार करने की जरूरत है कि लोगों, कंपनियों, सरकार और कारोबारियों के बीच सायबर
क्षेत्र में आदान-प्रदान काफी तेजी से बढ़ा है। इसलिए एनक्रिप्शन नीति की जरूरत है।
लगता है कि इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना
प्रौद्योगिकी विभाग ने सभी पहलुओं पर ध्यान दिए बगैर जल्दबाजी में इसे जारी कर
दिया। पर इसकी जिम्मेदारी किन्हीं एक या दो अधिकारियों पर डालने के बजाय सरकार को
अपने ऊपर लोनी होगी। सरकार का कहना है कि इसे जारी करने के पहले एक विशेषज्ञ समिति
से इसके बाबत राय ली गई थी। यह पहला मौका नहीं है, जब सायबर नीति को लेकर सरकार की
भद्द उड़ी हो। इसके पहले सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम 2008 की धारा 66ए को
लेकर लम्बे समय तक विवाद चला। अंततः इस साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के
बाद यह धारा तो खत्म हो गई, पर इस विषय पर विमर्श अभी खत्म नहीं
हुआ है। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी सीमाएं अच्छी तरह
परिभाषित हैं। यह संवैधानिक व्यवस्था सोशल मीडिया पर भी लागू होगी। पर उसके नियमन
की जरूरत है।
सन 2008 में 66ए को पास करते वक्त संसद
ने विचार-विमर्श किया होता तो शायद यह नौबत नहीं आती। जिस वक्त इसे पेश किया जा
रहा था तब कहा गया था कि इसका उद्देश्य महिलाओं को भद्दे, अश्लील मोबाइल संदेश भेजने वालों को पकड़ना था।
पर हुआ क्या? विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, लेखक, कार्टूनिस्ट, छात्र-छात्राएं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तक
इस कानून के दायरे में आ गए। हाल में नेट-न्यूट्रैलिटी को लेकर विवाद खड़ा हुआ। वह
भी सरकारी जल्दबाजी और हड़बड़ी के कारण।
सरकार को सलाह देने वाले विशेषज्ञ
पुराने जमाने के मन-मिज़ाज के हैं। वे सरकार के अधिकारों को असीम मानते हैं और
सामान्य नागरिक के अधिकार को सामने नहीं रखते। जबकि अब समय सामान्य नागरिक के अधिकारों
का है। सायबर दुनिया भी रची ही जा रही है। धरती, आकाश और सागर के बाद यह एक नया
संसार है। भविष्य में इसके लिए तमाम नियमों की जरूरत होगी। देखते-देखते हमारी
बैंकिंग, सेवाएं यहाँ तक कि खरीदारी तक नेट के माध्यम से हो रही है। हर जगह सामान्य
नागरिक के हितों की रक्षा करनी होगी। दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के सामने भी
नई चुनौतियाँ खड़ी हो रही हैं।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा से
जुड़े सवालों के कारण हाल के वर्षों में टोह और जासूसी बढ़ी है। विकीलीक्स के
जूलियन असांज अमेरिका के ह्विसिल ब्लोवर एडवर्ड स्नोडेन के जैसे अनेक मामले भविष्य
में सामने आएंगे। पर ये दोनों नाम नागरिक की आजादी के साथ भी जुड़े हैं। आज के
डिजिटल विश्व में एनक्रिप्शन का सीधा वास्ता व्यक्ति की स्वतंत्रता, जानकारी पाने
के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी है। आतंकवादी और संगठित अपराधी भी
इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। पश्चिम एशिया में इस्लामी स्टेट के उदय में ट्विटर
हैंडल का इस्तेमाल किया गया। इसी तरह तालिबान जैसे संगठन इसका इस्तेमाल कर रहे
हैं। साइबर आतंकी अब अपनी पहचान छिपाने में भी कामयाब हो रहे हैं। वे ऐसे एनक्रिप्शन
टूल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं जो पहले केवल सरकारी एजेंसियों को ही उपलब्ध थे।
आईएस के ट्वीट स्पैम कंट्रोल अवरोधों को पार कर जाते हैं। वे लोकप्रिय हैशटैग का
इस्तेमाल करके खुफिया भाषा में अपने संदेश थ्रू कर देते हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था की खुली खिड़की
तमाम गैर-लोकतांत्रिक ताकतों को भीतर प्रवेश करने का मौका देती हैं। सन 2008
मुम्बई हमले के दौरान पाकिस्तानी हमलावरों ने सोशल मीडिया के साथ-साथ भारतीय
मीडिया में हो रही कवरेज का फायदा भी उठाया था। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का मुकाबला
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही हो सकता है। संयोग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त
राष्ट्र महासभा के सामने इस बार जो बातें रखने वाले हैं उनमें अंतरराष्ट्रीय
आतंकवाद और सायबर तकनीक का सवाल भी होगा। सायबर आतंकवाद को कई देशों की सरकारों का
समर्थन भी मिल रहा है। यह ज्यादा बड़ी चिंता का विषय है।
हैकिंग की घटनाएं बढ़ती जा रहीं हैं।
आर्थिक अपराधों की एक नई दुनिया रची जा रही है। दुनियाभर के राष्ट्राध्यक्ष इस बात
से चिंतित हैं कि सायबर अपराधी बेहद मजबूत एनक्रिप्शन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ब्रिटिश
प्रधानमंत्री ने तो इनपर वैश्विक पाबंदी लगाने की माँग की है। पर यह दुधारी तलवार
है, इसलिए इसका इस्तेमाल सावधानी से होना चाहिए। इस समस्या के तमाम समाधान वैश्विक
स्तर पर और संयुक्त राष्ट्र के मंच से खोजे जाने चाहिए।
Great Post.. Thanks for Sharing !
ReplyDeleteFloral Pants
great....
ReplyDeleteShort Story